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बुधवार, 31 अगस्त 2011

बताओ कौन से सितारे में लपेटूँ बिखरे अस्तित्व को ?

यूँ तो रोज किसी ना किसी को
बिखरते देखा है मैंने
मगर कभी देखा है
खुद को बिखरते
टूटते किसी ने ?
आजकल रोज का नियम है
खुद को बिखरते देखना
देखना अभी कितनी जगह
और बाकी है
हवाओं के लिए
किन किन दरारों से
रिसने की बू आती है
इबादत की जगह बदल दी है मैंने
शायद तभी देवता भी
मंदिर में नहीं रहते
सबको एक ही काम सौंपा है
 खुदा ने शायद
हर मुमकिन कोशिश करना
कोई ना कोर कसर रखना
बहुत बुलंदियों को छू चुकी है ईमारत
अब इसे ढहना होगा
मिटटी में मिलना होगा
बिखराव भी तो एक प्रक्रिया है
निरंतर बहती प्रक्रिया
प्रकृति का एक अटल हिस्सा
फिर उससे मैं कैसे अछूती रहती
सृष्टि के नियम का
कैसे ना पालन करती
मगर पल पल बिखरना
और फिर जुड़ना और फिर बिखरना
इतना आसान होता है क्या
एक बार मिटना आसान होता है
मगर पल पल का बिखराव
दिमागी संतुलन खो देता है
अब कोई कैसे और कब तक
खुद को संभाले
दिल के टूटने को तो
जज़्ब कर भी ले कोई
मगर जब वार दिमाग पर होने लगे
अस्तित्व की सिलाइयां उधड़ने लगें
और डूबने को कोई सागर भी ना मिले
बताओ कौन से सितारे में लपेटूँ बिखरे अस्तित्व को ?



रविवार, 28 अगस्त 2011

कालजयी नही बन सकती.............

वो कहते हैं मुझसे
कालजयी बन जाओ

भाषा शैली को दुरुस्त करो
मगर कैसे कालजयी बन जाऊँ

कैसे भावों से खिलवाड़ करूँ
अपने सुख के लिए लिखती हूँ
भावों में ही तो बस जीती हूँ
कैसे उनका भी व्यापार करूँ
वक्त की कसौटी पर खरा उतरने के लिए
कैसे खुद पर अत्याचार करूं
अब कसौटियो पर नही जी सकती
सबके लिये नही बदल सकती


भाव ही मेरी पूंजी हैं
भाव ही मेरा जीवन हैं
भाव बिना शून्य हूं
भावों को ही जीती हूँ
भावों को ही पीती हूँ
भाव ही मेरी थाती हैं
कैसे उनसे समझौता करूँ
कैसे भावों का त्याग करूँ
खुद से विश्वासघात करूँ
और रूह को लहूलुहान करूँ
फिर कहो कैसे शैली को बदलूं मै
कैसे भावों को कुचलूं मै
फिर मै ना मै रह पाऊंगी
अपने ही हाथों ठगी जाऊँगी
मुझे मुझसे जुदा मत करना
जैसी हूं बस वैसा अपना लेना
अब कालजयी नही बन सकती
कालजयी नही बन सकती............


शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

उडान तो आसमां की तरफ़ ही होती है ना……………

अजनबी मोड
अजनबी मुलाकात
जानकर भी अन्जान
पता नही वजूद जुदा हुये थे
या …………
नहीं , आत्मायें कभी जुदा नही होतीं
वज़ूद तो किराये का मकान है
और तुम और मै बताओ ना
वजूद कब रहे
हमेशा ही आत्माओ से बंधे रहे
अब चाहे कितनी ही
बारिशें आयें
कितने ही मोड अजनबी बनें
कितनी ही ख्वाहिशें दम निकालें
और चाहे चाय के कप दो हों
और उनमे चाहे कितना ही
पानी भर जाये
देखना प्यार हमेशा छलकता है
वो कब किसी कप मे
किसी बारिश की बूंद मे
या किसी फ़ूल मे समाया है
वो तो वजूद से इतर
दिलो का सरमाया है
फिर कैसे सोचा तुमने
हम जुदा हुये
हम तो हमेशा
अलग होते हुये भी एक रहे
एक आसमां की तरह
एक पंछी की तरह
कहीं भी रहे
उडान तो आसमां की तरफ़ ही होती है ना……………

