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शनिवार, 24 अक्तूबर 2015

भारतकोश पर

अभी अभी प्राप्त सूचना के अनुसार , ' भारतकोश ' पर मुझे और मेरी रचनाओं को भी जगह मिली है जिसके लिए मैं रश्मि प्रभा दी और भारतकोश के संचालक आदित्य चौधरी जी और आशा चौधरी जी की तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ . 

मित्रों यहाँ मेरी अध्यात्म और दर्शन से जुडी रचनाएँ आपको पढने को मिलेंगी 

जहाँ मेरे अलावा भारतीय अध्यात्म से सम्बंधित आदिकाल से लेकर आधुनिक कवियों को भी आप पढ़ सकते हैं .

http://hi.bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%B5%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A4%A8%E0%A4%BE_%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BE

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2015

जरा सोचिये ............



जरा सोचिये ............
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धर्म निरपेक्ष देश होते हुए धार्मिक असहिक्ष्णुता का माहौल अचानक से बन जाना एक संदेह को जन्म देता है . पिछले डेढ़ साल में ऐसा क्या हुआ जो अचानक हर जगह सिर्फ हिन्दू मुस्लिम में बांटा जा रहा है जनता को ? उससे पहले इतनी शांति थी कि कोई सोच भी नहीं सकता था कि यहाँ हिन्दू और मुस्लिम दो कम्युनिटी रहती हैं . यहाँ तक कि जब बाबरी मस्जिद पर फैसला आया था तो लगता था जाने कितना बड़ा बवाल हो जाएगा देश में लेकिन दोनों ही धर्मों के लोगों ने उसका ने केवल स्वागत किया बल्कि भाईचारे और धैर्य का भी परिचय दिया . फिर अचानक से ऐसा क्या हुआ जो आज ऐसा माहौल बन गया है कि देश सिवाय इस मुद्दे के और कोई मुद्दा ही नहीं बचा ?

ये बात सोचने वाली है आखिर क्यों कभी मुजफ्फरपुर कभी दादरी में दंगे होते हैं तो कभी कलबुर्गी , पंसारे आदि की हत्या ? क्या अब लोग असहिष्णु हो गए हैं ? क्या अब अचानक उनमे अपने धर्म के प्रति ज्यादा मोह उत्पन्न हो गया है ? या आज ही ज्यादा धार्मिक हो गए हैं ?

लोगों से बात करो तो वो कहते हैं सब राजनीति है . आम इंसान ऐसा कुछ नहीं चाहता . दोनों ही अमनोचैन से रहें बस यही चाहते हैं तो क्या उनका कहना सही है ? क्या सिर्फ सियासत की बिसात बिछाने को इतनी घिनौनी चालें खेली जा रही हैं जिनमे आम आदमी मोहरे बना हुआ है ? उसकी जान के कीमत पर इतनी घटिया चाल चलना क्या शोभा देता है ?

अगर राजनीति भी है तो प्रश्न उठता है कौन करा रहा है ये सब ? पक्ष विपक्ष एक दुसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगा रहे हैं . कांग्रेस कहती है बीजेपी और संघ के इशारे पर हो रहा है और वो कहते हैं कांग्रेस के . तो सुनने के बाद लगता है कहीं न कहीं कोई न कोई पार्टी तो ऐसा कर ही रही है जो नहीं चाहती देश में अमन रहे जनता खुशहाल रहे . बात फिर वहीँ आती है घूमफिरकर कि क्या मोदी के आने से ऐसा हुआ या उन्हें फ्रेम किया जा रहा है क्योंकि उनके नाम के साथ गोधरा काण्ड चिपका हुआ है . साथ ही जिस तेजी से वो विकास के रास्ते देश के लिए बना रहे हैं , सभी देशों से मिलकर भारत का नाम सारे संसार में ऊंचा करने में लगे हैं , ये देख कुछ राजनैतिक पार्टियों को सोचना पड़ गया कि यदि ये इन पांच सालों के बाद अगले पांच साल भी रह गया तो हमारा तो कोई नामलेवा भी नहीं रहेगा इसलिए और कुछ नहीं तो इसी आग को फैलाया जाए क्योंकि किसी भी देश या व्यक्ति को खोखला करने के लिए धार्मिक असहिष्णुता का माहौल बनाना सबसे आसान है और उस पर अपनी राजनीति की रोटियां सेंकना और भी आसान .

