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मंगलवार, 29 जनवरी 2013

सुनो………।


सुनो
तुम ज़लालत की ज़िन्दगी जीने
और मरने के लिये ही पैदा होती हो


सुनो
तुम जागीर हो हमारी
कैसे तुम्हारे भले का हम सोच सकते हैं


सुनो
तुम इंसान नहीं हो जान लो
कैसे तुम्हें न्याय दे
खुद अपने पाँव पर कुल्हाडी मार सकते हैं

सुनो
तुम बलात्कृत हो या मरो
कानून तुम्हारे लिये नहीं बदलेगा

सुनो
तुम्हारी कुर्बानी को सारा जहान क्योँ ना माने
मगर कानून तो अपनी डगर ही चलेगा

सुनो
शहादत तो सीमा पर होती है
और तुम शहीद नहीं
इसलिये नाबालिग के तमगे तले
बलात्कारी पोषित होता रहेगा

सुनो
तुम , तुम्हारे शुभचिन्तक, ये बबाली
चाहे जितना शोर मचा लो, नारे लगा लो
आन्दोलन कर लो
व्यवस्थायें , शासन और देश
तुम्हारे हिसाब से नहीं चलेगा

सुनो
तुम्हारे जैसी रोज मरा करती हैं
और तुम जैसी के मरने से
या बलात्कृत होने से
देश और व्यवस्थायें , समाज और कानून
परिवर्तित नहीं हुआ करते
संविधान में यूँ ही संशोधन नहीं हुआ करते
जब तक कि कोई कानून बनाने वाले
या देश पर शासन करने वालों के
घर की अस्मिता ही ना बलात्कृत हो

इसलिये
सुनो
सो जाओ एक बार फिर कु्म्भकर्णी नींद में
क्योंकि
नाबालिगता और दो साल की कैद
काफ़ी है तुम्हारे ज़ख्म भरने के लिये
इसलिये जान लो
विशेष परिस्थिति का आकलन और समयानुसार निर्णय लेना हमारे देश का चलन नहीं ………………

रविवार, 27 जनवरी 2013

"रास्ता है तो पहुँचेगा अपने अन्तिम छोर तक भी "

रास्ता है तो पहुँचेगा अपने अन्तिम छोर तक भी फिर चाहे राह मे कितने गहन अन्धेरे ही क्यों ना हों 
कितने ही बीहड कंटीले बियाबान हों 
फिर चाहे पगडंडी पर ही क्यों ना चलना पडे

मगर यदि रास्ता है तो जरूर पहुँचेगा अपने अन्तिम छोर तक 

फिर चाहे राह मे मोह मत्सर के नाले हों 

या अहंकार के प्याले हों
या फिर क्रोधाग्नि से दग्ध ज्वाले हों

फिर चाहे पगडंडी पर ही क्यों ना चलना पडे 
यदि रास्ता है तो जरूर पहुँचेगा अपने अन्तिम छोर तक

फिर चाहे वेदना नृत्य करती हो
या रूह कितना ही सिसकती हो
चाहे भटकन कितनी हो
पर अन्तिम सत्य तक पहुँचना होगा

पगडंडी पर भी चलना होगा 
क्योंकि
सीधी सपाट राहें जरूरी नहीं मंज़िल का पता दे ही दें
क्योंकि फ़िसलन भी वहीं ज्यादा होती है 
इसलिये

गर हो हिम्मत तो पगडंडियों के दुर्गम 
अभेद , जटिलताओं से भरे किनारों पर 
पाँव रख कर देखना 
गर चल सको तो चल कर देखना 
फिर जटिलताओं की आँच पर तपकर 
कुन्दन जब बन जाओगे
तो मंज़िल भी पा जाओगे

रास्तों के सफ़र मे पगडंडियों की अनदेखी
करने वालों को मंज़िल नहीं मिला करती

हाँ, रास्ता है तो तय करना ही होगा
खुद से अन्तिम छोर पर मिलना ही होगा
वो ही जीवन का वास्तविक उत्सव होगा

गुरुवार, 24 जनवरी 2013

जवाब दो मनुज ………जवाब दो?


