मोहब्बत के पंख कतरे पड़े थे
हैवानियत के अब ये
सिलसिले चले थे
आन के नाम पर
मिटा दिया था गुलों को
ये किस मज़हब के
बाशिंदे थे
अभी तो परवाज़ भी
भरी ना थी परिंदों ने
सैयाद ने जाल
फैला दिया था
सिर्फ नाक बचाने
की खातिर
अपनों ने ही अपनों का
लहू बहा दिया था
ये २१ वी सदी में
जीने वाले
क्यूँ रूढ़ियों की
बेड़ियों में
जकड़े खड़े थे
खुदा ने तो
ना फर्क किया
लहू एक -सा
अता फ़रमाया
फिर क्यूँ इंसान
ने ही इन्सान को
इंसानियत का
दुश्मन बनाया
कभी रिश्तों का
कभी मज़हब का
कभी जाति का
कभी खाप का
जामा पहनाया
और इज्जत की
आड़ में
मौत का वीभत्स
तांडव कराया
ज़िन्दगी दे नहीं सकते
तो ज़िदगी लेने का
हक़ किसने दिलाया
ये इंसान की सोच को
किस श्राप ने
अभिशप्त बनाया
किस श्राप ने.....................
दोस्तों,
मन बहुत व्यथित था रोज की इन घटनाओं से ..............जब भी पेपर उठाओ सिर्फ यही पढने को मिलता और दिल दुखने लगता ...........आज के युग में भी जब ये हाल है तो कैसे हम कह सकते हैं कि देश तरक्की कर रहा है .........क्या इसी का नाम तरक्की है जहाँ अभी तक इंसानी सोच जड़ बनी हुई है ?
पृष्ठ
रविवार, 27 जून 2010
बुधवार, 23 जून 2010
आशिकों के बीच बहस- सी छेड़ जाते थे
वो रेशमी दुपट्टा तेरा जो लहराता था
एक तूफ़ान आकर गुजर जाता था
जब हिरनी सी -कुलांचें भरती तू चलती थी
कितने आवारा बदल टकरा जाते थे
तेरी मदमाती खनखनाती सुरीली तान पर
मंदिरों में घंटियाँ घनघना जाती थीं
जब कपोलों पर गिरी लट तू सुलझाती थी
एक मदहोशी- सी जहन पर छा जाती थी
सुर्ख लबों को जब तू दाँत के नीचे दबाती थी
कितने ही दिलों की धडकनें रुक जाती थीं
सुराहीदार ग्रीवा जब नजाकत से बल खाती थी
दिलों पर सैंकड़ों बिजलियाँ- सी गिर जाती थीं
जब मदभरे चंचल नयन लजाते थे
आशिकों के बीच बहस- सी छेड़ जाते थे
जब आफताब के साथ तेरा दीदार हुआ करता था
दिल में इन्द्रधनुषी -से रंग बिखर जाते थे
एक तूफ़ान आकर गुजर जाता था
जब हिरनी सी -कुलांचें भरती तू चलती थी
कितने आवारा बदल टकरा जाते थे
तेरी मदमाती खनखनाती सुरीली तान पर
मंदिरों में घंटियाँ घनघना जाती थीं
जब कपोलों पर गिरी लट तू सुलझाती थी
एक मदहोशी- सी जहन पर छा जाती थी
सुर्ख लबों को जब तू दाँत के नीचे दबाती थी
कितने ही दिलों की धडकनें रुक जाती थीं
सुराहीदार ग्रीवा जब नजाकत से बल खाती थी
दिलों पर सैंकड़ों बिजलियाँ- सी गिर जाती थीं
जब मदभरे चंचल नयन लजाते थे
आशिकों के बीच बहस- सी छेड़ जाते थे
जब आफताब के साथ तेरा दीदार हुआ करता था
दिल में इन्द्रधनुषी -से रंग बिखर जाते थे
शनिवार, 19 जून 2010
पिता का योगदान
