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रविवार, 26 जुलाई 2015

' नया क्या ?'

वो कहते हैं 
नया क्या ?

अरे भाई 
नया दिन है 
हर पल नया है 
हर पल गुजरती ज़िन्दगी नयी है 

उस पर रोज 
तुम्हारी बातें नयी हैं 
तुम्हारे विचार नए हैं 
तुम्हारी सोच नयी है 
तुम्हारे चेहरे के भाव नए हैं 

उस पर भी प्रश्न 
नया क्या ?
सिर्फ नयी चीजें खरीदना 
नयी फिल्म देखना 
नए गाने सुनना 
नयी चीजें खाना ही नयेपन की श्रेणी में नहीं आता 

कभी देखना बाग़ में खिले फूलों को 
रोज़ नए ही लगेंगे 
रोज नयी ही बातें करेंगे 
रोज नयी ही खुशबू से सराबोर होंगे 

बच्चों की मुस्कान में 
उनकी बातों में 
उनके क्रियाकलाप में 
खोजोगे तो भी न मिलेंगे  
कोई पुरा अवशेष 

सिर्फ शब्दों का रोज घटजोड़ ही नया नहीं होता 
रंगों से खींची आड़ी टेढ़ी लकीरों से ही नया नहीं बनता 
प्रकृति की कूची नित्य नए अलंकार गढ़ती है 
जो मौसम के साथ बदलती है 

नया यहाँ सब है 
बस जरूरत है तुम्हें 
वो दृष्टि विकसित करने की 
जो आदिम युग में भी नयापन देख ले 
क्योंकि यहाँ तो 
हर सरकते पल में बदल जाती है सृष्टि 
आत्मा भी देह त्याग बदल लेती है नया चोला 
जब एक दिन पहले तुम जैसे थे 
वैसे न अगले दिन रहे 
तो फिर कैसे पूछते हो तुम .... ' नया क्या ?'

शुक्रवार, 24 जुलाई 2015

चाँद मेरे हिस्से का


आज मुझे गुनगुनाना है दुनिया का हर एक गाना , जीना है जी भर के , कल हो न हो ........कहाँ से आये कहाँ है जाना ये सत्य भला कौन है जाना तो क्यों न जी ली जाए एक दिन में एक उम्र कि शिकायत न हो फिर खुदा से भी कोई . 

अब इस पार और उस पार के फेर में कौन पड़े .........रात दोनों ही तरफ गहरी अंधियारी है और बीच में जो मिली है रौशनी की   चार लकीरें तो क्यों न इस रौशन जहान से मोहब्बत कर लें .........वर्ना किसने कब क्या पाया , कोई न भेद जान पाया ..........इस पार उस पार की खोज करता रहा और वर्तमान को खोता रहा ...........मूल मकसद से ही भटक गया ..........क्या होगा जानकर उधर क्या ? जो है यही है खुली आँखों से जो दिख रहा है , बंद होते ही तो सिर्फ अँधेरा ही अँधेरा है ये जानते हैं फिर भी अदृश्य की खोज में लगे हैं.... न भविष्य से और न भूत से निकल रहे हैं बस इसी भूलभुलैया में घूम रहे हैं ये जानते हुए कि इस चक्कर में वर्तमान को भी खो रहे हैं .........तो क्या रहा औचित्य फिर जीवन का जब खाली ही हाथ रहा .......... न आगत का पता मिला न विगत का और जीवन के मध्यांतर को खोज के प्रांगण में बिता दिया ...........जैसा आया था वैसा ही चल दिया कसकता हुआ , रोता हुआ ...........

नहीं , मुझे नहीं गंवाना अपना अमूल्य क्षण इस तरह .............गुनगुनाना है आज हर वो गीत जो बना है और जो नहीं बना .............शायद बन जाए मेरा जीवन ही संगीत , किसी के प्रेम का मीत , कोई सांझी रीत , एक झबरीली प्रीत .............और कह उठूँ मैं एक दिन ..............पंछी बनूँ उडती फिरूं मस्त गगन में आज मैं आजाद हूँ दुनिया के चमन में . 