गुफ़्तगू के मार्च अंक (2013)में प्रकाशित मेरी ये कविता ………कुछ लोगों ने सूचित किया मैसेज द्वारा तो पता चला क्योंकि पत्रिका तो मिली नहीं और सुना है वो पत्रिका भी सिर्फ़ सदस्यों को भेजते हैं और हम सदस्य नहीं हैं ………वैसे और जगह भी छप रहे हैं मगर सब जगह से पत्रिका आदि आते रहते हैं ये ही एक जगह है जहाँ से डब्बा गोल है :) ………

इक तरफ़ कटा सिर उसका
जो बना देश का प्रहरी
कहीं ना कोई मचा हल्ला
क्योंकि कर्तव्य है ये उसका
कह पल्ला झाडा जाता हो जहाँ

इक तरफ़ बहन बेटी की आबरू

सरेआम लुट जाती हो
और कातिल अस्मत का
नाबालिगता के करार में
बचने की फ़ेहरिस्त मे जुड जाता हो जहाँ

सफ़ेदपोश चेहरों पर शिकन

ना आती हो चाहे कितना ही
मुश्किल वक्त आ पडा हो
घोटालों के घोटालों  मे जिनके चेहरे
साफ़ नज़र आते हों जहाँ 



न्याय के नाम पर

खिलवाड किया जाता हो जहाँ 
कानून के ही मंदिर में
कानून का अपमान किया जाता हो जहाँ
फिर चाहे संविधान की कोई
कितनी धज्जियाँ उडाये
कैसे कोई संवैधानिक पर्व मनाये वहाँ


वहाँ कैसे कोई आस्था का पर्व मनाये

क्यों ना शर्म से डूब मर जाये
क्यों नहीं एक शमशीर उठाये
और झोंक दे हर उस आँख में
जहाँ देखे दरिन्दगी के निशाँ
जहाँ देखे वतन की पीठ पर
दुश्मन का खंजरी वार
जहाँ देखे घर के अन्दर बसे
शैतानों के व्यभिचार

कहो तो जब तक ना हो

सभी दानवों का सफ़ाया
जब तक ना हो विषपान
करने को शिव का अवतार
बिना मंथन के
कैसे अमृत कलश निकलेगा
और कैसे घट से अमृत छलकेगा
तब तक कैसे कोई करेगा
आस्था की वेदी पर कुंभ स्नान ?

कुम्भ स्नान के लिये

देनी होगी आहुति यज्ञ में
निर्भिकता की, सत्यता की, हौसलों की
ताकि फिर ना दानव राज हो
सत्य, दया और हौसलों की परवाज़ हो
और हो जाये शक्ति का आहवान
और जब तक ना ऐसा कर पाओगे
कैसे खुद से नज़र मिलाओगे
तब तक कैसे ढकोसले की चादर लपेटे
करोगे तुम कुम्भ स्नान…………?
क्योंकि
स्नान का महत्त्व तब तक कुछ नहीं
जब तक ना मन को पवित्र किया
तन की पवित्रता का तब तक ना कोई महत्त्व
जब तक ना मन पवित्र हुआ
जब तक ना हर शख्स के मन में
तुमने आदर ,सच्चाई और हौसलों का
दीप ना जला दिया
दुश्मन का ह्रदय भी ना साफ़ किया
तब तक हर स्नान बेमानी ही हुआ
इसलिये
जब तक ना ऐसा कर सको
कैसे कर सकोगे कुम्भ स्नान
जवाब दो मनुज ………जवाब दो?

शनिवार, 19 जनवरी 2013

"तुम्हारी मूक अभिव्यक्ति की मुखर पहचान हूँ मैं"

सुनो
प्रश्न किया तुमने
देह के बाहर मुझे खोजने का
और खुद को सही सिद्ध करने का
कि देह से इतर तुम्हें
कभी देख नहीं पाया
जान नहीं पाया
एक ईमानदार स्वीकारोक्ति तुम्हारी
सच ……अच्छा लगा जानकर

मगर

बताना चाहती हूँ तुम्हें
मैं हूँ देह से इतर भी
और देह के संग भी
बस बीच की सूक्ष्म रेखा कहो
या दोनो के बीच का अन्तराल
उसमें कभी देखने की कोशिश करते
तो जान पाते
मै और मेरा प्रेम
मैं और मेरी चाहतें
मैं और मेरा होना
देहजनित प्रेम से परे
मेरे ह्रदयाकाश मे अवस्थित
अखण्ड ब्रह्मांड सा व्यापक है
जिसमें मेरा देह से इतर होना समाया है
बस भेदना था तुम्हें उस ब्रह्मांड को
अपने प्रेमबाण से
जो देह पर आकर ही ना
अपना स्वरूप खो बैठे