एक बच्चे के व्यक्तित्व के सम्पूर्ण विकास में एक पिता का योगदान माँ से किसी भी तरह कम नहीं होता.माँ तो वात्सल्य की मूर्ति होती है जहाँ अपने बच्चे के लिए प्रेम ही प्रेम होता है मगर पिता उसकी भूमिका यदि माँ से बढ़कर नहीं तो माँ से कम भी नहीं होती. ज़िन्दगी की कठिन से कठिन परिस्थिति में भी पिता अपना धैर्य नहीं खोता और उसकी यही शक्ति बच्चों को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करती है. बच्चों के जीवन के छोटे -बड़े उतार -चढ़ावों में पिता चट्टान की तरह खड़ा हो जाता है और अपने बच्चों पर आँच भी नहीं आने देता. बेशक ऊपर से कितना भी कठोर क्यूँ ना दिखे पिता का व्यक्तित्व मगर ह्रदय में उसके जो प्यार होता है अपने बच्चों के लिए वो शायद दूसरा समझ ही नहीं सकता. बेशक ज्यादा लाड - प्यार ना जताए मगर वो भी अपने बच्चों की छोटी से छोटी ख़ुशी के लिए उसी प्रकार जी -जान लड़ा देता है जैसे माँ.बस वो अपने स्नेह का उस प्रकार प्रदर्शन नहीं कर पाता. समर्पण ,प्रेम और त्याग में पिता कहीं भी पीछे नहीं होता बस वो जता नहीं पता. माँ तो रो भी पड़ेगी मुश्किल हालात में मगर पिता वो हमेशा अन्दर ही अन्दर सिर्फ अपने आप से जूझता रहेगा मगर कहेगा नहीं वरना ममता और भावुकता में वो किसी से पीछे नहीं रहता.ना पिता में जज्बात कम होते हैं ना ही अहसास बस अपने प्यार को वो अपनी कमजोरी नहीं बनने देता और यही उसकी ताकत होती है ज़िन्दगी से लड़ने की और आगे बढ़ने की.
ज़िन्दगी का व्यावहारिक ज्ञान जिस प्रकार पिता बच्चों को दे सकता है शायद उतनी अच्छी तरह और कोई नहीं दे सकता . बच्चे के अन्दर से भय का दानव वो ही निकालता है . माँ तो फिर भी अपनी ममता के कारण बच्चे को कहीं अकेले जाने के लिए मना भी कर दे मगर पिता वो बड़ी बेफिक्री से बच्चे को प्रोत्साहित करता है जिससे बच्चे में आत्मविश्वास बढ़ता है. एक पिता अपने बच्चों को सुरक्षा की भावना प्रदान करता है. जैसे यदि माँ होती तो चाहे बेटा हो या बेटी उन्हें कोई भी वाहन चलाने पर चिंतित हो जाएगी . हाय !मेरा बच्चा ठीक- ठाक घर आ जाये या उसे चलाने से ही मना कर दे क्यूंकि हर माँ जीजाबाई जैसे ह्रदय की नहीं होती मगर माँ की जगह पिता इस कार्य को चुटकियों में और खेल -खेल में पूरा कर देता है और माँ भी उस वक्त बेकिफ्र हो जाती है जब बच्चा पिता के साये में ज़िन्दगी जीना सीख रहा होता है.
जब बच्चा मुश्किल घडी में अपने पिता को धैर्य और आत्मविश्वास के साथ हालत का मुकाबला करते देखता है तो ये भावना भी उसके दिल में घर कर जाती है और बच्चा भी अपने पिता के पदचिन्हों पर चलने के लिए प्रेरित हो जाता है . किसी भी असफलता की घडी में उसे अपने पिता की सहनशक्ति ही आगे बढ़ने को प्रोत्साहित करती है और फिर बच्चा हर कठिन से कठिन परिस्थिति का हँसते -हँसते मुकाबला करने में सक्षम हो जाता है.
एक बच्चे के समुचित विकास में लिए माँ के साए के साथ- साथ पिता का योगदान भी उतना ही आवश्यक है तभी बच्चे का सर्वांगीण विकास संभव है.
