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सोमवार, 31 अगस्त 2015

" ..... के भौंकने से शहर खाली नहीं होते "

" ...... के भौंकने से शहर खाली नहीं होते "
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ओ बगावती हवाओं
स्वीकार नहीं तुम्हारे स्वर
तुम्हारे आकाओं को
कि
सिर झुकाने की रवायतें
गर बदल दी जाएँ
तो कैसे संभव है उनका सिर उठाकर चलना
एकछत्र राज्य के वारिस हैं जो

ये शापित वक्त है
जहाँ फलने फूलने के मौसम
सिर्फ चरण चारण करने वालों को ही नसीब होते हैं

फिर क्यों
जोर आजमाइश किये जाती हो
जाओ , जाओ सो जाओ
फिर उन्ही तबेलों में
जहाँ की आवाज़ नहीं तोडा करती नींदें
सत्ताधारियों की

वर्ना आता है उन्हें प्रयोग करना
कीटनाशकों का भी
और आता है साज के सुरों को बदलना भी
ये त्रासद समय की आग उगलती विभीषिका है
बच सको तो बच लो
आज बगावत भी देश समय और काल देखकर ही करनी चाहिए
विपरीत परिस्थितियों में उपेक्षा लाज़िमी है
क्योंकि
जानते हैं वो हुनर
बगावती हवाओं के रुखों को मोड़ने का भी


क्योकि
सूत्रवाक्य है ये उनकी सत्ता का
जिसका पालन हर ताजपोश करता है

" ..... के भौंकने से शहर खाली नहीं होते "
" राजा आगे आगे चलते हैं .... पीछे भौंका करते हैं "

किसी भी बगावत को कुचलने के लिए काफी है
सिर्फ एक शब्द या एक वाक्य
" कुत्ता "
अर्थ अपने आप अपना स्वरुप ग्रहण करने लगते हैं

शनिवार, 29 अगस्त 2015

मेरा कोई भाई नहीं ..............

नहीं जानती
कैसे उठती है उमंग इस रिश्ते के लिए
नहीं जानती
कैसे इस रिश्ते की ऊष्मा से लबरेज
बाँध लेते हैं सारा प्यार
मोली के एक तार से

नहीं जानती
सारी दुनिया को कर दरकिनार
इस एक दिन
कैसे दौड़ पड़ती हैं बहनें भाइयों के लिए
और भाई बहनों के लिए
होकर आतुर किसी बच्चा जनी गाय की तरह
होकर विह्वल

कह सकते हैं
खून के रिश्तों से बढ़कर होते हैं उधार के रिश्ते
जाने क्यों फिर भी
नहीं उमगी कोई उमंग इनके लिए
कौन विश्वास के दामन में
कब अविश्वास की कील ठोंक दे 
और मर्यादा की सीमारेखा लांघ दे ...नहीं पता
इसीलिए  
उधार के रिश्तों से कभी दामन भरा नहीं
बस विश्वास और अविश्वास के मध्य ही झूलती रही

कभी न गा सकी वो गीत किसी के लिए
' भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना '
या फिर
' चंदा रे मेरे भैया से कहना , बहना याद करे '
कैसा होता है ये राखी का बंधन ....... नहीं जानती
क्योंकि
मेरा कोई भाई नहीं ..............


( कुछ सत्य स्वीकारने से ही मुक्ति पाया करते हैं )

गुरुवार, 27 अगस्त 2015

स्यापा

छाती पीट पीट स्यापा करने के इस दौर में 
आओ , छाती पीट करें स्यापा हम भी 

यूं के नहीं हैं शामिल हम किसी 
मज़हब, धर्म या संगठन में 
न ही किसी गुट या दल में 
और जानते हैं ये सत्य 
फिर राजनीति हो या समाज 
देश हो या साहित्य 
सिवाय स्यापाइयों के 
और किसी को नहीं मिला करती तवज्जो की सहूलियतें 

शायद हुक्मरानों के कानों में 
पड़ जाएँ कर्णभेदी शहनाइयां 
और बच जाए एक मसीहा क़त्ल होने से 
वर्ना अपने समय की विडम्बनाओं को दोहते दोहते 
रीत जायेंगी जाने कितनी पीढियां 
नपुंसक से ओढ़े आवरण से खुद को मुक्त करने का समय है ये 

कि या तो बजाओ 
ढोल ताशे और नगाड़े 
कि जिंदा है अभी एक सलीब 
यहाँ दुधारी तलवार की तेजी से भी तेज 
कट जाया करते हैं मस्तक धड से 
नहीं तो 
स्यापा करने तक ही सीमित रहेगी तुम्हारी नपुंसकता 