गुरुवार, 25 अगस्त 2011

झूठे मक्कारों के देश मे गांधी ने क्यों जनम लिया

किससे करें शिकायत
किससे करें गिला
झूठे मक्कारों के देश मे
गांधी ने क्यों जनम लिया
ये गांधीवादी बनते हैं
जनता पर अत्याचार करते हैं
सिर्फ़ बातों मे ही सब्ज़बाग दिखाते हैं
मगर आचरण मे ना
गांधी के उपदेश लाते हैं
गांधी की तस्वीर के नीचे ही
सच को कदमों तले कुचलते हैं
कदम कदम पर धोखा देते हैं
अपनी बातों से ही मुकरते हैं
गांधी गर होते ज़िन्दा
अपने देश का हाल देख
खुदकुशी वो भी कर लेते
अपने नारों का
अपनी बातों का
अपनी मर्यादाओ का
यूँ तिरस्कार ना देख पाते
जो राह दिखाई थी
उस पर चलने वालों को
तिल तिल कर ना मरते देखा जाता
आतंकवादियों , भ्रष्टाचारियों की खातिर मे
देश के कर्णधारों को
यूँ दण्डवत करते देखते
तो सच मे गांधी आज
लोकतंत्र की परिभाषा पर
खुद ही शर्मिंदा होते
किसकी खातिर संघर्ष किया
किसकी खातिर अनशन किये
किसकी खातिर जाँ कुर्बान की
गर पता होता तो आज
गांधी भी ज़िन्दा होते
और देश पर विदेशियो का
राज होता तो क्या गलत होता
कल भी विदेशी राज करते थे
आज भी विदेशी राज करती है
देश की जनता तो बस
भ्रष्टाचार की बलिवेदी पर चढती है
गर गांधी ने ये सब देखा होता
तो सिर शर्म से झुक गया होता
अन्तस मे पीडा उपजी होती
गर कुर्सी के लालची नेताओं की
ये ऐसी मिलीभगत देखी होती
जहाँ कुर्सी की खातिर
जनता से विश्वासघात होता है
वहाँ संविधान भी आज
अपनी किस्मत पर रोता है
कैसे करे इस बात को साबित
जनता को ,जनता के लिये, जनता के द्वारा
ये तो सिर्फ़ एक किताबी तहरीर
बनी है मगर इसमे ना कोई
जनता की भागीदारी है
जनता तो सिर्फ़ प्रयोगों
तक सीमित होती है
गर देखा होता आज देश का ये हाल
गांधी ने भी अफ़सोस किया होता
क्यूँ मैने झूठे मक्कारों धोखेबाजों के
देश मे जनम लिया……………

रविवार, 21 अगस्त 2011

प्रेम दीवानी

सांवरे की प्रीत संग मैने 
बांध ली है डोरी
अब मर्ज़ी तुम्हारी
नैया मेरी पार लगाओ 
या मझधार मे डुबा दो मोरी
प्रीत की रीत मै नही जानूँ
पूजा पाठ की विधि ना जानूँ
और कोई राह ना जानूँ
सांवरे इक तेरे नाम के सिवा
और ना कोई नाम ना जानूँ
अब मर्ज़ी तुम्हारी
हाथ पकडो या छोड दो मुरारी
मै तो जोगन बनी तिहारी
मुझे ना भाये दुनिया सारी




तुम बिन  ठौर ना पाये दीवानी
भई बावरी प्रीत बेचारी
दर दर भटके मीरा बेचारी
कहीं ना मिलते कृष्ण मुरारी
कैसे आये चैन जिया मे
श्याम बिन अंखियाँ बरस रही हैं
श्याम दरस को तरस रही हैं
श्याम रंग मे डूब गयी हैं
श्याम ही श्याम हो गयी हैं
 
