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शनिवार, 30 मई 2015

हे मेरे परम मित्र !

प्रिय मित्र 
शुक्रगुजार हूँ जो तुमने इतना आत्मीय समझा कि अपनी मित्रता सूची से बाहर का रास्ता चुपके से दिखा दिया और खुद को पाक साफ़ भी सिद्ध किया . जानती हूँ कुछ दिनों से तुम्हारे स्टेटस पर नहीं जा पा रही थी और उसी गुस्से में शायद तुमने मुझसे पल्ला झाड लिया या हो सकता है तुम चाहते हों ऐसा कोई मौका हाथ लगे और तुम्हारी किस्मत से तुम्हें वो मौका मिल गया और तुमने उसका फायदा उठा लिया ..........सुनो जानकर अचरज नहीं हुआ क्योंकि ये आभासी रिश्ते हैं पल में बनते और मिटते हैं फिर हमने भी कौन सी अग्नि को साक्षी रख कसम उठाई थी कि ज़िन्दगी भर एक दूसरे का साथ देंगे , गलतफहमियों का शिकार नहीं होंगे , कह सुन कर मन की  भड़ास निकाल लेंगे ..........अब सात वचन भरने के नियम यहाँ थोड़े ही चला करते हैं जो तुम पर कोई आक्षेप लगा सकूं . शायद तुम्हारी उम्मीद मुझसे कुछ ज्यादा थी और तुम्हारी उम्मीद पर खरा उतरने की हमने भी कसम नहीं खायी थी इसलिए चल रहे थे आराम से . वो तो अचानक एक दिन याद आया बहुत दिन हुए तुम्हारे स्टेटस नहीं देखे और आशंका के बादल कुलबुलाने लगे ..........हाय ! कल तक तो तुम हमारे वेल विशर थे ये अचानक क्या हुआ सोच तुम्हारी वाल का चक्कर लगाया तो माजरा समझ आया . ओह ! हम तो निष्कासित हो गए . बड़े बे आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले गाना गुनगुनाते हुए सोच में पड़ गए सच आखिर क्या था ? वो जहाँ तुम हमारी जरा सी परेशानी से चिंताग्रस्त हो जाते थे और राहें बतलाते थे या फिर ये कि महज कुछ स्टेटस पर तुम्हारे लाइक या कमेंट नहीं किया तो तुमने बाहर का रास्ता दिखा दिया जबकि हम तो आभासी से व्यक्त की श्रेणी में आ चुके थे फिर भी तुमने ये कहर बरपाया . 

हे मेरे परम मित्र ! आभारी हूँ तुम्हारी इस धृष्टता के लिए , तुमसे तुम्हारी पहचान करवाने के लिए . हे मेरे परम मित्र तुम्हारी उदारता निस्संदेह सराहनीय है क्योंकि शायद मैं सहे जाती बिना कुछ कहे और तुमने कर दिखाया और मुझे अपने मित्रता के ऋण से उऋण कर दिया .  फेसबुककी महिमा सबसे न्यारी फिर भी लगे सबको प्यारी ......जय हो जय हो जय हो कहे ये मित्रता की मारी .

देकर अपनी वाल से विदाई 
कुछ मित्रों ने यूं मित्रता निभाई 
बस ये बात हमें ही जरा देर से समझ आई 
जो न करे आपकी बात का समर्थन 
उसी का होता है इस तरह चुपचाप निष्कासन 

बुधवार, 27 मई 2015

जनाब आप किसे बहला रहे हैं

बिना अवकाश लिए 
सरकारी दौरों के नाम पर 
विदेश यात्रा किए जा रहे हैं 
जनाब आप किसे बहला रहे हैं 

मेक इन इंडिया के नाम पर 
बड़े देशों से प्राप्त कर सहायता 
छोटे देशों को देकर किसका कद बढ़ा रहे हैं 
जनाब आप किसे बहला रहे हैं 

कफ़न नहीं दिया 
१२ रूपये में बीमा के नाम पर 
बस ऊंगली घुमा कान पकडे जा रहे हैं 
जनाब आप किसे बहला रहे हैं 

