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गुरुवार, 30 मई 2013

ओ मेरे !..........2

कुछ आईने बार बार टूटा करते हैं कितना जोड़ने की कोशिश करो .............शायद रह जाता है कोई बाल बीच में दरार बनकर .............और ठेसों का क्या है वो तो फूलों से भी लग जाया करती हैं ............और मेरे पास तो आह का फूल ही है जब भी आईने को देख आह भरी ............टूटने को मचल उठा . आह ! निर्लज्ज , जानता ही नहीं जीने का सुरूर ...........जो कहानियाँ सुखद अंत पर सिमटती हैं कब इतिहास बना करती हैं और मुझे अभी दर्ज करना है एक पन्ना अपने नाम से ...........इतिहास में नहीं तुम्हारी रूह के , तुम्हारी अधखिली , अधपकी चाहत के पैबदों पर ...........जो उघडे तो देह दर्शना का बोध बने और ढका रहे तो तिलिस्म का .............मुक्तियों के द्वार आसान नहीं हुआ करते और जीने के पथ दुर्गम नहीं हुआ करते ............कशमकश में जीने को खुद का मिटना भी जरूरी है फिर चाहे कितना आईना देखना या टूटे आइनों में निहारना .........तसवीरें नहीं बना करतीं , अक्स नहीं उभरा  करते फ़ना रूहों के ........जानां !!!

मैंने तो सुपारी ले ली है अपनी बिना दुनाली चलाये भी मिट जाने की ...........क्या कभी देख सकोगे आईने में खुद के अक्स पर खुद को ऊंगली उठाये ............ये एक सवाल है तुमसे ..........क्या दे सकोगे कभी " मुझसा जवाब " ............ओ मेरे !

रविवार, 26 मई 2013

एक यादगार शाम के दो रंग

25 मई 2013  की शाम डायलाग में "मुक्तिबोध" की प्रसिद्ध कविता " अंधेरे में " को पढने का मौका मिला जो एक यादगार क्षण बन गया क्योंकि उपस्थित गणमान्य अतिथियों ने भी उसी कविता के संदर्भ में अपने अपने विचार रखे तो लगा कि सही कविता चुनी मैने पढने के लिये :)

 पहली बार किसी दूसरे की कविता को पढना और उसके भावों को प्रस्तुत करना आसान नहीं था अपनी कविता का तो हम सभी को पता होता है मगर यहाँ तो मुक्तिबोध को पढना था जो साहित्य जगत के सशक्त हस्ताक्षर रहे हैं इसलिये कोशिश की कि उनके भावों को सही तरह से प्रक्षेपित कर सकूँ और इस तरह उन्हें नमन कर सकूँ 
क्योंकि कविता बहुत बडी है इसलिये सिर्फ़ उसके पहले भाग को ही पढा  










 इस कार्यक्रम के बाद क्योंकि दूसरे कार्यक्रम में जाना था इसलिये अतिथियों के विचार मुक्तिबोध की कविता के बारे में सुनने के बाद और आशुतोष कुमार जी का मुक्तिबोध की कविता का पाठ सुनने के बाद मुझे वहाँ से जाना पडा ।


एक शाम और दो दो कार्यक्रम ………लीजिये लुत्फ़ आप भी हमारे साथ चित्रों के माध्यम से 

 सुमन केशरी जी के काव्य संग्रह "मोनालिसा की आँखें" का लोकार्पण कल शाम "इंडिया इंटरनैशनल सैंटर" में किया गया तो वहाँ भी पहुँचना जरूरी था इसलिये डायलाग में कविता पाठ करके और गणमान्य अतिथियों को सुनने के बाद हमने यहाँ के लिये प्रस्थान किया 
 ये कम उम्र साथी संजय पाल जिसने खुद मुझे पहचाना और आकर मिला तो बेहद खुशी हुयी
 यहाँ राजीव तनेजा जी , संजय और रश्मि भारद्वाज के साथ यादों को संजोया

 ये हर दिल अज़ीज़ मुस्कान बिखेरती पंखुडी इंदु सिंह के साथ निरुपमा सिंह 
 सुमन केशरी जी के साथ शाम को जीवन्त किया 