क्या चाहा देह से इतर

सिर्फ़ इतना ना
कभी कभी आयें वो पल
जब तुम्हारे स्पर्श में
मुझे वासनामयी छुअन
का अहसास ना हो
कभी लेते हाथ मेरा अपने हाथ में
सहलाते प्रेम से
देते ऊष्मा स्पर्श की
जो बताती ………
मैं हूँ तुम्हारे साथ
तुम्हारे हर अनबोले में
तु्म्हारे हर उस भाव में
जिन्हें तुम शब्दों का जामा नही पहना पातीं
"तुम्हारी मूक अभिव्यक्ति की मुखर पहचान हूँ मैं"
ओह ! सिर्फ़ इन्हीं शब्दो के साथ
मैं सम्पूर्ण ना हो जाती

या कभी पढते आँखों की भाषा

जहाँ वक्त की ख्वाहिशों तले
मेरा वजूद दब गया था
मगर अन्दर तो आज भी
एक अल्हड लडकी ज़िन्दा थी
कभी करते कोशिश
पढने की उस मूक भाषा को
और करते अभिव्यक्त
मेरे व्यक्त करने से पहले
आह ! मैं मर कर भी ज़िन्दा हो जाती
प्रेम की प्यास कितनी तीव्र होगी ……सोचना ज़रा


क्या ज्यादा चाहा तुमसे

इतने वर्ष के साथ के बाद
जहाँ पहुँचने के बाद शब्द तो गौण हो जाते हैं
जहाँ पहुँचने के बाद शरीर भी गौण हो जाते हैं
क्या इतना चाहना ज्यादा था
कम से कम मेरे लिये तो नही था
क्योंकि
मैने तुम्हें देह के साथ भी
और देह से इतर भी चाहा है

जानते हो

कभी कभी जरूरत होती है
देह से इतर भी प्रेम करने की ……राधा कृष्ण सा

सम्पूर्णता की चाह में ही तो भटकाव है ,प्यास है , खोज है

जो मेरी भी है और तुम्हारी भी
बस फ़र्क है तो स्वीकार्यता में
बस फ़र्क है तो महसूसने में
बस फ़र्क है तो उसके जीने में

और मैं और मेरी प्यास अधूरी ही रही

मुझे पसन्द नहीं अधूरापन ………
क्योंकि
ना तुम आदि पुरुष हो ना मैं आदि नारी
इसलिये
खोज जारी है …………देह से इतर प्रेम कैसे होता है

अधूरी हसरतों को प्यास के पानी से सींचना सबके बस की बात नहीं …………

बुधवार, 16 जनवरी 2013

सोचती हूँ अघोरी बन जाऊँ

सोचती हूँ अघोरी बन जाऊँ
और अपने मन के शमशान में
कील दूँ तुम्हें 
तुम्हारी यादों को
तुम्हारे वजूद को
अपनी मोहब्बत के 
सिद्ध किये मन्त्रों से 

सुना है --------- मन्त्रों में बहुत शक्ति होती है
और आत्मायें 
जो कीली जाती हैं 
वचनबद्ध होती हैं 
मन्त्रों की लक्ष्मण रेखा में 
बँधे रहने को ------------

क्योंकि
मोहब्बत की शमशानी खामोशी में गूँजते 
मन्त्रोच्चार के भी अपने कायदे होते हैं ……

मंगलवार, 15 जनवरी 2013

सोचती हूँ क्या दूं तुम्हें तोहफा

 
 