सोमवार, 20 जुलाई 2015

इश्क के चटकारे, मेरा खोना .....एक रस्म है ये भी


ये मेरा खोना ही है 
जब खुद को भी ढूंढ न पाऊँ 
पलकों की ओट में छुप जाऊँ 
किसी बहेलिये के डर से 
डरी सहमी हिरणी सी सकुचाऊँ 

ये मेरा खोना ही है 
जब आदमखोर बन जाए मनवा 
भरी थाली को लात मारे जियरा 
किसी सजन की पीहू पीहू पर भी 
न उमगे ये निगोड़ा मन भंवरा 

ये मेरा खोना ही है 
निष्क्रिय निस्पंद हो ठहर जाऊँ 
किसी मोड़ पर न मुड़ पाऊँ 
आगे पीछे आजू बाजू चलती रेल से 
खुद को न उतार पाऊँ 
मन की भीड़ में ही कहीं गुम हो जाऊँ 

ये मेरा खोना ही है 
जब तुम हो सामने 
और मैं मौन हो जाऊँ 
प्रेम के अवलंब लम्बवत पड़े रह जाएँ 
और मैं शोकमुक्त हो जाऊँ 

ये मेरा खोना ही है 
श्वेत श्याम से परे 
एक शीशमहल बनवाऊँ 
उसमे खुद को चिनवाऊँ
और आखिरी ईंट तुमसे लगवाऊँ 

ये मेरा खोना ही है 
जब भी खुद से मिलना चाहूँ 
तुम से मिल जाऊँ 
किसी उधडी सींवन सी 
किसी कांटे से उलझ जाऊँ 
और बूँद बूँद रिस  जाऊँ 

भरी बरसातों के अहातों में पानी भरने पर नहीं चला करतीं कुँवारी कश्तियाँ 
क्यूंकि 
अस्थि कलशों की स्थापना को उच्चरित नहीं किये जाते वेद मन्त्र 
और तुम जानते हो 
यहाँ सह्स्त्राब्धियों की मोहब्बतों ने बीजे हैं आखिरी प्रपत्र 
बिना बीजमंत्रों के 
फिर भोर के तारे से करके इश्क 
कैसे कर दोगे तवारीख में दर्ज 
विधना के विधान को उलट कर 
मान भी लो अब ...........ये मेरा खोना ही है 

और खोये हुए दस्तावेज सिद्ध नहीं किये जा सकते और न ही ताबीज में पहन कैद किये जा सकते हैं 

एक बूंद अश्क की ढलके जिस दिन .......मान लेना ये मेरा खोना ही है 

बन्दनवार लगाने से 
दहलीजों पर नहीं रुका करतीं 
इश्क की मिश्रियाँ 
इश्क के चटकारे लगाना खोने का ही पर्याय  है .......... 

एक रस्म है ये भी  .......निभानी तो पड़ेगी ही न !!!



बुधवार, 15 जुलाई 2015

किसी भी प्रकाशन , प्रकाशक के लिए क्या जरूरी है ?

रश्मि प्रभा दी द्वारा आयोजित परिचर्चा " #किसी _भी_प्रकाशन_प्रकाशक_के_लिए_क्या-जरूरी_है ?" में मेरे विचार इस आलेख में पढ़ सकते हैं :


आज के दौर में जब चारों तरफ लेखकों और प्रकाशनों की बाढ़ सी आ रही हो उसमे ये प्रश्न उठाना भी लाजिमी है कि किसी भी प्रकाशन और प्रकाशक के लिए क्या जरूरी है अर्थात कौन सा पहलू ऐसा है जो सबसे जरूरी है तो इस सन्दर्भ में केवल एक मोड़ पर रुके रहना संभव ही नहीं है . आज गलाकाट प्रतियोगिता के दौर में सबसे पहले तो अपनी एक पहचान बनाना जरूरी है और पहचान बनाने के लिए कुछ नियम कायदे बनाने जरूरी हैं जिनका सख्ती से पालन किया जाए .