अपना गुणगान खुद करने के 
नए नए पैंतरे सिखा 
सेल्फी खींच मशहूर होने  के 
ये कैसे अंदाज़ सिखा रहे हैं 
जनाब आप किसे बहला रहे हैं

टीवी मीडिया की सुर्ख़ियों में 
प्रतिदिन छाए रहने के लिए  
आप तो बस बातों के बतोले खिला रहे हैं 
जनाब आप किसे बहला रहे हैं 

न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी 
सब्जबागों के शहर में बस 
अपनी हांड़ी ही चढ़ेगी 
जाने कैसे कैसे करतब दिखा रहे हैं 
जनाब आप किसे बहला रहे हैं 

ये जनता सब जानती है
वक्त रहते संभल जाओ 
वर्ना तख़्त भी उखाड़ती है 
बस इतना आप भी समझ जाओ 
जनाब अब और न बातों से बहलाओ 
कुछ काम भी करके दिखाओ अब कुछ काम भी करके दिखाओ ............

गुरुवार, 21 मई 2015

उम्र के विभाजन और तुम्हारी कुंठित सोच

सिन्धी और पंजाबी के बाद अब नेपाली में मेरी कविता का अनुवाद नेपाल से निकलने वाली पत्रिका " शब्द संयोजन " में भी ........वासुदेव अधिकारी जी का हार्दिक आभार जो उन्होंने कविता का अनुवाद कराया और पत्रिका भी भेजी .जिस कविता का अनुवाद हुआ है वो ये है जिसका शीर्षक बदला हुआ है :





स्त्रियां नहीं होतीं हैं 
चालीस ,  पचास या अस्सी साला 
और न ही होती हैं सोलह साला 

यौवन धन से भरपूर  
हो सकती हैं किशोरी या तरुणी  
प्रेयसी या आकाश विहारिणी  
हर खरखराती नज़र में  
गिद्ध दृष्टि वहाँ नहीं ढूँढती  
यौवनोचित्त आकर्षण  
वहाँ होती हैं बस एक स्त्री   
और स्खलन तक होता है एक पुरुष  

प्रदेश हों घाटियाँ या तराई  
वो बेशक उगा लें 
अपनी उमंगों की फ़सल 
मगर नहीं ढूँढती 
कभी मुफ़ीद जगह  
क्योंकि जानती हैं  
बंजरता में भी 
उष्णता और नमी के स्रोत खोजना  
इसलिये  
मुकम्मल होने को उन्हें  
नहीं होती जरूरत उम्र के विभाजन की  
स्त्री , हर उम्र में होती है मुकम्मल 
अपने स्त्रीत्व के साथ  

भीग सकती है  
कल- कल करते प्रपातों में 
उम्र के किसी भी दौर में  
उम्र की मोहताज नहीं होतीं 
उसकी स्त्रियोचित  
सहज सुलभ आकांक्षाएं
देह निर्झर नहीं सूखा करता 
किसी भी दौर में 
लेकिन अतृप्त इच्छाओं कामनाओं की 
पोटली भर नहीं है उसका अस्तित्व  


कदम्ब के पेड ही नहीं होते 
आश्रय स्थल या पींग भरने के हिंडोले  
स्वप्न हिंडोलों से परे  
हकीकत की शाखाओं पर डालकर 
अपनी चाहतों के झूले 
झूल लेती हैं बिना प्रियतम के भी 
खुद से मोहब्बत करके  
फिर वो सोलहवाँ सावन हो या पचहत्तरवाँ 
पलाश सुलगाने की कला में माहिर होती हैं 
उम्र के हर दौर में  

मत खोजना उसे 
झुर्रियों की दरारों में 
मत छूना उसकी देहयष्टि से परे 
उसकी भावनाओं के हरम को 
भस्मीभूत करने को काफी है 
उम्र के तिरोहित बीज ही 