 
सोचती हूँ 
क्या दूँ  तुम्हें तोहफा 
बहुत हो चुका  देना 
वस्तुओं का 
कपडे, पर्स ,ज्वेलरी 
सब भौतिक वस्तुएं 
क्योंकि अब तुम 
पदार्पण कर चुकी हो 
बचपन से उम्र के उस 
पड़ाव में जहाँ 
हर तरफ ज़िन्दगी 
एक जुंग बनकर खड़ी मिलेगी 
दुआएं तो हमेशा 
हर हाल में 
तुम्हारे साथ रहती हैं 
इसलिए चाहती हूँ देना 
एक ऐसा तोहफा 
जिसे तुम हमेशा संजो कर रख सको 
और पीढ़ी दर पीढ़ी 
उसे आबंटित करती रहो 
सुनो बेटी 
जब से तुम्हें जन्म दिया 
न कोई रोक टोक किया 
न कोई फर्क किया
क्योंकि 
मुझे कहीं कोई फर्क ही नहीं दिखा 
नहीं लगा ऐसा कहीं 
जो तुम पर थोपती 
कोई मान्यता 
मगर आज बदल गया ज़माना 
आज बदल गयी इंसानियत 
आज बदल गयी हर तस्वीर 
आज 21 वीं सदी की नारी कहाती हूँ 
इसलिए तुम्हें बताती हूँ 
बेशक वक्त का खौफनाक 
चेहरा सामने आया है 
बेशक एक जंग छिड़ी है 
मगर चाहती हूँ अब 
तुम्हारा भी योगदान 
चाहती हूँ तुम्हें निडर बनाना 
अपने हक़ के लिए लड़ना सिखाना 
अपनी आवाज़ उठाना 
ताकि कल कोई सामाजिक मान्यता 
बेडी  बनकर तुम्हारे पाँव न रोक सके 
अब अपनी जुंग तुम्हें खुद लड़नी है 
किसी निगाह में अपने लिए 
हमदर्दी नहीं देखनी है 
बल्कि अपनी पहचान आप बनना है 
एक ऐसा ताजमहल तुम्हें खड़ा करना है 
जिस दिन अपनी अस्मिता 
अपनी अहमियत , अपनी पहचान 
तुम्हें मिलेगी .........देखना 
यही दुनिया , यही लोग 
यही सोच तुम्हारे आगे 
नतमस्तक होंगे 
बस अपने हौसलों को न टूटने देना है 
बस एक आगाज़ तुम्हें करना है 
मुश्किलों से न डरना है 
क्योंकि 
इतिहास में तारीखें तभी अमर हुआ करती हैं 
जब शख्सियतें इबारत लिखा करती हैं 
और इस बार तुम्हें गढ़नी है इबारत 
अपने अस्तित्व की, अपनी पहचान की , अपने स्वाभिमान की 
 
 
बिटिया के जन्मदिन पर आज के हालत को देखते हुए एक माँ का बस यही है तोहफा उसके लिए 
 

शनिवार, 12 जनवरी 2013

मौत की नमाज़ पढ रहा है कोई

मौत की नमाज़ पढ रहा है कोई
कीकर के बीज बो रहा है कोई
ये तो वक्त की गर्दिशें हैं बाकी
वरना सु्कूँ की नीद कब सो रहा है कोई

आईनों को फ़ाँसी दे रहा है कोई

सब्ज़बागों को रौशन कर रहा है कोई
ये तो बेबुनियादी दौलतों की हैं कोशिशें
वरना हकीकतों में कब लिबास बदल रहा है कोई

नक्सलवाद की भेंट चढ रहा है कोई

काट सिर दहशत बो रहा है कोई
ये तो किराये के मकानों की हैं असलियतें
वरना तस्वीर का रुख कब बदल रहा है कोई

आशिकी की ज़मीन हो या भक्ति के पद

यहाँ ना धर्म बदल रहा है कोई
मीरा की जात हो या कबीर की वाणी
सबमें ना उगता सूरज देख रहा है कोई
ये तो बुवाई हो रही है गंडे ताबीज़ों की
वरना फ़सल के तबाह होने से कब डर रहा है कोई


बिसात चौसर की बिछा रहा है कोई

दाँव पर दाँव चल रहा है कोई
ये तो अभिशापित पाँसे हैं शकुनि के
वरना यहाँ धर्मयुद्ध कब जीत रहा है कोई


बुधवार, 9 जनवरी 2013

ये फ़ितूरों के जंगल हमेशा बियाबान ही क्यों होते हैं?

काश !
मौन के ताले की भी कोई चाबी होती
तो जुबाँ ना यूँ बेबस होती
कलम ना यूँ खामोश होती
कोई आँधी जरूर उमडी होती

इन बेबसी के कांटों का चुभना …

मानो रूह का ज़िन्दगी के लिये मोहताज़ होना
बस यूँ गुज़रा हर लम्हा मुझ पर
ज्यूँ बदली कोई बरसी भी हो
और चूनर भीगी भी ना हो

ये फ़ितूरों के जंगल हमेशा बियाबान ही क्यों होते हैं?

