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सोमवार, 14 नवंबर 2022

धधकती ज्वाला






चाहत की बाँझ कोख


 

काश! मुझमें मोहब्बत बची होती
कुछ तुझे दे देती कुछ मैं जी लेती
जैसे खारे समंदर में गुलाब नहीं खिला करते जानाँ
वैसे ही आँखों में उगी नमी से नहीं की जा सकतीं दस्तकारियाँ
सीने के तूफान ने अश्रुओं से किया है प्रणय
अब जुगलबंदी पर नृत्यरत है उम्र की कस्तूरी
बताओ अब
किस सीप से मोती निकाल
करूँ मोहब्बत का श्रृंगार
मैंने अंतिम क्षण तक तुझे
न देखने की
न मिलने की
न चाहने की
कसम खायी है
चाहत की बाँझ कोख में नहीं रोपे जा सकते कभी बीज मोहब्बत के