और कोई रंग नही है
और कोई ढंग नही है
जीवन तुम बिन व्यर्थ गया है
जीने का ना कोई अर्थ रहा है
श्याम सुधि ना बिसरायो
इक बार दरस दिखा जाओ
ह्रदयकमल मे आ जाओ



मोहिनी रूप दिखा जाओ
मुझे अपनी दासी बना जाओ
श्याम प्रीत की रीत दिखा जाओ
मुझे अपनी दुल्हन बना जाओ
श्याम मिलन को आ जाओ
कांकर पाथर बना जाओ
चरण स्पर्श करा जाओ
मुझ अहिल्या को भी तार जाओ
श्याम दिव्य जोत जगा जाओ
इक बार विरहिनी के ताप को मिटा जाओ
श्याम इक बार तो आ जाओ
प्यारे इक बार दरस दिखा जाओ


गुरुवार, 18 अगस्त 2011

आज तुम फिर धडकी हो

आज तुम फिर धडकी हो
क्या हुआ है जो आज
धडकनों  ने फिर करवट ली है
क्या फिर से कोई सरगोशी हुई है
किसी याद ने फिर आँगन
बुहारा है
ये तो  बियाबान जंगल में
एक उजाड़ मंदिर है
जहाँ अब कोई घंटा नहीं बजता
फिर कैसे आज टंकार हुई है
यहाँ तो देवी की मूरत भी
खंडित हो चुकी है
सिर्फ अवशेष ही बिखरे पड़े हैं
फिर कैसे यहाँ आज आहट हुई है
मैंने तो सुना है उजड़े दयारों में
चराग रौशन नहीं होते
फिर कैसे आज लौ टिमटिमा रही है
वैसे भी सब सावन हरे नहीं होते
फिर कैसे यहाँ कोंपल फूट रही है
क्या वक्त तुम्हारे आँगन में हवा दे रहा है
या कोई उड़ता तिनका मेरी आस का
आज तुम्हें भी चुभा है
जो तुमने मुझे इस कदर याद किया है
कि मेरी धडकनों ने फिर से जीना सीख लिया है
या फिर कोई बादल आज तुम्हारे
पाँव को फिर से छू गया है
और तुम्हें वो गुजरा लम्हा
याद आ गया है
जिसमे बरसात भी सूख गयी थी
और मोहब्बत भीग रही थी
कोई तो कारण है
यूँ ही तुम आज फिर से मुझमे नहीं धडकी हो

रविवार, 14 अगस्त 2011

जब तुम्हारा नया जन्म होगा……एक अपील देश की जनता के नाम





स्वतंत्रता दिवस है या महज औपचारिकता?
क्या वास्तव मे स्वतंत्रता दिवस है?
क्या वास्तव मे हम स्वतंत्र हैं?
कौन से भ्रम मे जी रहे हैं हम? किसे धोखा दे रहे हैं? शायद खुद को धोखा देने की आदत पड गयी है ।
जिस देश मे बोलने की आज़ादी पर प्रतिबंध लगने लगे, अपने अधिकारों के इस्तेमाल पर अंकुश कसने लगे, तानाशाही का बोलबाला होने लगे, आम जनता की आवाज़ को दबाने की कोशिश की जाने लगे,जनता के मौलिक अधिकारों का हनन होने लगे…………तो कहाँ से वो देश लोकतांत्रिक देश गिना जायेगा…………क्या हम तानाशाही की तरफ़ नही बढ रहे…………क्या फ़र्क रह गया तानाशाही मुल्कों मे और हमारे देश मे जहाँ भ्रष्टतम अधिकारी डंके की चोट पर सीना तान कर आम जनता की आवाज़ को दबाने मे जुटे हों और देश की सरकार भी उसमे शामिल हो …………किस आधार पर कहते हैं कि ये देश लोकतंत्र मे विश्वास रखता है कहाँ है लोकतंत्र जब आम जनता को उसके बोलने या विरोध प्रदर्शन की भी इजाज़त ना दी जाये?
सिर्फ़ लोकतंत्र शब्द याद किया है मगर उसके असली अर्थ को तो नेस्तनाबूद कर दिया है । कैसा शासन है ? फिर कैसी स्वतंत्रता का ढोल पीट रहे हैं हम? क्या यही स्वतंत्रता है और इसी का जश्न हमने मनाना है तो मेरी अपील है इस देश के नागरिकों से कि मत भ्रम मे रहें और कल स्वतंत्रता दिवस पर कोई भी जनता लालकिले पर ना पहुँचे और इस तरह अपना विरोध प्रदर्शन करे………ताकि देश के कर्णधारो को पता चल जाये कि तानाशाही हर युग मे चकनाचूर हुई है………और जनता की एकता और अखंडता का सबूत सरकार को मिल जाये अन्यथा उम्रभर गुलामी की जंजीरो मे जकडे रहेंगे और फिर ये मौका दोबारा कभी मिलेगा भी या नही , नही मालूम।
तो क्यों ना आज हम सब मिलकर अपना विरोध प्रदर्शन इस तरह करें कि सरकार और उनके नुमाइंदों को जनता के तेवर समझ आ जायें और इसका सबसे बेहतर अब एक  आखिरी उपाय यही बचा है कि हम सब कल स्वतंत्रता दिवस पर लालकिले ना जाकर और ना ही किसी समारोह मे शिरकत करके अपना विरोध दर्ज करायें और देश के सच्चे नागरिक होने का फ़र्ज़ निभायें ताकि आने वाला कल हम पर शर्मिंदा ना हो।