मंगलवार, 8 जनवरी 2013

कल , आज और कल

पता नहीं क्यों
आदत हो गयी है हमें
इतिहास से फूल चुनने की
और काँटों पर शयन करने की
आखिर क्यों हम बार- बार
पलट कर देखते हैं
जबकि वक्त ना जाने कितनी
करवटें बदल चुका है
ना वैसा आलम रहा
ना वैसा आचरण
ना वैसे संस्कार
तो फिर क्यों हम
आज की तुलना
बीते कल से करते हैं
और खोजते हैं
अपना बीता वक्त आज में
जबकि जो बीत चुका
वो वापस नहीं आता
कालातीत हो चुका होता है जो
क्यों उसे ज़िन्दा करने की
उसे कुरेदने की कोशिश करते हैं
फिर चाहे समाज की कुरीतियाँ हों
या मन के दंश
या घर की औरतें
खींच लाते हैं उन्हें अतीत से वर्तमान में
और थोपने लगते हैं
कल के पलों पर आज के जंगल
ढूँढने लगते हैं अमरबेलें
जो कभी मुरझाएं नहीं
ज़िन्दा रखते हैं हम उन्हें
अपनी यादों में चिताओं की अग्नि जलाये
क्यों नहीं इतना समझते
कल के सन्दर्भ कल के माहौल
को इंगित करते हैं .........आज को नहीं
फिर कैसे उम्मीद कर लें
बीता कल आज बन जाए
क्यों नहीं समझते
कल काल कवलित हो चुका
और आज भी सिर्फ आज है
दिन गुजरते ही ये भी
काल कवलित हो जायेगा
तो क्यों ना उसके गुजरने से पहले
कुछ ऐसे दस्तावेज़ लिख दें
कि आने वाले कल में कोई
आज जो  बीत कर कल बन जायेगा
उसकी परछाइयाँ ना देखे
लिख दें ऐसा पल स्वर्णिम अक्षरों में
जो कभी काल कवलित ना हो
फिर चाहे कल , आज और कल हो
हर युग में प्रासंगिक हो ..............

शनिवार, 5 जनवरी 2013

क्या कहूँ अब ?

   क्या कहूँ अब ?
एक प्रश्न बन खड़ा है मेरे सामने
न मैं बची न मेरा अस्तित्व
और फिर किससे कहूँ  ?
कौन है सुनने वाला ?
कहने के लिए
दो का होना जरूरी होता है
एक कहने वाला और एक सुनने वाला
मगर आज तो लगता है
सिवाय मेरे
और कोई नहीं है सुनने वाला
ये कौन से देश में आ गयी हूँ
ये कौन से परिवेश में आ गयी हूँ
ऐसा तो न देखा था न सुना था
बस यही सुनते बड़ी हुयी
ये राम का देश है
जहाँ सीता की अस्मिता के लिए
रावण का अंत किया जाता है
और प्रतीकात्मक रूप से
आज भी रावण का अंत होता है
जहाँ आज भी स्त्री को इतना मान मिलता है
कि  देवी रूप में पूजी जाती है
मगर मुझे न पता था
यहाँ स्त्री को सिर्फ भोग्या का ही स्थान मिला
फिर चाहे द्रौपदी हो या अहिल्या या आज की दामिनी
हर बार वो ही दांव पर लगी
हर बार उसकी ही अस्मिता से खेला गया
हर बार उसकी ही आत्मा को लहूलुहान किया गया
सन्दर्भ या काल कोई भी रहा हो
मगर हर बार दोहन मेरा ही हुआ
तो फिर कहने को क्या बचा ?
कौन सा कानून ऐसा बना
जिसमे मेरे वजूद को इन्सान के रूप में स्वीकारा गया
आज जब वाकिफ हो गयी हूँ इस सत्य से
तो चाहती हूँ बदलना अपने रूप को
अपने स्वरुप को
करना चाहती हूँ एक ऐसा तप
जिसमे मांग सकूँ खुदा से
सिर्फ अपने लिए एक वर
"अब से जब भी पृथ्वी पर जन्म देना
मुझमे ना वो अंग देना
जो इंसान को हैवान बनाते हैं
जो माँ, बहन, बेटी तक का फर्क भुलाते हैं
या फिर इतना सबल बनाना
कि आँख न कोई उठ सके
हाथ न कोई बढ़ सके
मेरी अस्मिता तक "
हाँ माँगना चाहती हूँ अब खुदा से ही
क्योंकि
इंसानों का देश कहे जाने वाले इस देश में तो
मैं घर में भी सुरक्षित नहीं .............
जहाँ मेरे शव पर राजनीति  होती है
जहाँ मेरी अस्मिता जार - जार रोती है
जहाँ रूह मेरी तार - तार होती है
और फिर यही प्रश्न मूंह बाए खड़ा हो जाता है ...........क्या कहूँ अब और किससे ?