यहाँ अपने अपने अर्थ 
और अपने अपने स्यापे हैं 
जुगाड़ के पेंचों पर जहाँ 
खड़ी की जाती है प्रसिद्धि की इमारत 
वहाँ दोष ढूँढने वालों पर ही 
भांजी जाती हैं अनचाही तलवारें 
छिन्नमस्तक की लाशों पर 
लगाए जाते हैं जहाँ कहकहे 
वहाँ प्रतिबद्धताएं वेश्या सी नोची खसोटी जाती हैं 
राजनीति के मर्मज्ञ जानते हैं 
क्षेत्र कोई हो  
कैसे जुगाड़ के साम्राज्य को किया जाए पोषित 
जो उनकी सत्ता रहे निर्विघ्न कायम 

स्यापों का क्या है 
वे पथ बाधक नहीं 
बल्कि उनकी प्रसिद्धि में 
चार चाँद लगाने का जुगाड़ भर हैं 
जहाँ सभी अपने हैं और सभी पराये 
मगर स्यापों में शामिल होना नियति है हमारी 

स्यापों में चाहे अनचाहे शामिल होने का रिवाज़ 
आज के वक्त की एक खुली तस्वीर है ... झाँक सको तो झाँक लो 






सोमवार, 24 अगस्त 2015

जानता है वो

अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता
नक्कारखाने में तूती की आवाज़ कोई नहीं सुनता
जानते हुए भी
वो चल दिया अकेला ही
सूरज से आँख मिलाने

ये जमा घटा गुणा भाग का समय नहीं है
क्योंकि
हर अमावास के बाद पूर्णिमा आती ही है ...........जानता है वो

शुक्रवार, 21 अगस्त 2015

हाँफते हुए लोग

ये हाँफते हुए लोगों का शहर है 
जो हाँफने लगते हैं अक्सर 
दूसरों के भागने / दौड़ने भर से 

उठा लेते हैं अक्सर परचम 
करने को सिद्ध खैरख्वाह 
भाषा संस्कृति और साहित्य का 
मगर 
जहाँ भी देखते हैं झुका हुआ पलड़ा 
झुक जाते हैं 

झुका दी जाती हैं बड़ी बड़ी सत्ताएं 
अक्सर अर्थ के बोझ तले
वाकिफ हैं इस तथ्य से 
इसलिए 
विरोध का स्वर साक्षी नहीं किसी क्रांति का 
जानते हैं ये ....

वास्तव में तो भीडतंत्र है ये 
प्रतिकार हो , विरोध या बहिह्कार 
स्लोगन भर हैं 
हथियार हैं इनके 
खुद को सर्वेसर्वा सिद्ध करने भर के 
असलियत में तो 
सभी तमाशाई हैं या जुगाडू 

ऊँट के करवट बदलने भर से 
बदल जाती हैं जिनकी सलवटें 
मिला लिए जाते हैं 
सिर से सिर , हाथ से हाथ 
और बात से बात 
वहाँ
मौकापरस्त नहीं किया करते 
मौकापरस्तों का विरोध , बहिष्कार या प्रतिकार

हाँफते रहो और चलते रहो 
बस यही है मूलमंत्र विकास की राह का 

रविवार, 16 अगस्त 2015

भाषा के विकल्प

न डोंगरी न तमिल न कन्नड़ 
न ही अरबी उर्दू या फारसी 
न हिंदी संस्कृत या रोमन 
कोई भी तो मेरी भाषा नहीं 

आती है मुझे सिर्फ एक भाषा 
जिसके साथ जन्मा था 
जिसके साथ स्वीकारा गया 
पुचकारा गया , लाड लड़ाया गया 
जी हाँ , वो है ममत्व की , अपनत्व की , प्रेमत्व की 

भला इससे भी बेहतर हो सकती है कोई भाषा 
अगर हाँ , तो पढ़ाना मुझे भी 
शायद इंसान बन सकूँ 
सुना है ......... तुम जानते हो इंसानियत की सबसे बेहतर कोई भाषा 

क्योंकि 
मैंने नहीं सीखे भाषा के विकल्प .......

शुक्रवार, 14 अगस्त 2015

मन के मौन आकाश पर

मेरे मन के मौन आकाश पर 
जरूरी तो नहीं टंगे मिलें तुम्हें 
हमेशा ही जगमगाते सितारे 

ये चाँद की बेअदबी नहीं तो क्या है भला 
जो ओढ़कर घूँघट छुपा लेता है चेहरा 
और 
सितारों के पक्ष सूने पथ पर 
करते हैं जब चहलकदमी 
नहीं की जातीं संस्तुतियाँ 

अमावस की कालरात्रियाँ फर्क करना नहीं जानतीं  
फिर मन का मौन हो 
या आकाश का पथ सूना ...