इस प्रकार एक सुखद माहौल में काफ़ी लोगों से मिलना हुआ साथ ही आज के समय के वरिष्ठ हस्ताक्षर देवी प्रसाद त्रिपाठी जी और अशोक वाजपेयी जी को सुनने का भी मौका मिला जो एक अलग ही अनुभव था। 
राजीव तनेजा जी को आभार व्यक्त करती हूँ जिन्होने ये तस्वीरें संजो कर  
हम सबके यादगार क्षणों को यहाँ कैद किया और हमें अनुगृहित किया।

गुरुवार, 23 मई 2013

.ओ मेरे !...........1

सपनों के संसार की अनुपम सुंदरी नहीं जो तुम्हें ठंडी हवा के झोंके सी लगती, फिर भी हूँ .......सोचती हूँ , शायद , कुछ ...........तुम्हारी भी या तुम्हारी बेरुखी की सजायाफ्ता तस्वीर ...........इस उम्मीद के चराग को बुझने नहीं देना चाहती इसलिए खूब डालती हूँ तेल तुम्हारे दिए ज़ख्मों पर आंसुओं का ........आहा ! फिर जो सुरूर चढ़ता है , फिर जो नशा होता है , फिर जो रवानी होती है ............कब सुबह हुयी और कब शाम .........कौन पता करता है ...............एक मखमली सुकून की तलाश ख़त्म हो जाती है जैसे ही तुम्हारे दिए ज़ख्मों को जलते चिमटे से सहलाती हूँ ...........उम्र ठहर जाती है कुछ देर मेरी दहलीज पर ...............और मैं करती हूँ अट्टाहस अपने गुरूर पर , उस सुरूर पर जो सिर्फ मेरा है और मैं ...............हूँ , का अहसास चुरा लेता है तुम्हारी नींद भी फिर चाहे नहीं हूँ मैं तुम्हारी चाहत की दुल्हन , तुम्हारे सपनो का कोहिनूर ..............नशे के लिए जरूरी नहीं होता हर बार जाम को पीना ..............जो सुरूर बिना पीये चढ़ते हैं उम्र फ़ना होने पर भी न उतरते हैं ........जानां !!!


बस इतना जानती हूँ ..............तुम्हारे सपनो के संसार की अनुपम सुंदरी नहीं एक धधकती ज्वाला हूँ मैं, गर्म लू सी जो झुलसा देती है चमड़ी तक भी  ...........कहो , जी सकोगे अब साथ मेरे या मेरे ना होने पर भी ...........तुमसे एक सवाल है ये ...........क्या दे सकोगे कभी " मुझसा जवाब " ............ओ मेरे !

रविवार, 19 मई 2013

और आज चलन नहीं है आंतरिक सौन्दर्य को सराहे जाने का

नहीं जानती कविता का 
अर्थशास्त्र गणित या भूगोल 
क्योंकि ना कभी समकालीनों को पढ़ा 
ना ही कभी भूत कालीनों को गुना 
फिर कैसे जान सकती हूँ 
उस व्याकरण को 
जहाँ भाषा में शिल्प हो 
सौन्दर्य हो 
प्रतीकों और बिम्बों का प्रयोग हो 
फिर चाहे उनके दोहरे अर्थ ही 
क्यों ना निकलते हों 
और सब अपने अपने अर्थ उसके गढ़ते हों 
मगर कविता तो बस वो ही हुआ करती है 
जिसमें गेयता हो 
छंदबद्धता हो 
सपाटबयानी तो कोई भी कर सकता है 
उसके भावों को कौन गिनता है 
क्योंकि उसने नहीं जाना बाहरी सौन्दर्य 
और आज चलन नहीं है 
आंतरिक सौन्दर्य को सराहे जाने का 
आज चलन नहीं है सपाटबयानी का 
ऐसे में तुमने ही मेरे लिखे में 
जाने कैसे कविता ढूंढ ली 
जाने कैसे कविता के पायदान पर 
मेरी लेखनी को रख दिया 
मगर मैंने तो ना कभी कहा 
कि मैंने कविता को है गढ़ा 
जाने कौन से भाव तुम्हें 
उन्मत्त कर गए 
जाने कौन सा तार 
तुम्हारे दिल को छू गया 
जो तुम्हें सपाटबयानी में भी 
कविता का सम्पुट दिख गया 
और मैं हो गयी तल्लीन आराधना में 
साधना में , उपासना में 
बिना जाने 
बिना पुष्पों के अर्घ्य के 
आज के देवता प्रसन्न नहीं हुआ करते 
और मुझमे वो कूवत नहीं 
जो मछली की ग्रीवा से 
सागर में चप्पू चला सकूं 
या नए बिम्ब और प्रतीकों के प्रतिमान गढ़ूं 
जिनका कोई स्वेच्छाचारी अपने ही अर्थ निकाले 
और मेरी रचना का मूल स्वर ही शून्य में समाहित हो जाए 
मैं तो बस भावों का मेला लगाती हूँ 
और उसमे ज़िन्दगी के अनुभवों को 
बिना किसी सजावट के परोसा करती हूँ 
क्योंकि ज़िन्दगी कब दुल्हन सी श्रृंगारित हुयी है 
ये तो हर पल चूल्हे की आंच सी ही भभकती रही है 
और फिर जलती चिताओं की ज्वालाओं में 
कब श्रृंगार पोषित , सुशोभित , सुवासित हुआ है .............बस सोच में हूँ 