ज़िन्दगी का व्यावहारिक ज्ञान जिस प्रकार पिता बच्चों को दे सकता है शायद उतनी अच्छी तरह और कोई नहीं दे सकता . बच्चे के अन्दर से भय का दानव वो ही निकालता है . माँ तो फिर भी अपनी ममता के कारण बच्चे को कहीं अकेले जाने के लिए मना भी कर दे मगर पिता वो बड़ी बेफिक्री से बच्चे को प्रोत्साहित करता है जिससे बच्चे में आत्मविश्वास बढ़ता है. एक पिता अपने बच्चों को सुरक्षा की भावना प्रदान करता है. जैसे यदि माँ होती तो चाहे बेटा हो या बेटी उन्हें कोई भी वाहन चलाने पर चिंतित हो जाएगी . हाय !मेरा बच्चा ठीक- ठाक घर आ जाये या उसे चलाने से ही मना कर दे क्यूंकि हर माँ जीजाबाई जैसे ह्रदय की नहीं होती मगर माँ की जगह पिता इस कार्य को चुटकियों में और खेल -खेल में पूरा कर देता है और माँ भी उस वक्त बेकिफ्र हो जाती है जब बच्चा पिता के साये में ज़िन्दगी जीना सीख रहा होता है.
जब बच्चा मुश्किल घडी में अपने पिता को धैर्य और आत्मविश्वास के साथ हालत का मुकाबला करते देखता है तो ये भावना भी उसके दिल में घर कर जाती है और बच्चा भी अपने पिता के पदचिन्हों पर चलने के लिए प्रेरित हो जाता है . किसी भी असफलता की घडी में उसे अपने पिता की सहनशक्ति ही आगे बढ़ने को प्रोत्साहित करती है और फिर बच्चा हर कठिन से कठिन परिस्थिति का हँसते -हँसते मुकाबला करने में सक्षम हो जाता है.
एक बच्चे के समुचित विकास में लिए माँ के साए के साथ- साथ पिता का योगदान भी उतना ही आवश्यक है तभी बच्चे का सर्वांगीण विकास संभव है.
बुधवार, 16 जून 2010
आखिरी वसीयत
तेरी गली के
कोने पर
घर के सामने
खड़ा वो
गुलमोहर का पेड़
आरामगाह
है मेरी
बस आखिरी
आरजू
आखिरी वसीयत
है मेरी
वहीँ बिस्तर
लगा देना मेरा
कब्रगाह बनवा
देना मेरी
मुझे वहाँ
सुला देना
और चेहरा मेरा
खुला रखना
बाकी जिस्म
सारा दबा देना
बस दीदार
होता रहेगा तेरा
और रूह को
सुकून मिलता रहेगा
कोने पर
घर के सामने
खड़ा वो
गुलमोहर का पेड़
आरामगाह
है मेरी
बस आखिरी
आरजू
आखिरी वसीयत
है मेरी
वहीँ बिस्तर
लगा देना मेरा
कब्रगाह बनवा
देना मेरी
मुझे वहाँ
सुला देना
और चेहरा मेरा
खुला रखना
बाकी जिस्म
सारा दबा देना
बस दीदार
होता रहेगा तेरा
और रूह को
सुकून मिलता रहेगा
शनिवार, 12 जून 2010
इसे क्या नाम दूं?
भोर की
सुरमई
लालिमा सी
मुस्काती
थी वो
नभ में
विचरण
करते
उन्मुक्त
खगों सी
खिलखिलाती
थी वो
और सांझ के
सिंदूरी रंग के
झुरमुट में
सो जाती
थी वो
वो थी
उसकी
पावन
निश्छल
मधुर
मनभावन
मुस्कान
हाँ --एक नवजात
शिशु की
अबोध
चित्ताकर्षक
पवित्र मुस्कान
सुरमई
लालिमा सी
मुस्काती
थी वो
नभ में
विचरण
करते
उन्मुक्त
खगों सी
खिलखिलाती
थी वो
और सांझ के
सिंदूरी रंग के
झुरमुट में
सो जाती
थी वो
वो थी
उसकी
पावन
निश्छल
मधुर
मनभावन
मुस्कान
हाँ --एक नवजात
शिशु की
अबोध
चित्ताकर्षक
पवित्र मुस्कान
मंगलवार, 8 जून 2010
तुम्हें याद है वो..................