दूसरी तरफ ये भी नहीं कहा जा सकता कि जो सत्ता में काबिज हैं वो पूरी तरह दूध के धुले हैं . अब दाग तो दाग है और लगा भी है कोई दोषी मानता है कोई निर्दोष ऐसे में ऊंगली उन पर भी उठती है साथ ही संघ पर भी . शायद देश को सिर्फ हिन्दू राष्ट्र बनाने की मुहीम की ओर अग्रसर हों ये पार्टियाँ या फिर सिर्फ चुनाव जितने के लिए करवाए जा रहे उपद्रव हों .............मगर चाहे जो हो , चाहे पक्ष का हाथ हो या विपक्ष का मगर उसमे नुक्सान आम आदमी का हो रहा है . वो समझ नहीं पा रहा ऐसे में कौन सही है और कौन गलत यहाँ तक कि इस विरोध में जब साहित्यकारों का एक धडा शामिल हो गया तो वो भी आरोपों की राजनीति से मुक्त न रह सका जबकि साहित्यकार अपने समय को रचता है तो अपनी तरह विरोध करने का भी हकदार है कोई कलम से करता है तो कोई पुरस्कार वापसी से तो ऐसे में उन पर ही तोहमतों की राजनीति खेली जा रही है जो किसी भी दृष्टिकोण से सही नहीं है . साहित्यकार सिर्फ इतना चाहता है कि उसे देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिले और यदि उस स्वतंत्रता पर उसका ही क़त्ल होने लगे तो विरोध लाजिमी है क्योंकि साहित्यकार न हिन्दू होता है न मुस्लिम वो समाज का आइना होता है जो देखता है वो ही उसकी कलम लिखती है , इंसान है तो आहत भी होता है जब अति होने लगती है तो कैसे खुद को सिर्फ अपने लेखन तक ही सिमित रख सकता है और जब विरोध करने लगता है तो उस पर भी आरोप प्रत्यारोप लगने लगते हैं कि ये फलानी पार्टी के हैं ये ढिमकानी पार्टी के जबकि वो विरोध कर रहा है तो अपनी आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए ताकि उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिल सके ऐसे में सारा साहित्यिक समाज भी साथ नहीं देता क्योंकि राजनीति की जड़ें काफी गहरे तक धंसी हैं . क्या ये सोचने वाली बात नहीं है कि राजनीति हर क्षेत्र में इस हद तक व्याप्त है कि कोई अपना स्वतंत्र निर्णय नहीं ले सकता और लेता है तो या तो मार दिया जाता है या आरोपित हो जाता है ? ये कैसा माहौल बन गया अचानक ? इतनी अराजकता पहले तो न थी तो अभी अचानक ऐसा क्या हुआ जो कोई भी खुद को कहीं सुरक्षित नहीं पा रहा ?
जरा सोचिये ............

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2015

शक्ति है तो विध्वंस भी

शब्दविहीन होना
मानो आत्मा विहीन देह
मौन के पिंजर में कैद हो
और अंतस में
कुलबुलाहट का कृष्ण बांसुरी बजाता
जाने किस राधा को रिझाता हो

ये ढकोसलों की सांझें कितनी निर्मोही हैं
कि
साझे दुःख सुख पर भी पहरे बिठा दिए

अब कोई कितना भी
कबीर की साखी सूर के पद मीरा का गायन नृत्यन करे
बंद दरवाज़े किसी थाप के मोहताज नहीं

मौन
शक्ति है तो विध्वंस भी न

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2015

बुजुर्ग : बोझ या धरोहर


केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड द्वारा प्रकाशित "समाज कल्याण" पत्रिका (महिला एवं बाल विकास मंत्रालय,भारत सरकार की मासिक पत्रिका) के अक्टूबर अंक2015 में प्रकाशित मेरा लिखा आलेख : बुजुर्ग : बोझ या धरोहर

श्री ‪#‎kishoresrivastav‬ जी व संपादन मंडल का हार्दिक आभार






आज के भागादौड़ी वाले समय में मानवीय संवेदनाओं की चूलें किस हद तक हिल गयी हैं कि बुजुर्ग हमारे लिए हमारी ‘धरोहर हैं या बोझ’ पर सोचने को विवश होना पड़ रहा है जो यही दर्शा रहा है कि कहीं न कहीं कोई न कोई कमी पिछली पीढ़ी के संस्कारों में रह गयी है जो आज की पीढ़ी उन्हें वो मान सम्मान नहीं दे पा रही जिसके वो हकदार हैं .