एक प्रकाशक के लिए जरूरी है सबसे पहले वो उस लेखक को ढूंढें या उस लेखन को पकडे जिसमे उसे लगे हाँ , इसमें है समाज को बदलने की कूवत और साथ ही बन सकेगा हर आँख का तारा अर्थात जो सहज संप्रेषणीय होने के साथ सर्वग्राह्य हो न कि चलता नाम देखकर उसे ही छापे जाए बल्कि थोडा जोखिम उठाने की भी हिम्मत रख सके . आज बड़े बड़े प्रकाशन ऐसे ही बड़े नहीं बने उन्होंने भी अपने वक्त पर जोखिम उठाये नयों में से ऐसे मोती ढूंढें जो साहित्य का आकाश पर अपना परचम लहरा सकें और वो उसमे सफल भी हुए तो क्यों नहीं आज का प्रकाशक ये जोखिम उठाये और अपनी राह खुद बुने .

दूसरी जरूरी बात है सिर्फ पैसे के पीछे न भागे जैसा कि आजकल हो रहा है पैसे लो और जिस किसी को भी छाप दो फिर चाहे लेखक कहीं न पहुँच अपनी जेब तो गरम हो ही गयी न तो उससे प्रकाशक की साख पर ही बट्टा लगेगा तो जरूरी है पहले पाण्डुलिपि मंगवाई जाए , कुछ सिद्धहस्तों से पढवाई जाए और फिर लगे ये छापने योग्य है तो जरूर छापी जाए और लेखक से कीमत न लेकर उसके लेखन का प्रचार और प्रसार प्रकाशक करे ताकि वो जन जन तक पहुँच सके . आज तो वैसे भी इन्टरनेट के माध्यम से कहीं भी किताब पहुंचाई जा सकती है तो जरूरत है तो सिर्फ प्रचार और प्रसार की फिर तो पाठक खुद ही मंगवाने का जुगाड़ कर लेगा मगर उसे पता तो चले कि आखिर उस किताब को वो क्यों पढ़े ? प्रचार प्रसार ऐसा हो जो पाठक के मन को झकझोरे और वो उसे पढने को लालायित हो उठे तो प्रकाशन को स्वयमेव फायदा होगा . जितनी प्रतियाँ बिकेंगी प्रकाशक को ही मुनाफा होगा .

एक जरूरी चीज और है लेखक और प्रकाशक में आईने की तरफ साफ़ रिश्ता हो जो कि आज कहीं नहीं दिखता बल्कि लेखक प्रकाशक पर और प्रकाशक लेखक पर दोषारोपण करते रहते हैं जो रिश्ते को कटु बनाते हैं क्योंकि पारदर्शिता नहीं होती तो लेखक को पता नहीं चलता कितनी प्रतियाँ बिक गयी हैं और उस हिसाब से कितनी रॉयल्टी बनी . रॉयल्टी मिलना तो आज दूर की ही बात हो चुकी है बल्कि प्रकाशक यही रोते हैं कि बिकी ही नहीं तो आखिर कहाँ गयीं ? जबकि सरकारी खजाने में भी किताबें पहुंचाई जाति हैं जो लेखक भी जानता है मगर उसके पास कोई सबूत नहीं होता तो कुछ साबित नहीं कर सकता ऐसे में दोनों के बीच गलतफहमियां पैदा हो जाती हैं जिनका सुखद भविष्य नहीं होता बल्कि जरूरी है एक ऐसा अग्रीमेंट जिसके तहत दोनों बंधे हों .