तुम्हें याद है वो
मौसम की पहली
बारिश में भीगना
और इतना भीगना
कि हाथ -पैर
और होठों का
नीला पड़ जाना
फिर ठण्ड से
ठिठुरना और
ठिठुरते -ठिठुरते
तेरे आगोश में
सिमट जाना
तुम्हें याद है वो
जेठ की तपती
धूप में
छत पर नंगे
पाँव दौड़कर
आना मेरा
आकाश से
गिरते अंगारों
की भी परवाह
ना करना
और तुझसे
मिलने की
बेचैनी में
पाँव में पड़ते
छालों का
दर्द भी
बिसरा देना
तुम्हें याद है वो
आसमान से गिरते
रूई के फाहों
पर नंगे पाँव
चलना और
सर्द हवाओं से
ठिठुरते हुए
किटकिटाते
दाँतों के साथ
आइसक्रीम
खाना और
फिर कंपकंपाते
हुए तेरी बाँहों
के घेरे में
कैद हो जाना
क्या याद है
तुम्हें वो सब मंज़र
जहाँ शोखियों
और प्यार का
खुमार था
निगाहों में बस
इंतज़ार ही
इंतज़ार था
प्रेम के वो
शोख चंचल पल
क्या अब भी
तुम्हारी यादों
में क़ैद हैं
क्या वो स्मृतियाँ
अब भी जीवंत हैं
या वक़्त की
धूल पड़ गयी है ?
मैंने कतरनों को संभाला है
देख इस आषाढ़ में
कितने गरज गरज आमंत्रित कर रहे हैं बदरा
आओ पुनः उन्हीं लम्हों को जीवंत कर लें
पल जो अधूरे छुट गए थे
फिर से जी लें
अधूरी हसरतों को शायद मुकाम मिल जाए
किसी और जन्म मिलन की हसरत को
आ इसी जन्म पूरा कर लिया जाए
कल हों न हों ......
मौसम की पहली
बारिश में भीगना
और इतना भीगना
कि हाथ -पैर
और होठों का
नीला पड़ जाना
फिर ठण्ड से
ठिठुरना और
ठिठुरते -ठिठुरते
तेरे आगोश में
सिमट जाना
तुम्हें याद है वो
जेठ की तपती
धूप में
छत पर नंगे
पाँव दौड़कर
आना मेरा
आकाश से
गिरते अंगारों
की भी परवाह
ना करना
और तुझसे
मिलने की
बेचैनी में
पाँव में पड़ते
छालों का
दर्द भी
बिसरा देना
तुम्हें याद है वो
आसमान से गिरते
रूई के फाहों
पर नंगे पाँव
चलना और
सर्द हवाओं से
ठिठुरते हुए
किटकिटाते
दाँतों के साथ
आइसक्रीम
खाना और
फिर कंपकंपाते
हुए तेरी बाँहों
के घेरे में
कैद हो जाना
क्या याद है
तुम्हें वो सब मंज़र
जहाँ शोखियों
और प्यार का
खुमार था
निगाहों में बस
इंतज़ार ही
इंतज़ार था
प्रेम के वो
शोख चंचल पल
क्या अब भी
तुम्हारी यादों
में क़ैद हैं
क्या वो स्मृतियाँ
अब भी जीवंत हैं
या वक़्त की
धूल पड़ गयी है ?