घर में बड़े बुजुर्गों का होना कभी शान का प्रतीक होता था . उनके अनुभव और दूरदर्शिता आने वाली पीढ़ियों में स्वतः ही स्थान्तरित होती जाती थी बिना किसी अनावश्यक प्रयास के क्योंकि वो अपने आचरण से अहसास कराया करते थे . वो कहने में नहीं करने में विश्वास रखते थे तो सुसंस्कार , मर्यादाएं और सफल जीवन के गुर इंसान स्वतः ही सीख जाता था और उन्ही को आगे हस्तांतरित करता जाता था लेकिन आज के आपाधापी के युग में न वो संस्कार रहे न वो मर्यादाएं और न ही वो रिश्तों में ऊष्मा तो कैसे संभव है बुजुर्गों को धरोहर मान लेना ? जिन्होंने रिश्तों के महत्त्व को न जाना न समझा न ही अपने से बड़ों को अपने बुजुर्गों को सहेजते हुए देखा उनसे कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वो सही आचरण करें और उन्हें वो ही मान सम्मान दें जो पहले लोग दिया करते थे .

बुजुर्ग बोझ हैं या धरोहर ये तो हर घर के संस्कार ही निर्धारित करते हैं . जिन्होंने अपने माता पिता को बुजुर्गों की सेवा करते देखा है वो ही आगे अपने जीवन में इस महत्त्व को समझ सकते हैं क्योंकि जब उम्र बढ़ने लगती है तो शक्ति का ह्रास होने लगता है , बुद्धि भी कमजोर होने लगती है , अंग शिथिल पड़ने लगते हैं ऐसे में उन्हें जरूरत होती है एक बच्चे की तरह की देखभाल की और इसके लिए जरूरी है पूरा समय देना लेकिन आज वो संभव नहीं है क्योंकि पति पत्नी दोनों नौकरी कर रहे हैं ऐसे समय में वो अपने बच्चों को ही क्रेच के हवाले करते हैं तो कैसे संभव है बुजुर्गों पर पूरा ध्यान देना .

कारण दोनों ही हैं कहीं ज़िन्दगी की आपाधापी तो कहीं संस्कार विहीनता लेकिन इस चक्कर में बुजुर्ग न केवल उपेक्षित हो रहे हैं बल्कि वो बोझ भी महसूस होने लगते हैं और इसका आज की पीढ़ी अंतिम विकल्प यही निकालती है या तो उन्हें वृद्ध आश्रम में छोड़ देती है या उनसे मुँह ही फेर लेती है और अपनी ज़िन्दगी में व्यस्त रहती है जो कहीं से भी एक स्वस्थ समाज का संकेत नहीं है क्योंकि ज़िन्दगी सिर्फ सीधी सहज सरल सपाट सड़क नहीं इसमें ऊबड़ खाबड़ रास्ते भी हैं जहाँ अनुभवों की दरकार होती है , किसी अपने के ऊष्मीय स्पर्श की आवश्यकता भी होती है , किसी अपने के सिर पर हाथ की अपेक्षा भी होती है और ये तब समझ आती है जब इंसान उन परिस्थितियों से गुजरता है लेकिन तब तक देर हो चुकी होती है .
इसलिए जरूरी है वक्त रहते चेता जाये ताकि उनके अनुभवों और आशीर्वाद से एक सफल जीवन जिया जा सके क्योंकि बोझ मानते हुए वो ये भूल जाता है कि एक दिन वो भी इन्ही परिस्थितियों से गुजरेगा तब क्या होगा यदि बोझ मानने से पहले इतना यदि अपने बारे में ही सोच ले तो कभी उन्हें धरोहर मानने से इनकार नहीं करेगा . वर्ना आज तो बुजुर्ग सिवाय बोझ के कुछ और प्रतीत ही नहीं होते .
जो लोग उन्हें बोझ मानते हैं वो नहीं जानते वो क्या खो रहे हैं और जो धरोहर मानते हैं उनके लिए वो वास्तव में एक अमूल्य उपहार से कम नहीं होते क्योंकि बाकि सब ज़िन्दगी में आसानी से मिल जाता है लेकिन बुजुर्गों का निस्वार्थ प्यार,   अनुभव और अपनापन किसी बाज़ार से ख़रीदा नहीं जा सकता .