गर तुम स्वीकारो बिना दहेज़ की दुल्हन को 
जिसमे ना शिल्प है ना सौन्दर्य , ना बिम्ब ना प्रतीक 
तो इतना कर सकती हूँ 
जलती आँच से एक लकड़ी उठा सकती हूँ दुल्हन के श्रृंगार को
जो तुम्हारे सिंहासन को हिलाने को काफी है 
वैसे मेरी भावों की दुल्हन किसी श्रृंगार की मोहताज नहीं ..........जानती हूँ 

अब तुम खोजते रहना किसी भी कथ्य में "कविता या उसके अर्थ "
मगर आज के वक्त में तुम्हारा ये जानना भी जरूरी है 
भावों के तूफानों में कब सजावट सजी संवरी रहा करती है 

बुधवार, 15 मई 2013

कभी देखा है कोई पीर फ़कीर दरवेश ऐसा …………

चाहती थी
नींद , ख्वाब
भंवरा, पपीहा
पीहू - पीहू
पी कहाँ ,पी कहाँ
सारे बोल गुनगुनाऊँ
मै भी जोगन बन जाऊँ
मै भी एक बार
मोहब्बत मे गुम हो जाऊँ
पर ज़रूरी तो नही ना

हर रस्म निभायी ही जाये
या हर ख्वाब सच हो ही जाये
ओ मेरे
अन्जान देश के अन्जान पंछी
मेरी आखिरी कसक का आखिरी सलाम लेता जा
देख ले आज तू भी
एक अन्दाज़ ये भी होता है जीने का
न ख्वाब मे ना हकीकत मे
कुछ हथेलियों पर मोहब्बत की लकीर ही नही होती
फिर भी
जो अन्जानों की इबादत करता हो ………

कभी देखा है कोई पीर फ़कीर दरवेश ऐसा …………

रविवार, 12 मई 2013

फिर फसल को काटने से डर कैसा ?

पलायनवादिता के अंकुर
फूट ही जाते हैं एक दिन
जो बीज रोप दिए जाते हैं
बचपन में ही
हाँ ..........बचपन में
जब कुछ कम ना कर सको
तो छोड़ दो कह देना
जब कोई मुश्किल आये
तो ईश्वर पर छोड़ देना
मगर कभी मुश्किल का
सामना करने के लिए
ना प्रेरित करना
कभी खुद के हौसलों पर
विश्वास करने के लिए ना कहना
और फिर उम्मीद करना
बस ये पहाड़ खोद कर सडकें बना दे
कैसे संभव है ...........
जब जीवन से लड़ना ही नहीं सिखाया
जब कठिनाइयों से जूझने का
जज्बा ही ना पनपाया
आसान होता है
किसी भी बात से पलायन
आसान रास्ता तो सभी अपना लेते हैं
और उन रास्तों पर चलने वाले
कभी मील का पत्थर नहीं बनाते
हिमालय पर तिरंगा तो जीवट ही फहराते हैं .........पलायनवादी नहीं
पलायनवादी प्रवृत्ति  के लिए
शायद कहीं ना कहीं हम ही जिम्मेदार हैं
फिर क्यों कह देते हैं
ये अपना कर्त्तव्य सही ढंग से नहीं निभाता
बूढ़े माँ बाप की सेवा नहीं करता
आखिर पलायनवादी गुणों के पकने
का भी तो समय आता ही है एक दिन
फिर फसल को काटने से डर कैसा ?