बुधवार, 2 जनवरी 2013

निर्णायक स्थिति के लिए

सारे नियमों को ताक  पर रखकर
आज निकल पड़ी हूँ मैं
समाज की हर खोखली रीत को तोड़ने
जो न किया  होगा कभी किसी ने
अब मैं करूँगी वो
ताकि सोच बदले , समाज बदले और ये देश बदले

क्योंकि

कुछ करने के लिए पहले आहूति तो खुद की ही दी जाती है
और मैं तैयार हूँ इस हवि में आहूत होने के लिए
और अपने आने वाले कल के नव निर्माण के लिए
तोडना होगा मुझे ही अपनी बेड़ियों को
अपनी कुंठित सोच को बदलना होगा
और करना होगा आह्वान ससम्मान जीने के लिए
और उसके लिए एक बारगी तो क्रांति करनी ही होगी
और इस बार मैं हूँ तैयार
अपनी एक नयी सोच के साथ
सोच लिया है मैंने
करवाऊंगी जरूर लिंग परीक्षण
और  यदि लड़की हुयी तो दूँगी जरूर जन्म
मगर
लड़का हुआ तो कराऊँगी गर्भपात
जानते हो क्यों ?
क्योंकि
नहीं चाहती ऐसी पीढ़ी को जन्म देना
जिसकी निगाह में स्त्री की तस्वीर सिर्फ भोग्या की ही हो
जब तक ना मैं ऐसा कदम उठाऊंगी
तब तक ना तस्वीर बदलेगी
जब खुद के अस्तित्व पर आन पड़ेगी
तभी पुरुष की सोच बदलेगी
जानती हूँ ...........इसमें भी
बहुत प्रश्न उठ जायेंगे
कहीं तो समाज के संतुलन के
तो कहीं वक्त से लड़ने के
तो कहीं अतिवादी होने के
मगर आज जान गयी हूँ मैं
कहीं न कहीं मैं भी गलत हूँ
गलती मेरी ही है जो न रोपित कर पायी ऐसे संस्कार
जो स्त्री को दे सकते सम्मान
इसलिए इस बार
बदलने को सोच की तस्वीर
देनी होगी मुझे अपनी ही आहूति
शायद तब तस्वीर बदलने लगे
और औरत अबला न कहलाये
अपनी शक्ति से सबको परिचित करवाए
और कह सके बाइज्जत
हाँ ............गर सृजन का है मुझे अधिकार
तो होगा मेरा ही मनचाहा संसार
जिसमे ना कोई लिंग भेद हो
अब तो तभी तस्वीर बदलेगी
गर हर स्त्री ये प्रण लेगी
जो पीढ़ियों से रोपित है
वो पौध अब बदलेगी
क्योंकि
जनने के अधिकार से आप्लावित मैं
जान गयी हूँ अपनी शक्ति को
जो चाहे तो ब्रह्मा की संरचना बदल सकती है
नारी की छवि को विश्व पटल पर बदल सकती है
बस इसके लिए अब यही आह्वान करती हूँ
हर स्त्री से यही कहती हूँ ...............
जाग , उठ , बन ऐसी माँ
जिसके आगे नतमस्तक हो सारा जहान

पुरुष प्रधान समाज में

पुरुष को ललकारने का साहस कर
दिखा अपनी अदम्य इच्छाशक्ति को
फिर देख कैसे न तस्वीर बदलेगी
फिर चाहे सतयुग हो या कलयुग
कोई भी स्त्री न बलात्कृत होगी ..............

बस एक बार गूंजा दे पांचजन्य की गूँज

जो कौरव (कापुरुष) ह्रदय दहल जाएँ
और तुझे मुक्ति का मार्ग मिल जाए
वैसे भी महाभारत के युद्ध में
नींव तो द्रौपदी के केश और उसकी हँसी ही बने थे ना
तो इस बार गुंजा पांचजन्य और कर उद्घोष
नहीं देगी तब तक जन्म उस कापुरुष को
जब तक न मिलेगा तुझे तेरा स्वरुप

धर्म और अधर्म की सूक्ष्म रेखा के बीच से ही शांति की स्थापना होती है

और किसी भी धर्मयुद्ध में
कुछ हिस्सा आहुति के रूप में अपना भी देना पड़ता है ...........निर्णायक स्थिति के लिए

और इस बार मैं तैयार हूँ ………………