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शनिवार, 4 अप्रैल 2009

इक ताजमहल दिल का

मुझे ताजमहल अपना बनाया होता
फिर दर्द ज़िन्दगी में न आया होता

कभी मुझसे दिल लगाया होता
ज़ख्म खाकर यूँ न मुरझाया होता

कुछ पल खामोश गुजर गए होते
गर मुझको ज़िन्दगी में बुलाया होता

लबों पे ये खामोशी न होती
गर मुझे दिल में बसाया होता

दर-ओ-दीवार यूँ ना सूने होते
गर मेरी तस्वीर को लगाया होता

मुझे मुमताज अपनी बनाया होता
तो रूह को तेरी सुकून आया होता

17 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

प्रिय ब्लागर वन्दना जी!
ताजमहल को प्रतीक मान कर आपने
अपनी आज तक की सबसे उम्दा रचना
प्रकाशित की है।
"जख्म" पर आपकी एक पोस्ट पर
मैंने कुछ विसंगति दोष बताया था।
आप यकीन माने आपकी यह रचना परिष्कृत है।
इसमें तो छन्द भी उजागर होने लगे हैं।
आप लिखती रहें इसी आशा और विश्वास के साथ-
धन्यवाद मेरी सलाह मानने के लिए
और बधाई अच्छा और परिष्कृत लिखने के लिए।

Rahul kundra ने कहा…

khub, bahut khub

Yogesh Verma Swapn ने कहा…

wah vandana ji kya khoob likhti hain aap , bhai aur kisi ki nahin jaanta aapki rachna mere dil ke karib hoti hai.

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बढिया गज़ल है।

संगीता पुरी ने कहा…

बहुत सुंदर ...

डिम्पल मल्होत्रा ने कहा…

aapne kuch hi shabdo me boht kuch kah diya...raaz kah dete hai halke se ishaare aksar kitnee khamosh mohabbat ki zuban hotee hai....

Udan Tashtari ने कहा…

वाह!! क्या बात है!! बेहतरीन!!

रावेंद्रकुमार रवि ने कहा…

ग़ज़ल रचते समय आप यह क्यों भूल गईं
कि मुमताज़ से इश्क़ करके
शाहजहाँ को जो दर्द मिला था,
ताज़महल उसी की परिणति है!

जब शाहजहाँ को लालकिले में
क़ैद किया गया था,
तो वह वहाँ से ताज़महल को देखकर
सबसे ज़्यादा दुखी होकर रोया करता था!

जिसके लिए आपने
इस ग़ज़ल की रचना की,
वह बहुत किस्मतवाला है,
क्योंकि उसने आपको
अपनी मुमताज़ नहीं बनाया!

सुशील छौक्कर ने कहा…

ये ताजमहल का दिल पसंद आया।

मुझे मुमताज अपनी बनाया होता
तो रूह को तेरी सुकून आया होता

बहुत ही उम्दा।

Prem Farukhabadi ने कहा…

vandana ji,
aap ki rachna mein muhabbat chhalak rahi hai.
yu hi chhalakati rahi aur kaya chaahiye. aapki aisi rachnaon se sakoon milta hai. Dilse badhaai.

विजय तिवारी " किसलय " ने कहा…

वंदना जी
सुन्दर रचना है.
प्रेम- प्रतीक ताजमहल को विम्बित करती रचना ने प्यार का एहसास याद करा दिया.
सच प्रेम समर्पण का ही नाम है.
- विजय

बेनामी ने कहा…

मित्र राघवेन्द्र,
आपने क्या पढ़ा ये आपका नजरिया है, मगर लेखक के भाव से अनजान होने का गवाह भी.
लिखना और ह्रदय से लिखना में जो फर्क होता है वो आपके लेखनी से साफ़ झलकता है.
ना ही आप प्रेमचंद हैं और ना है गुरुदेव.
तो अपनी भावना को शब्द दीजिये ना...
लोगों की भावना को सकारात्मक या नकारात्मक कहने का अधिकार आपको किसने दे दिया.
आप कब से... कैसे.... और कहाँ से हिंदी के एकमात्र पैरोकार उत्पन्न हो गए.......
हिंदी को बढावा दीजिये...
हिन्दी को शर्मिन्दा मत कीजिये.

Anupama Tripathi ने कहा…

wah ...bahut badhia likha hai ..Vandana ji.

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बहुत सुन्दर भावों से सजी अच्छी रचना

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) ने कहा…

लयबद्ध ,भाव-प्रवाहमय, मन भावन.

विभूति" ने कहा…

bhut hi khubsurat rachna....

sandeep somvanshi ने कहा…

vandana ji apki ye rachana dil ko chhu jati hai,aur mai to padhne walon se kahunga ki iski bhawnaon ko samjho shabdon par mat jao.