एक सच ये भी है कि कोई भी प्रकाशन बिना पैसों और धर्म हेतु नहीं चलाया जाता बल्कि प्रकाशक तभी काम करना चाहेगा जब उससे उसे कुछ लाभ हो तो इसके लिए जरूरी है आज के वक्त में तकनीक का सहारा लेना और उसके माध्यम से लेखकों और पाठकों से जुड़ना . पाठकों की समय समय पर राय लेना आखिर वो पढना क्या चाहते हैं अर्थात किस तरह का लेखन पाठक की पहली पसंद है ऐसी रायशुमारी समय समय पर की जाती रहे तो कोई ताकत नहीं जो प्रकाशक कभी घाटा उठाये बल्कि जब पाठक को उसके मतलब की सामग्री मिलेगी तो वो और कहीं नहीं भागेगा और लेखक भी ऐसे ही प्रकाशक की ओर आकर्षित होगा जो उसे पहचान दिलाये न कि उसका शोषण करे . इस तरह के प्रयोगों से दीर्घकाल में प्रकाशन को लाभ ही लाभ होगा मगर उसके लिए जरूरी है समझौता न करके सच्चाई और ईमानदारी से अपने प्रकाशन को आगे बढाए और अपनी एक मुकम्मल पहचान बनाए .

एक आखिरी बात और प्रकाशक को चाहिए प्रचार प्रसार के अलावा बड़े बड़े आलोचकों तक किताब पहुंचाए , उनकी समीक्षाएं करवाए फिर वो अच्छी हों या बुरी उससे प्रकाशक का कोई सरोकार नहीं होना चाहिए क्योंकि यही सही और मुकम्मल तस्वीर होगी आंकने की ताकि उसी हिसाब से आगे निर्णय वो ले सके . केवल साहित्यकारों की निगाह में स्थान पाने के लिए जो लेखन किया जाता है वो आम पाठक की समझ से परे होता है इसलिए जरूरी है आम पाठक की सोच को आधार बनाकर लेखक और उसके लेखन को तवज्जो दी जाए और सही व् उचित मूल्यांकन करवाया जाए तो निसंदेह लेखक के साथ प्रकाशक और प्रकाशन दोनों अपना मुकाम पा लेंगे क्योंकि वहां मूल्यों से समझौता नहीं होगा और जब ये बात बाज़ार में होगी तो हर लेखक जुड़ने में गौरव महसूस करेगा साथ ही चाहेगा कि वो ऐसा लिखे तो उसी प्रकाशन से छपे .

लेखक और प्रकाशक का मजबूत रिश्ता किसी भी प्रकाशन की सफलता का एक आधार स्तम्भ होता है जिसे हर प्रकाशक के लिए समझना जरूरी है .

http://parikalpnaa.blogspot.in/2015/07/blog-post_15.html

रविवार, 12 जुलाई 2015

इस प्यार को अब क्या नाम दूँ

कभी कभी खुद को चाह लेना बुरी बात नहीं होती
 .... आज खुद से इश्क करने को जी चाहता है .....
मगर करूँ या नहीं .......उहापोह में हूँ
इश्क लफ्ज़ से ही जहाँ खिंच जाती हों म्यान से तलवारें
वहाँ खुद को किस जमीन किस आसमां का सितारा बनाऊँ
जो खुद से इश्क भी करूँ और जिंदा भी रहूँ ........

कहीं ये
फकत मौसम की दिल्लगी भर तो नहीं
जो इश्क के घोड़े पर सवार हो निकला हो महज फाकापरस्ती को .........