तुम्हारी सोच के कबूतरों से परे है 
स्त्री की उड़ान के स्तम्भ 
जी हाँ ……… कदमबोसी को करके दरकिनार 
स्त्री बनी है खुद मुख़्तार 
अपनी ज़िन्दगी के प्रत्येक क्षण में 
फिर उम्र के फरेबों में कौन पड़े 

अब कैसे विभाग करोगे  
जहाँ ऊँट किसी भी करवट बैठे  
स्त्री से इतर स्त्री होती ही नहीं  
फिर कैसे संभव है 
सोलह , चालीस या पचास में विभाजन कर 
उसके अस्तित्व से उसे खोजना  

ये उम्र के विभाजन तुम्हारी कुंठित सोच के पर्याय भर हैं ………ओ पुरुष !!!

बुधवार, 13 मई 2015

खोल सकते हो तो खोल देना



मेरी मुखरता के सर्पदंश से जब जब आहत हुए
दोषारोपण की आदत से न मुक्त हुए
इस बार बदलने को तस्वीर
करनी होगी तुम्हें ही पहल

क्योंकि
इस ताले की चाबी सिर्फ तुम्हारे पास है

सुनो
खोल सकते हो तो खोल देना
मेरी चुप को इस बार
क्योंकि
मुखर किंवदंतियों का ग्रास बनने के लिए जरूरी है तुम्हारा समर्पण

रविवार, 10 मई 2015

मातृ दिवस पर


1
माँ ने जिसका ख्याल रखा उम्र भर
वो ही आज ख्याल रखे जाने की मोहताज
ये कैसी नियति की बिसात ?

2
कल तक जिसके पाँव तले जन्नत दिखती थी
आज अकेलेपन उदासी के कमरों में सिमटी बैठी है
तुझे बात करने की फुर्सत नहीं मिलती
उसी माँ के मुख से तेरे लिए दुआएं निकलती हैं

3
जिसके नेह की बरसात में भीगा रहा बचपन
उसी माँ का ममता भरा साया जो सिर से हट गया
उसी एक पल से जान लेना
ज़िन्दगी में कड़ी धूप का सफ़र शुरू हो गया 


4
ये माँ की दुआओं का ही असर होता है
कि खुदा भी अपना नियम बदल देता है
जब उसकी पुकार चीरती है आसमां का सीना
तब खुदा का सिर भी सजदे में झुका होता है



मंगलवार, 5 मई 2015

' कतरा कतरा ज़िन्दगी '......मेरी नज़र से




धूप के सफ़र से  शुरू हुआ सफ़र जब आकार लेता है तो ' कतरा कतरा ज़िन्दगी ' जन्म लेती है जो जाने कितने मोड़ो से गुजरते हुए एक लम्हे में तब्दील हो जाती है  .  मुकेश दुबे जी का दूसरा उपन्यास ' कतरा कतरा ज़िन्दगी 'शिवना प्रकाशन से प्रकाशित है जो उन्होंने मुझे पुस्तक मेले में सप्रेम भेंट दिया .

