बालार्क की तीसरी किरण कैलाश शर्मा :
बालार्क काव्य संग्रह के तीसरे कवि की अनुभूतियों और संवेदनाओं से मिलवाती हूँ।
कैलाश शर्मा की रचना "अनुत्तरित प्रश्न" एक अशक्त से सशक्ति की और बढ़ती माँ के ह्रदय की वेदना है जिसमें बेटी के जन्म पर खड़े होते प्रश्न को शायद अब उत्तर मिल गया है।
"अब मैंने जीना सीख लिया " ज़िन्दगी की हकीकत बयां करती रचना है पीछे मुड़कर देखने की आदत कैसे आगत को दुखी कर देती है उससे कवि ने मुक्ति पायी है जब उसे हकीकत समझ आयी है जो इन पंक्तियों में उद्धृत हुआ है :अब पीछे मुड़कर मैं क्यों देखूं /सूनी राहों पर चलना सीख लिया।
बहुत बहाये हैं आंसू इन नयनों ने / अब तो बाकि कुछ तर्पण रहने दो /चाहत के बीज क्यों बपोये थे ? / क्यों फल पाने कि इच्छा कि ?/ कुछ समय दिया होता खुद को /मन होता आज न एकाकी /देख लिए हैं बहुत रूप तेरे जीवन /अब चिरनिद्रा में मुझे शांति से सोने दो………एकाकीपन की वेदना का सजीव चित्रण करती रचना "क्यों अधर न जाने रूठ गए ?" . ज़िन्दगी के आखिरी पड़ाव का एकांत कैसे घुन की तरह खाता जाता है और अंदर से कितना खोखला कर देता है कि इंसानी मन विश्राम की और कूच करने को आकृष्ट होने लगता है , जरूरी है वो वक्त आने से पहले कुछ वक्त खुद के लिए जीना या खुद के लिए कुछ ऐसा संजो लेना जो इस एकाकीपन से मुक्ति मिल सके का भाव देती रचना सोचने को मजबूर करती है।
कल की तलाश में /निकल जाता आज /मुट्ठी से / रेत की तरह .... कविता "ख्वाहिशें " की चंद पंक्तियाँ मगर सब कुछ कहने में सक्षम जिसके बाद कुछ कहने की शायद जरूरत ही नहीं । सारी ज़िन्दगी कुछ ख्वाहिशों की डोर पकडे दौडते हम जान ही नही पाते कब वक्त हाथ से फ़िसला और सरक गया और ख्वाहिशों की फ़ेहरिस्त में ना कोई कमी हुयी।
कीमोथेरपी का ज़हर /जब बहने लगता नस नस में /अनुभव होता जीते जी जलने का / जीने कि इच्छा मर जाती /सुखकर लगती इस दर्द से मुक्ति/ मृत्यु कि बाँहों में /जीवन और मृत्यु कि इच्छा का संघर्ष /हाँ, देखा है मैंने अपनी आँखों से ………… कैंसर की भयावहता का इससे इतर सटीक चित्रण और क्या होगा ?"जीवन और मृत्यु का संघर्ष " कविता मानो खुद जी कर लिखी हो कवि ने , किसी अपने को पल पल उस पीड़ा से गुजरते देखा हो और कुछ ना करने में जब खुद को असमर्थ पाया हो तो उस दर्द की अनुभूति को शायद यूं लिख कर कुछ कम कर पाया हो तभी तो कविता के अंत में कवि ने आखिर स्वीकार ही लिया इस सत्य को कुछ इस तरह : आज भी जीवंत हैं / वे पल जीवन के / काँप जाती है रूह /जब भी गुजरता/ उस सड़क से। रौंगटे खड़े करने को काफी है कविता में उपजी दिल दहला देने वाली पीड़ा।
जीवन के विभिन्न आयामों से गुजरते कवि ह्रदय ने अपने अनुभवों की पोटली से एक एक कर ज़िन्दगी की हर हकीकत से रु-ब -रु करवाया है। जब तक कोई भुक्तभोगी ना हो नही व्यक्त कर सकता इतनी सहजता से ज़िन्दगी की तल्खियों, दुश्वारियों , खामोशियों , एकाकियों से। यूँ ही नहीं प्रस्फुटित होते शब्दबंध जब तक ह्रदय में पीड़ा का समावेश ना हो , जब तक कोई खुद ना उन अनुभवों से गुजरा हो और कवि वो सब कहने में सक्षम है जो आम जीवन में घटित होता है मगर हम उन्हें पंक्तिबद्ध नहीं कर पाते।
अगली कड़ी में मिलते है एक नए कवि से.…।