सभ्यता संस्कार और संस्कृति का मानी
तीन रंगो मे समाया देश है मेरा
अब इसके रक्षक बन जाओ
मत फिर से तुम भरमाओ
एकजुट फिर हो जाओ
बलिदान को तैयार हो जाओ
आज देश की पुकार यही है
एक बार फिर से दोहराओ
तुम मुझे खून दो मै तुम्हे आज़ादी दूँगा
और एकता का परचम लहराओ
खुद मे भगतसिंह , सुखदेव , राजगुरु
को एक बार फिर जिला देना
वतन का कुछ कर्ज़ चुका लेना
गांधी का मान रख लेना
अपनी शक्ति का परिचय देना
कल गुलाम थे गैरो के
इस बार अपनो की जंजीरें तोड देना
भारत को एक बार फिर
आज़ाद कर देना
ये आज़ादी का संकल्प लेना
तब स्वतंत्रता दिवस सफ़ल होगा
जब तुम्हारा नया जन्म होगा
जब तुम्हारा नया जन्म होगा……………

शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

आहत मन

आओ लहू का बीज बोयें
लहू का खाद पानी दें
और लहू की ही खेती करें
अब रगो मे लहू का उफ़ान कहाँ
वो जमीन आसमान कहाँ
बन्जर मरुस्थलो मे 
अब खिलते कँवल कहाँ 
चलो यारो थोडा तेरा 
थोडा मेरा 
कुछ लहू बहाया जाये
एक लहू का दरिया बनाया जाए

सीनो मे अब दिल कहाँ 
जज़्बातो मे वो सिहरन कहाँ
अहसासो मे वो अपनापन कहाँ
चलो यारो ज़िन्दा लाशो को
फिर से दफ़नाया जाये
कुछ तेरा और कुछ मेरा
थोडा लहू बहाया जाए

सरहदो मे अब फ़ासले कहाँ
आने जाने मे अब रुकावटें कहाँ
हर तरफ़ दहशतगर्दी का आलम
चलो फिर से इस बेजान शहर को
कब्रिस्तान बनाया जाए
यहाँ ज़िन्दा रूहो को दफ़नाया जाए
कुछ तेरी कुछ मेरी
लहू की भूख मिटायी जाए
ऐसे इक दूजे को काटा जाए
फिर ना कोई प्यास रहे
फिर ना कोई आस रहे
कहीं ना कोई विश्वास रहे
चलो यारो आओ इस देश को अपने
लहू का समन्दर बनाया जाए