गुरुवार, 9 मई 2013

मैं हूँ ना ............मैं हूँ ना

एक छटपटाती चीख 
रुँधता गला 
कुछ ना कर सकने की विडंबना 
मुझे रोज कचोटती है 
अंतस को झकझोरती है 
और सैलाब है कि बहता ही नहीं 
आखिर क्यों हुआ ऐसा ?
प्रश्न मेरी व्याकुलता पर 
मेरी असहजता पर 
प्रश्नचिन्ह बन 
मुझे सलीब पर लटका देता है 
और मैं हूँ 
रोज सिसकियों के लावे को 
खौलाती हूँ और जीती हूँ 
क्योंकि .........तुम हो 
हाँ तुम ...........तुम्हारा प्रथम स्पर्श 
तुम्हारी ख़ामोशी 
तुम्हारी मासूमियत 
तुम्हारा बिना कहे सब कह देना 
"मैं हूँ ना "...........मुझे भिगो जाता है 

तुम्हारा बिना कहे जतला देना 
जन्म जन्मान्तर के सम्बन्ध की डोर पर 
हमारा रिश्ता थिरकता है 
जो मोहताज नहीं किसी रस्मी उल्फत का 
कुछ पल की देरी पर असह्य ना होकर 
समीकरण न बिगाडना 
बल्कि खामोश निगाहों से 
लबों की मुस्कान से 
मुझे अहसास कराना .........मैं हूँ ना 

फिर कैसा अजनबीपन 
अजब प्रीत का अजब सम्बन्ध 
हमारे रिश्ते का साक्षी बना 
और फिर एक दिन तुम्हारा देर से आना 
आते ही मुझसे अमरबेल से लिपट जाना 
मेरे वक्षों में खुद को छिपा लेना 
और तुम्हें अपनी बाहों के सुरक्षित घेरे में 
और कस के चिपटा लेना 
तभी कुछ अजनबी आहटों का तुम तक पहुंचना 
कुछ शोर के शोर से मुखातिब होना 
और एक ही पल में 
रेत के महल का धराशायी होना 
यूं ही तो नहीं हुआ था ना 

जब एक आवाज़ कानों को चीरती 
आकाश को फाड़ती , धरती पर जलजला लाती 
मेरी शिराओं में बहते रक्त को जमाती टकराई 
अरे ! ये तो हरिजन है 
अरे ! ये तो गूंगा है 
अरे ! ये तो अनाथ है 
आश्रम से भागा है 
बस जैसे किसी उड़ान भरते पंछी के 
पर कुतर दिए गए हों 
जैसे अचानक हवाओं की साँय साँय 
इतनी बढ़ गयी हो 
कि उसमे सारी कायनात सिमट गयी हो 
ये हरिजन है , ये हरिजन है 
शब्द ने मुझे शिथिल किया 
मेरा बंधन ढीला पड गया 
जो मुझे बोध हुआ 
उफ़ ! एक हरिजन का मैंने स्पर्श किया 
जाने क्यूं अपराधबोध हुआ 

और रात यूं ही सिसकती रही 
कहर बन कर टूटती रही 
बस रूह ही जैसे सजायाफ्ता हुयी 
मगर दिनकर ने तो उदय होना था 
समय ने गतिमान होना था 
मुझे भी तो नियत समय पर 
फिर वहीँ जाना था 
जैसे कोई आवाज़ लगा रहा हो 
जैसे कोई मेरा अपना बुला रहा हो 
जैसे बाग़ चाहे उजड़ जाए 
पतझड़ चाहे कितना तांडव मचाये 
मगर बहार तो फिर है आये 
बहारें न फर्क करती हैं
 हवाएं तो सभी को इकसा गिनती हैं 
खुशबू तो चहूँ  और बिखरती है 
फिर हरिजन हो या ब्राह्मण 
ये सोच जो आश्रम की ड्योढ़ी पर कदम रखा 
मानो गाँधी ने प्रश्नवाचक नज़रों से घूरा 
धरती पाँव से सरकती लगी
मगर मन वेदना तो थी बढ़ी 
खोज में सितारे दौड़ा दिए 
आस्मों को चाँद की तलब जो थी 
तभी मानो कोई ग्रहण था लगा 
जो पता ये चला …………