मैंने कतरनों को संभाला है
देख इस आषाढ़ में
कितने गरज गरज आमंत्रित कर रहे हैं बदरा
आओ पुनः उन्हीं लम्हों को जीवंत कर लें
पल जो अधूरे छुट गए थे
फिर से जी लें
अधूरी हसरतों को शायद मुकाम मिल जाए
किसी और जन्म मिलन की हसरत को
आ इसी जन्म पूरा कर लिया जाए
कल हों न हों ......
शुक्रवार, 4 जून 2010
एक दिन में सिमटती यादें
कहते हैं यादों का कोई मौसम नहीं होता ....... यादों की फसल हर मौसम में लहलहाती रहती है मगर ऐसा होता कहाँ है ..............ज़िन्दगी इतनी फुरसत देती ही कब है जो यादों में जिया जाये ............ बड़ी मुश्किल से कुछ गिने -चुने दिनों में यादों को समेट देती है और यादों का हर मौसम उन्ही चुनिन्दा दिनों में लहलहा उठता है ...........अपने होने का अहसास करा जाता है .
सिर्फ एक दिन यादों का बवंडर आ जाना ........ सारी की सारी यादें सिर्फ एक दिन में सिमट जाना.............ना जाने क्या होता है उस एक दिन में. .........बाकी भी तो दिन होते हैं तब हमें कुछ भी याद नहीं आता ......अपनी रोजमर्रा की ज़िन्दगी जीते चले जाते हैं......... सुबह से ही दिनचर्या शुरू हो जाती है और रात को बिस्तर पर ख़त्म ...........मगर उस सारे दिन एक बार भी यादें दरवाज़ा नहीं खट्खटातीं.........फुरसत ही नहीं मिलती कि किसी को याद किया जाए............इतना वक़्त कब देती है ज़िन्दगी..........मगर जब आपका जन्म दिन हो , वैवाहिक वर्षगाँठ हो ,कोई आपसे बिछड़ा हो या किसी खास का आपकी ज़िन्दगी में आगमन हुआ हो या कोई हादसा हुआ हो..........उस दिन यादों की लहरें बाँध तोड़कर सैलाब सी उमड़ पड़ती हैं और हर तटबंध को तोड़ देती हैं............स्मृति की हर कुण्डी खडखडा जाती हैं ............क्या हमारा नाता यादों से सिर्फ एक दिन का होता है या फिर हम उस एक दिन में ही अपनी पूरी ज़िन्दगी जी लेते हैं ..........दिल के हर कोने से खुरच- खुरच कर यादों को निकाल लाते हैं ........हर दबी -ढकी, धुंधली याद भी उस एक दिन को महका जाती है फिर चाहे वो याद कडवी हो या मीठी, तीखी हो या कसैली मगर यादें तो सिर्फ यादें होती हैं जो उस एक दिन की शोभा बन कर उस सारे दिन पर कब्ज़ा कर लेती हैं और हम उनके साथ- साथ बहते हुए यादों की संकरी पगडंडियों से गुजरते हुए उसके हर अहसास में डूबते -उतरते यादों की वादियों में खो जाते हैं ..........उस एक दिन में हम होते हैं और हमारी यादें..........यादों के बिस्तर पर हम यादों का ही सिरहाना लगाये यादों में खोये होते हैं उनके अलावा उस दिन कुछ याद ही नहीं आता ..........ज़िन्दगी की हर चिंता उस एक दिन में ना जाने कहाँ काफूर हो जाती है ........उस एक दिन में एक ज़िन्दगी को जीना एक अलग ही अहसास होता है ............ज़िन्दगी को ज़िन्दगी से दूर अपने आगोश में समेट लेती हैं यादें और ज़िन्दगी के हर दुःख तकलीफ , हर गम ख़ुशी से दूर ले जाती हैं ..........मगर हमारी ज़िन्दगी का एक हिस्सा होती हैं यादें शायद इसीलिए यादें ही हैं जो हमें जीने की उर्जा देती हैं क्यूंकि उस एक दिन में हम ना जाने किन -किन पलों से रु-ब-रु होते हैं और अपने अन्दर एक नयी शक्ति का संचार पाते हैं क्यूंकि इन्ही यादों में हमारे जीवन की सफलता और असफलता का दर्शन होता है और फिर उन्ही से प्रेरित हो हम अगले दिन से एक नए जोश और उत्साह के साथ ज़िन्दगी की मंजिल की ओर बढ़ने लगते हैं ..........एक और यादों को मुकाम देने के लिए..............शायद इसीलिए सिर्फ एक दिन में सिमट जाती हैं यादें .