( गुम है किसी के प्यार में दिल सुबह शाम ..... इस प्यार को अब क्या नाम दूँ )

गुरुवार, 9 जुलाई 2015

यूँ तो नहीं बदलते देखा था कभी समुन्दरों का रंग

आह ! ये क्या हुआ
ये रक्त मेरा 
पीला कैसे पड़ गया
उफ़ ! अरे ये तो 
तुम्हारा भी सफ़ेद हो गया
कौन सा विकार 
घर कर गया
जो लहू दोनों का 
रंग बदल गया 
जितनी जल्दी नहीं बदलते 
मौसम भी रंग
उससे जल्दी कैसे
हल्दी घुल गयी 

सुना है हल्दी का रंग
जल्दी नहीं छूटा करता 
कपड़ों से
फिर शिराओं में बहता ये रंग
कैसे बदलेगा
जब त्वचा भी उसी रंग में रंग गयी है
और देखो तो सही
तुमने तो सफ़ेद चादर ही ओढ़ ली है 
सुना है कफ़न सफ़ेद ही होता है
जो चिता के साथ ही होम होता है

कैसे हो गया इतना सब कुछ
कौन से चेनाब का पानी पीया था
जो लाल रंग पर दूजा रंग चढ़ गया 
ये खुदपरस्ती , खुदगर्जी , खुदमुख्तारी 
कब और कैसे नकली जेवरों पर 
सोने का पानी चढ़ा देती है 
और सोने को भी फीका बना देती है 
पता ही नहीं चलता 

उफ़ क्या हो गया 
ये आज की दुनिया को

यूँ तो नहीं बदलते देखा था कभी समुन्दरों का रंग 

रविवार, 5 जुलाई 2015

कहीं बच्चे भी कभी बड़े होते हैं ?.........5



आज मेरा बेटा ईशान २१ साल का हो गया . पीछे मुड़कर देखती हूँ तो पता ही नहीं चलता कहाँ गुजरा इतना वक्त 
और ज़िन्दगी में पहली बार है कि मुझसे दूर हैदराबाद में माइक्रोसॉफ्ट में इंटर्नशिप के लिए गया हुआ है ........उसकी उन्नति की कामना करते हुए अपने मन के उदगार पांच दिनों से प्रगट कर रही थी क्योंकि ५ जुलाई जन्मदिन है पता नहीं कैसे पांच ही कविताओं ने आकार लिया इस बार ........अनंत शुभकामनाओं के साथ 

नौकरी जरूरी है 
उस पर मन का काम मिल जाए 
तो सोने पर सुहागा हो जाता है 
और तुमने वो सब पाया जो तुमने चाहा 
और कहीं न कहीं शायद मैंने भी 

माँ हूँ न , कैसे तुम्हारी तरक्की की राह में रोड़ा बन सकती हूँ 
जबकि अन्दर ही अन्दर जानती हूँ इस सत्य को 
कि तुम्हारी चाहत का मतलब है बिछोह 
होना होगा तुमसे दूर ...

' मैं यहाँ तू वहां '
गुजरना होगा इस दौर से 
फिर भी तुम्हारी तरक्की हेतु 
तुम्हारी इच्छा हेतु 
मान लेती हूँ मनौती 

कैसी माँ हूँ मैं ..........है न 
करने को खुद से दूर हो जाती हूँ आतुर 
और कर बैठती हूँ वो ही जो तुम चाहते हो मेरे बच्चे !!!


शनिवार, 4 जुलाई 2015

कहीं बच्चे भी कभी बड़े होते हैं ?.........4

अनगिनत चिंताओं की लेके थाती 
'बाट जोहेगी तुम्हारी माँ' कह 
नहीं विदा किया तुझे 
फिर भी जाने कहाँ से 
चिंताओं के बादल घुमड़ रहे हैं 

क्योंकि जानती हूँ समय के चक्र को 
ये कब बाज आया है 
तुम्हें जाना ही होगा एक दिन दूर 
अभी तो फिर भी आस जिंदा है 
कुछ दिनों की बात है मगर 
क्या होगा उस दिन 
जब तुम चले जाओगे अपने लिए राह बनाने ...........शायद हमेशा के लिए 

दूरियों और नजदीकियों के बीच उलझी 
तुम्हारे भविष्य हेतु खुश हूँ 
तो दूरियां सशंकित करती हैं 