अब ना चाँद का दीदार होगा 
चाँद को है पूर्ण ग्रहण लगा 
जो न अब कभी उदय हो पायेगा 
वो तो उसी सांझ की बेला में काल का ग्रास था बना 
सुन , सुन्न हो गयी 
खुद से ही शर्मसार हो गयी 
मर्यादा भी मानो कुम्हला गयी 
सिर्फ एक प्रश्न ज़ेहन में अटक गया 
आखिर ऐसा कब तक होगा 
आखिर कब ये भेदभाव ख़त्म होगा 
आखिर कब तक मासूमियत लाचारी 
कठमुल्लाओं की भेंट चढ़ेगी 
कुछ अनुत्तरित प्रश्नों के साथ 
बापू की मूरत थी मौन खड़ी 
बस एक ध्वनि  झकझोर रही है 
मेरी ममता को 
दिलो दिमाग पर हथौड़े सी बज रही है 
मैं हूँ ना ............मैं हूँ ना 

और दूसरी तरफ मेरी ममता 
पर था प्रश्नचिन्ह लगा 
आखिर इसमें उसका क्या दोष था 
वो तो बस एक ममता को व्याकुल 
नन्हा फ़रिश्ता था 
जिसने मेरी ममता को आयाम दिया था 
फिर क्यों न कह सकी मैं 
फिर उसको क्यों न ये विश्वास दिला सकी मैं 
मैं हूँ ना ............मैं हूँ ना 

"और मै बडी हो गयी" काव्य संग्रह की "मासूम यादें" की लेखिका "कमला मोहन दास बेलानी" की कहानी पर आधारित कविता 

शनिवार, 4 मई 2013

वो सुपरवूमैन कहलाती हैं

वो  सुपरवूमैन कहलाती हैं 
वो शक्तिशाली कहलाते हैं 
मेगज़ीनों में शीर्ष पर छाते हैं 
तभी तो हमारे सैनिकों के 
सिर काट लिए जाते हैं 
सच्चाई की आवाज़ को दबाया जाता है 
पर इनका खून ना  खौल पाता है 
इसलिए ये ना  हो- हल्ला मचाते हैं 
बस 
वो  सुपरवूमैन कहलाती हैं 
वो शक्तिशाली कहलाते हैं

वो  सुपरवूमैन कहलाती हैं 
जहाँ वूमैन की इज़्ज़त ही 
तार- तार हुयी जाती है 
मगर उनमें ना 
क्रांति की अलख जगती है 
क़ानून का गलत इस्तेमाल कर 
कोई खुद को साफ़ बचाता है 
नाबालिगता के प्रमाण पत्र तले
 सरकारी सुरक्षा पाता है 
इन्साफ रौंदा जाता है 
मर्यादाएं कुचली जाती हैं 
वहशी दरिंदों को जहाँ 
हिफाज़त में रखा जाता है 
मगर इन पर न असर होता है 
ये ना हो- हल्ला मचाते हैं 
बस 
वो  सुपरवूमैन कहलाती हैं 
वो शक्तिशाली कहलाते हैं


मँहगाई त्राहि त्राहि मचाती है 
आम जनता मारी जाती है 
भ्रष्टाचार जडें जमाता है 
इनके राज में खूब पनपे जाता है 
सब्र कर सब्र कर की धुन पर 
कोई सरबजीत मारा जाता है 
मगर इन पर ना असर होता है 
ये ना  हो -हल्ला मचाते हैं 
बस 
वो  सुपरवूमैन कहलाती हैं 
वो शक्तिशाली कहलाते हैं 


कोई पाक को नापाक करता है 
पीठ में छुरा घोंपता है 
फिर भी उस पर ना  गुर्राते हैं 
बस अपनों पर ही लाठीचार्ज करवाते हैं 
जहाँ जुल्म ही जुल्म मुस्काता है 
बेबस तो आंसू बहाता है 
ये कैसा बेशर्मी से नाता है 
जो इनका दिल न पसीज पाता है 
तभी तो अंधे गूंगे बहरे बन 
देश को खाए जाते हैं 
पर ये न हो- हल्ला मचाते हैं 
बस 
वो  सुपरवूमैन कहलाती हैं 
वो शक्तिशाली कहलाते हैं