सिर्फ एक दिन यादों का बवंडर आ जाना ........ सारी की सारी यादें सिर्फ एक दिन में सिमट जाना.............ना जाने क्या होता है उस एक दिन में. .........बाकी भी तो दिन होते हैं तब हमें कुछ भी याद नहीं आता ......अपनी रोजमर्रा की ज़िन्दगी जीते चले जाते हैं......... सुबह से ही दिनचर्या शुरू हो जाती है और रात को बिस्तर पर ख़त्म ...........मगर उस सारे दिन एक बार भी यादें दरवाज़ा नहीं खट्खटातीं.........फुरसत ही नहीं मिलती कि किसी को याद किया जाए............इतना वक़्त कब देती है ज़िन्दगी..........मगर जब आपका जन्म दिन हो , वैवाहिक वर्षगाँठ हो ,कोई आपसे बिछड़ा हो या किसी खास का आपकी ज़िन्दगी में आगमन हुआ हो या कोई हादसा हुआ हो..........उस दिन यादों की लहरें बाँध तोड़कर सैलाब सी उमड़ पड़ती हैं और हर तटबंध को तोड़ देती हैं............स्मृति की हर कुण्डी खडखडा जाती हैं ............क्या हमारा नाता यादों से सिर्फ एक दिन का होता है या फिर हम उस एक दिन में ही अपनी पूरी ज़िन्दगी जी लेते हैं ..........दिल के हर कोने से खुरच- खुरच कर यादों को निकाल लाते हैं ........हर दबी -ढकी, धुंधली याद भी उस एक दिन को महका जाती है फिर चाहे वो याद कडवी हो या मीठी, तीखी हो या कसैली मगर यादें तो सिर्फ यादें होती हैं जो उस एक दिन की शोभा बन कर उस सारे दिन पर कब्ज़ा कर लेती हैं और हम उनके साथ- साथ बहते हुए यादों की संकरी पगडंडियों से गुजरते हुए उसके हर अहसास में डूबते -उतरते यादों की वादियों में खो जाते हैं ..........उस एक दिन में हम होते हैं और हमारी यादें..........यादों के बिस्तर पर हम यादों का ही सिरहाना लगाये यादों में खोये होते हैं उनके अलावा उस दिन कुछ याद ही नहीं आता ..........ज़िन्दगी की हर चिंता उस एक दिन में ना जाने कहाँ काफूर हो जाती है ........उस एक दिन में एक ज़िन्दगी को जीना एक अलग ही अहसास होता है ............ज़िन्दगी को ज़िन्दगी से दूर अपने आगोश में समेट लेती हैं यादें और ज़िन्दगी के हर दुःख तकलीफ , हर गम ख़ुशी से दूर ले जाती हैं ..........मगर हमारी ज़िन्दगी का एक हिस्सा होती हैं यादें शायद इसीलिए यादें ही हैं जो हमें जीने की उर्जा देती हैं क्यूंकि उस एक दिन में हम ना जाने किन -किन पलों से रु-ब-रु होते हैं और अपने अन्दर एक नयी शक्ति का संचार पाते हैं क्यूंकि इन्ही यादों में हमारे जीवन की सफलता और असफलता का दर्शन होता है और फिर उन्ही से प्रेरित हो हम अगले दिन से एक नए जोश और उत्साह के साथ ज़िन्दगी की मंजिल की ओर बढ़ने लगते हैं ..........एक और यादों को मुकाम देने के लिए..............शायद इसीलिए सिर्फ एक दिन में सिमट जाती हैं यादें .
सदस्यता लें
संदेश (Atom)