कतरा कतरा ज़िन्दगी यूँ तो देखा जाए एक आम कहानी कह देगा पाठक मगर उसको जिस तरह से प्रस्तुत किया है ये लेखक के लेखन का कमाल है . सीधे सरल सहज शब्दों का प्रयोग मगर प्रवाहमयी प्रस्तुति कहीं न तो कहानी को बोझिल करती है और न ही ऊब को कोई स्थान बल्कि पाठक के मन में एक उत्सुकता बनी रहती है आखिर हुआ क्या अभिजीत और सुखविंदर की ज़िन्दगी में या अभिजीत और शुभ्रतो की ज़िन्दगी में . और पढ़ते पढ़ते जब पाठक अंत तक पहुँचता है तो आँख से अश्रुप्रवाह स्वतः होने लगता है जो कहीं न कहीं पाठक को पात्रों से बांधे होता है इसलिए पाठक खुद को उनसे जुड़ा पाता है और घटनाएँ कैसे ज़िन्दगी में आकार ले नियंत्रण से बाहर होती हैं और फिर कैसे पात्र उनके प्रवाह में बहता जाता है सारी कहानी उसी का दिग्दर्शन है . मिलन और बिछोह  जाति - पांति की अग्नि में कैसे स्वाहा होते हैं और उस वजह से कैसे ज़िंदगियाँ हाशियों पर आ जाती हैं कि किसी भी ज़िन्दगी को किनारा नहीं मिलता का एक बेहतरीन चित्रण है . लेखक ने बारीक से बारीक चीज को इस तरह लिखा है कि सब जैसे सामने ही घटित हो रहा हो . एक एक पल , एक एक क्षण का ब्योरेवार लिखना और उसमे पाठक को भी बांधे रखने की कूवत रखना ही लेखन की सफलता है जिसमे लेखक सफल हुआ है . हर बार घटनाओं को ऊंचाई पर ले जाकर फिर सतह पर ले आने की कला में लेखक माहिर हैं जहाँ रिश्तों के बनने और बिगड़ने की प्रक्रिया के अंतर्गत जाने कितने मोड़ कितने लम्हे ऐसे आते हैं पाठक को लगता है बस शायद अब बिजली कडकड़ाएगी या अब खिलेंगे कहीं किसी छोर पर बुरांस के फूल वही लेखन की सीमाओं पर नियंत्रण रखते हुए एक मर्यादा कायम रखी जबकि संभव नहीं होता किसी भी लेखक के लिए इस सीमा का अतिक्रमण किये बिना लिखना लेकिन एक साफ़ सुथरी कहानी पाठक को आकर्षित करती है जिसे कोई भी बड़ा हो या बच्चा पढ़ सकता है , समझ सकता है और लेखन की सरलता पर मंत्रमुग्ध हो सकता है .

इंसान जितना कतरा कतरा ज़िन्दगी को सहेजने की ताउम्र कोशिश करता रहता है वो रेत सी कब और कैसे फिसलती जाती है पता ही नहीं चलता और एक वक्त आता है जब वो खुद को ठगा हुआ महसूसता है तो ज़िन्दगी बेमानी लगने लगती है और मौत खूबसूरत .......मानो लेखक ने इसी सोच को इंगित किया है .

मुकेश दुबे जी का लेखन इसी प्रकार आकार लेता रहे और अनवरत चलता रहे यही दुआ है . शुभकामनाओं के साथ .

शुक्रवार, 1 मई 2015

'आय ऍम नॉट मजदूर '

'आय ऍम नॉट मजदूर '

स्वीकार रही हैं कुछ स्त्रियाँ 
हाँ , आज मजदूर दिवस है 
और गर्व है मुझे 
अपने मजदूर होने पर 

ये किस सोच को जन्म दिया 
स्त्री होकर स्त्री को मजदूर का दर्जा दिला 
कौन सा महान कृत्य किया 
समझ से परे नज़र आया 

आज की आधुनिक पढ़ी लिखी स्त्री भी 
गर खुद को मजदूर की श्रेणी में रखेगी 
तो अनपढ़ पिछड़ी तो कभी 
अपने होने के अर्थ को न समझ सकेगी 

ये कैसे मापदंड हम बना रहे 
ये कौन सी आग जला रहे 
जो स्त्री को स्त्री की समुचित पहचान न करवा 
उसे खुद ही दोजख की आग में झोंक रहे 

नहीं , नहीं स्वीकारती मैं ये तमगा 
मेरे लिए सबसे पहले है मेरा अस्तित्व 
मेरा होना , मेरी पहचान 
जो नहीं गुजरती किसी भी तंग गली से 

नहीं  , नहीं हूँ मैं मजदूर 
और मैं ही क्या 
नहीं है कोई मेरी नज़र में मजदूर 
क्योंकि 
जीवनयापन हेतु किया कार्य 
नहीं बनाता किसी को मजदूर 

मैं हूँ एक ऐसा व्यक्तित्व 
जो देश समाज और घर में देकर अपना योगदान 
करती है भविष्य निर्माण 

हाँ , निर्मात्री हूँ मैं भविष्य की 
मगर नहीं हूँ मजदूर 
इसलिए कह सकती हूँ गर्व से 
'आय ऍम नॉट मजदूर '