कहीं लश्कर रौब जमाता है 
कहीं चीन अन्दर घुसा आता है 
पर गूंगे मोहन को तो बस 
चुप रहना ही सुहाता है 
सिर्फ कुर्सी ही कुर्सी दिखती है 
इसलिए हाँ में हाँ मिलाता है 
अर्थशास्त्री का सारा अर्थ तो 
तिजोरियों में सिमटा जाता है 
इसलिए ये ना हो- हल्ला मचाते हैं 
बस 
वो  सुपरवूमैन कहलाती हैं 
वो शक्तिशाली कहलाते हैं


तभी तो ताकतवर देश ना  कहाता है 
मेरा भारत पिछड़ा जाता है 
ऐसे लोभियों के हाथों में पड़ 
अपनी किस्मत पर रोये जाता है 
क्योंकि जज्बा ना अमरीका सा पाता है 
जो दुश्मन के घर में घुस उसे मार गिराता है 
ऐसी जांबाजी की मिसाल ना दे पाता है 
बस कुछ लालचियों की भेंट चढ़ा जाता है 
ये कैसा अजब तमाशा है 
जहाँ बाड़ ही मेड को खाती है 
इसलिए ये ना  हो- हल्ला मचाते हैं 
बस 
वो  सुपरवूमैन कहलाती हैं 
वो शक्तिशाली कहलाते है


(फ़ोटो : साभार गूगल )

गुरुवार, 2 मई 2013

क्यूँकि सायों की मोहब्बत के मौसम नहीं हुआ करते

वो कौन सा जन्म था
वो कौन सी महफ़िल थी
वो कौन सा खुदा था 
वो कौन सी दुनिया थी
मेरे हमनशीं 
भरभराता हुआ आकाश जब 
तेरे दामन में सिमट गया था
एक टुकड़ा मेरी रूह का
वहीँ तेरे पाँव में छुप गया था
कोई वादा नहीं किया था
कोई जलज़ला नहीं आया था
कोई बिजली नहीं गिरी थी
कोई रुका हुआ फैसला नहीं हुआ था
फिर भी कायनात में 
एक चाँद के पहलू में 
दूजा चाँद उग आया था 
किसी खुदगर्ज़ मौसम की ताबीर बनकर
आज भी उसी खुदगर्ज़ मौसम का 
एक टुकड़ा फिर से 
इस जन्म में 
इस सुलगते मौसम में
इस ठहरे पल में
इस रूह की गुंजन में
इस सांस के स्पंदन में
अधखिले गुलाब सा उग आया है
और तुम जानते हो ना
मुझे अधखिले गुलाबों की महक कितनी अच्छी लगती है
बिल्कुल मिटटी पर गिरी बूँद की सौंधी सी खुशबू की तरह
जानती हूँ ना
गर खिल जायेगा गुलाब तो
सबकी निगाह में आ जायेगा
मगर अधखिला गुलाब तो सिर्फ मेरी नज़र को भायेगा
हे ............मेरे गुलाब में अपनी ओस भर दो और उसे जीवंत कर दो ना 
उसी युग की तरह
उसी जन्म की तरह
उसी झील में ठहरे हुए चाँद की तरह 
तुम्हें पता है ना .........
मुझे झील में ठहरा चाँद देखना कितना भाता है
क्योंकि जानती हूँ
कसकों को करार जल्दी नहीं आता है ...........
शायद तभी 
तुमसे ये गुजारिश की है
जो अधूरी ख्वाहिश थी 
उसने आज ये जुर्रत की है
मिटा दो आज खिंची हुई उस रेखा को
और ले चलो उस पार 
जहाँ चाँद के बगल में बैठा दूजा चाँद हमारे इंतजार में है 
उसका इंतजार ही मुकम्मल कर दो ना ..........आज बस इस पल को जी लो ना 
बेमौसमी बरसातों पर कभी तो भरोसा कर लो ना ..........ओ सनम !
क्यूँकि सायों की मोहब्बत के मौसम नहीं हुआ करते