वंदना गुप्ता
डी – 19 , राणा प्रताप रोड
आदर्श नगर
दिल्ली --- 110033
मोबाइल : 09868077896



सोमवार, 5 अक्तूबर 2015

अंधेरों की सरसों

अंधेरों के पीछे के अँधेरे भी
उतने ही घनेरे होते हैं
ये जानकर होने लगता है अहसास
भविष्य की कछुआ चाल का
जिसमे न गति होगी न रिदम न संगीत
न सुर न लय न ताल
तब भविष्यदृष्टा नहीं तो भी
छटी इंद्री जरूर करती है सचेत
आने वाली काली गहराती परछाइयों से
और जब आशंकाएं अक्सर सच हो जाया करती हैं 
ऐसे में संभव ही नहीं
कोई दूसरा जुगाड़ बाहर आने का
तब छोड़कर हर जद्दोजहद
मान लेना चाहिए

ये गहराते अंधेरों से इश्क करने का ही मौसम है

तो क़ुबूल है क़ुबूल है क़ुबूल है
कह
करना ही पड़ता है निकाह

किस किस से , कैसे और कब तक बचूँ
क्या बचना संभव है मेरा ?

जबकि
मेरे चारों तरफ लहलहा रही अंधेरों की सरसों बेइंतेहा

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2015

रोता है मेरा रब बुक्का फाड़ कर

रोता है मेरा रब बुक्का फाड़ कर 
आह ! ये किस तराजू में तुल गया 
जहाँ अन्याय ठहाकें लगाता मिला 
बेबस न्याय ही कसमसाता मिला 
ये किन शरीफों की बस्ती में आ गया 
हर चेहरे पर लटकता वहशियत का 
चमचमाता फानूस मिला 
हर गर्दन तलवार के साए में सिर झुकाए 
ताबेदार सी बेबस निष्प्राण मिली 
बस एक शैतान के चेहरे पर ही 
खिलखिलाती मुस्कान मिली 

ऐसे  तो जहान की न कल्पना की थी मैंने 
जहाँ हैवानियत के जूतों में लगी 
इंसानियत की कील हर चेहरे पर चुभती मिली 
कहीं गुरुद्वार पर ही अस्मिता बिलबिलाती मिली 
कहीं जिंदा लाशों के चेहरों पर बेबसी की मजार मिली 
कहीं कोई हीर वक्त के तेज़ाब में खौलती मिली 
देह तो क्या आत्मा भी तेजाबी ताप से गलती मिली 
कहीं खरीद फरोख्त के साझीदारों में 
अपनों के हाथों के फिंगरप्रिंट मिले 
कहीं शीश महलों में भी कुचली मसली 
रूहों के अवशेष मिले 
कहीं पिंजरबद्ध सोन चिरैया के 
हाथ में तलवार मगर 
पैरों में पड़ी बेड़ियाँ मिलीं 
अपने ही दांतों से अपने ही मांस को नोंचते 
गिद्धों के बाज़ार मिले 
मौकापरस्ती , स्वार्थपरता के खोटे  सिक्कों का 
महकता चलता बाज़ार मिला 
स्वार्थ की वेदी पर निस्वार्थता की बलि देती 
सारी  कायनात मिली 
कहीं अन्याय के बिस्तर पर 
सिसकती न्याय की जिंदा लाश मिली 
कर्त्तव्य अकर्तव्य के दायरे में जकड़ी 
मानुष की ना कोई जात मिली 
बस खुदपरस्ती  की जकड़नों में  जकड़ी 
हैवानियत की ही सांस मिली 

ये कौन सी बस्ती में आ गया 
देख खुदा भी घबरा गया 
आदम और हव्वा के रचनात्मक संसार में 
आदम को ढूँढने खुदा भी चल दिया 

अपने मन के इकतारे पर बिना सुरों को साजे 
मेरा रब रोता है बुक्का फाड़ कर 
कहता है बिलबिलाकर 
कोई मेरा भी क़त्ल कर दो यारों 
कोई मुझे भी मुक्त कर दो यारों 
तुम्हारी जड़वादी सोच से 
भयग्रस्त कुंठाओं से 
भय के अखंड साम्राज्य से 
जहाँ मेरे नाम की तख्ती लगा 
मनमाना व्यभिचार करते हो 
और मेरे नाम के दीप में 
अपनी तुच्छ वासनाओं के घृत भरते हो 
और फिर  कभी सामाजिक तो कभी 
धार्मिक डर की आँधियाँ  चलाते हो 
मेरे नाम पर मानव द्वारा मानवता को ही छलवाते हो 
अपनी कामनाओं की पूर्ती के लिए 
मेरे कंधे पर  बन्दूक रख चलाते हो 
बस करो अब बस करो 
खुद को बेबस लाचार महसूसता हूँ 
जब तुम्हारी स्वार्थपरता में घिरता हूँ 
मेरा अंतःकरण भी रोता है 
और यही प्रश्न करता है 

तुम्हारे बोये भय और उन्माद की आँधी में आखिर कब तक मेरा क़त्ल होता रहेगा ?