जानती हूँ 
आंवल नाल से जुड़े रिश्ते में दूरियों की कोई गुंजाईश नहीं होती 
फिर भी 
माँ हूँ न 
अक्सर हो जाती हूँ सशंकित 
जब भी उमड़ता है ख्याल 
आने वाले कल में बदल जायेगी तस्वीर 
और तुम्हें जाना होगा हमेशा के लिए मुझसे दूर 

दिन के कंकडों में से 
बीनने को न बची होगी जब कोई आस 
एक माँ का क्या जीतेगा तब विश्वास 
इंतज़ार में हूँ ...........


शुक्रवार, 3 जुलाई 2015

कहीं बच्चे भी कभी बड़े होते हैं ?..........3

पहली बार 
तुम मुझसे दूर हुए 
सबकी उम्मीदों को पूर्णतयः नकारते हुए 
मैंने बाँधी छाती पर सिल 
और किया तुम्हें विदा 
बिना आँख में पानी लाये 
आखिर तुम्हारे भविष्य का सवाल है 
कैसे कर सकती थी अपशकुन 

मगर माँ हूँ न 
धक् धक् करता रहा सीना 
हर पल ध्यान तुम पर ही लगा रहा 
जब तक नहीं पहुँच गए तुम अपने गंतव्य पर 

अब हर पल एक कमी कचोट रही है 
रह रह मुझे मथ रही है 
भविष्य दर्शन कर रही हूँ 
अन्दर ही अन्दर सिहर रही हूँ 

'ये तो सिर्फ ट्रेलर था 
पिक्चर अभी बाकी है' का स्लोगन मुंह चिढ़ा रहा है 
भविष्य दर्शन करा रहा है 
हाँ , जाना ही होगा तुम्हें मुझसे दूर 
अपने सुखद भविष्य हेतु ..........

सीखना होगा जीना मुझे मेरे एकांत के साथ ........

गुरुवार, 2 जुलाई 2015

कहीं बच्चे भी कभी बड़े होते हैं ?..........2

कर्त्तव्य भावना से बड़ा होता है 
फिर जीवन जीने को जरूरी है आगे बढ़ना 
'पके पान' कब डाल से टूट गिरें कौन जानता है 
और तुम्हारे आगे पूरा जीवन पड़ा है 
तो छोड़ना ही होगा तुम्हें वृक्ष का मोह 
बढ़ना होगा आगे और आगे पाने को एक मुकाम 

जीवन संघर्ष का ही तो दूसरा नाम है 
और ये भी तो एक संघर्ष ही है 
जिस आँचल की छाँव तले बचपन बीता 
उसी से दूर जा करना होता है निर्माण अपने लिए एक नीड़ का 


हाँ , जाना ही होगा तुम्हें छोड़कर माँ की गोद मेरे बच्चे !!!


बुधवार, 1 जुलाई 2015

कहीं बच्चे भी कभी बड़े होते हैं ?........1

उड़ ही जाते हैं पंछी घोंसला छोड़ 
जब उग आते हैं पंख 
और निर्भरता हो जाती है ख़त्म 

छोड़ चुका है पंछी अब नीड़
उड़ने दो उसे 
भरने दो उसे परवाज़ 
तोलने दो उसे अपने पंखों को 
कि 
नापने को धरती और आकाश की दूरियां 
जरूरी होता है 
खुद उड़ान भरना 
अपना आकाश खुद बनाना

ये समय की माँग है 
तो मानना ही पड़ेगा इस सत्य को 
' बच्चे बड़े हो गए हैं  '
मगर क्या सच में ?

विश्वास और अविश्वास की गुल्झट सुलझाते हुए 
अन्दर की माँ पसोपेश में है 
कहीं बच्चे भी कभी बड़े होते हैं ?
वो तो माँ के लिए उम्र भर बच्चे ही रहते हैं 
फिर कैसे करूँ इस कटु सत्य को स्वीकार ?