जब ज़िन्दा ही चिताये जलती हैं
इंसान हर पल मरता हो
आतंक , भ्रष्टाचार का बोलबाला हो
आम आदमी के नसीब मे तो
सिर्फ़ भुखमरी का पाला हो
पैसे से जहाँ सबकी भूख मिटती हो
गद्दारो से धरती पटी पडी हो
जहाँ लाशें भी बिकती हों
और इंसानियत पर 
बेईमानी , गद्दारी की
दीवारें चिनती हों
जहाँ मौत ज़िन्दगी से सस्ती हो
आदमी आदमी का दुश्मन हो
फिर क्यो न ऐसे देश मे यारो
अपनो का लहू बहाया जाए
खुद को स्वंय मिटाया जाए

जब मौत हर पासे ताण्डव करती हो
तो क्यों ना उसे गले लगाया जाए
इस बेबस लाचार कमजोर सभ्यता 
को मिटाया जाए
प्रलय का दीदार कराया जाए
कुछ इस तरह यारों 
आखिरी कर्ज़ चुकाया जाए
एक नये जहान, 
एक नयी सभ्यता 
एक नयी जमीन 
और इंसानियत की खातिर
 वर्तमान को ज़मींदोज़ किया जाये
भविष्य को नया सूरज दिया जाए






































































बुधवार, 10 अगस्त 2011

उधर तो चीन की दीवार खिंची है

ये मोहब्बत की
शिकस्त नही तो क्या है
तुम्हारी परछाइयाँ भी
साथ छोड रही हैं
और नगर मे
कोलाहल मचा है
कुछ सुनाई नही देता
क्या तुम तक
मेरी आवाज़ पहुंचती है
क्या तुम अब भी
मोहब्बत की राख मे
भीगते हो
अगर हाँ ……।
तो बताओ छूकर मुझे
क्या मेरा स्पर्श
महसूस कर रहे हो
और जो राख बची है मुझमे
क्या मिली उसमे कोई चिंगारी
नही बता सकते ……जानती हूँ
मोहब्बत कब स्पर्श की मोहताज़ रही है
शायद तभी बर्तन खडक रहे हैं
और शोर मच रहा है
मगर इकतरफ़ा…………
उधर तो चीन की दीवार खिंची है
अब दीवारों मे कान नही होते………।


रविवार, 7 अगस्त 2011

कुछ कश्तियाँ अकेले बहने को मजबूर होती हैं

जाने कैसे पहुँच गयी
महासागर मे बहते बहते
लहरों के तांडव पर
अपने वजूद को संभालने
की कशमकश में

वो कहते हैं
तुम दूर हो गयी हो
इंसानी वजूद से

तुम्हारे चारो तरफ़
फ़ैला सागर
तुम्हे समेट रहा है
अपने आगोश मे



और तुम अकेले
किनारे पर खडे
मुझे  और मेरी
ज़िन्दगी की हलचलों
को इस किनारे से उस किनारे तक
देख रहे हो
मगर क्या तुम्हे
मै वहाँ मिली?
दिखा मेरा वजूद
जो ना जाने कब का
सागर के अंतस्थल मे
विलीन हो गया है


तुम होकर भी नही हो
और मै ………
देखो ना मै बची ही नही
तुम्हारे बिना………
इस बहते सागर के
उठते ज्वार भाटों मे
कश्तियाँ डूब जाया करती हैं
अपना वजूद खो देती हैं
मगर कुछ कश्तियाँ
अकेले बहने को मजबूर होती हैं

कहीं देखा है तुमने

शापित कश्तियों का अकेलापन

बुधवार, 3 अगस्त 2011

कभी देखा है चिता को चीत्कार करते हुये?

ये कानखजूरों से रेंगते
सवालो के पत्थर
ये बेतरतीब से बिखरे
अशरारों के मंज़र
हादसों के गवाह
कब होते हैं
ये तो खुद हादसों की
वकालत करते हैं
सीने पर बिच्छू से
डंक मारते अलाव
उम्र भर जलने को
मजबूर होते हैं
चिता का धुआं
सुलगती आग को
हवा देता है
और हर ख्यालाती
मंज़र को होम
कर देता है
कभी देखा है
चिता को चीत्कार
करते हुये?