बुधवार, 5 अगस्त 2015

साहित्यिक विज्ञापन


आवश्यकता है एक अदद खास मित्र की जो सच में ख़ास हो यानी ख़ास में भी ख़ास हो यानि हमारे लिए वो ख़ास हो और उसके लिए हम .......बस वो और हम .......जिसमे निम्नांकित गुण होने आवश्यक हैं इनके बिना योग्यता प्रमाणित नहीं होगी :

सच्चे मित्र की दुर्लभ परिभाषा का बाकायदा नुमाइंदा हो 

जिसको अर्थ समझाए न जाएँ फिर भी समझ जाए यानि बिना कहे दिल दिमाग को पढ़ जाए 

सबसे जरूरी चीज वो उधर की बात तो इधर कह दे मगर इधर की उधर न कहे 

हमारी भृकुटी के हिलने पर हिलने लगे जिसका आसन ऐसा हो उसका आचरण 

हमारे गलत पर भी सही की मोहर लगा दे और फिर सारी दुनिया से मनवा दे 

हमारे लिए एक पूरा शहर बसा दे जहाँ हमारी चाहतों को मुकाम मिलता रहे यानि कि यानि कि यानि कि हमें महिमामंडित करता रहे , ऐसा वातावरण बना दे , ऐसी हमारी ख्याति में चार चाँद लगा दे कि सबकी नज़रों के चाँद हम ही बन जाएँ 

और सबसे अहम बात वो हमें पढ़े , सराहे , हम से इतर कोई दूजा कवि न उसे नज़र आये 

तब जाकर उसकी योग्यता प्रमाणित होगी और उसे ये सच्चे मित्र का दुर्लभ पद प्राप्त होगा और फिर हम उसे अपना महत्त्वपूर्ण कार्य सौंपेंगे जिसके लिए ये विज्ञापन दिया है :

.........और क्या यूँ ही थोड़े विज्ञापन दिया है , इतनी मगजमारी की है , जानते हो क्यों दिया विज्ञापन ? सिर्फ इसलिए ताकि कोई कह न सके ऊंचाइयों पर पहुँचने पर सभी अकेले हो जाते हैं और सच बात है मुझे किसी पर विश्वास नहीं , जाने कौन किस संगठन से जुड़ा हो और मेरी बात लीक कर दे , आजकल तो संगठनों का बोलबाला है , उन्ही की छाती पर पैर रख बनाए जाते हैं नौसिखिये भी महाकवि ........अरे भाई , रोज देखते हैं यही खेल . वैसे भी आजकल सच्चे मित्र कोई टैग लगाकर तो घूमा नहीं करते और हमें चाहिए एक सच में हमारी तरह सच्चा मित्र जो लट्टू की तरह घूम सके . 

आखिर हमारे भविष्य का सवाल है क्योंकि यहाँ तो मुखौटे लगाए घूम रहे हैं सब ..........यदि किसी को बता दिया कि फलानी जगह से कविता की किताब छपवानी है तो वो ही सबसे पहले जाकर वहां भांची मारेगा और सामने मुंह मियां मिट्ठू बना रहेगा ....... तो क्यों अँधा न्यौतें और दो बुलाएं ......... और सबसे मुश्किल बात होती है एक कवि के लिए खुद अपनी कवितायें सेलेक्ट करना , उसे तो हर कविता में मुक्तिबोध दिखाई देता है तो कहीं निराला तो कहीं महादेवी ऐसे में जरूरी है निष्पक्षता  की , तो उसके लिए जरूरी है कुछ साहसिक कदम उठायें तो साहेबान जिस में ये गुण होगा उसे ही हम अपनी कवितायें दिखायेंगे , पढवायेंगे और उनसे कहेंगे भैये छाँटो इनमे से वो कवितायें जो मुझे साहित्य के आकाश का सबसे चमकता सितारा बना दे तभी तो बन पाएगी एक मुकम्मल पाण्डुलिपि .

बस फिलहाल इतनी कवायद तो पाण्डुलिपि के लिए है ...... आगे काम के हिसाब से तय किया जाएगा कि आपको और मौका दिया जाये या नहीं .

तो जो उम्मीदवार इन योग्यताओं पर खरे उतरने की हिम्मत करते हों वो ही आवेदन करें ...... विचारार्थ का कोई प्रावधान नहीं है .........जो है बस फुल एंड फाइनल है ...........टाइम नहीं है मेरे पास !!!

रविवार, 2 अगस्त 2015

गर क्या हुआ

नहीं तैरती हैं मेरे पानी में जज़्बात की मछलियाँ 
जो ख्यालों के उलटने पुलटने से हो जाएँ घायल 

नहीं है मेरा पानी नीलवर्णी आकाश सा स्वच्छ 
जो तुम कर सको अपने अक्स से धूमिल 

नहीं हूँ मैं एक गूंजता हुआ अनहद नाद 
जिसकी गुंजार से हो उठो पुलकित आनंदित 

हर क्रिया प्रतिक्रिया से परे हूँ 
तभी तो 
हर प्रतिकार के बाद भी अस्तित्व में हूँ 
गर क्या हुआ 
जो मैं एक स्त्री हूँ ............