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मंगलवार, 16 अगस्त 2022

लठैत - बकैत

 


शर्मा जी: नमस्कार वर्मा जी

 
वर्मा जी: नमस्कार शर्मा जी

 
शर्मा जी: कहाँ थे इतने दिनों से?


वर्मा जी: हैं तो यहीं लेकिन अदृश्य हैं जी

 
शर्मा जी : वह क्यों? क्या आप भी भगवान बन गए हैं?


वर्मा जी: अब हमें कौन पढता है जी, तो अदृश्य ही रहेंगे न

 
शर्मा जी: अजी नहीं आप तो छाये हुए हैं.

 
वर्मा जी: आप हकीकत नहीं जानते वर्ना ऐसा न कहते. आज कोई किसी को पढना ही नहीं चाहता. पाठक न जाने कहाँ गायब हो गए हैं? लेखकों की अलग रामलीला चलती रहती है ऐसे में हम जैसों को अदृश्य होना ही पड़ता है जिनका न कोई गढ़ है न मठ, जिनके न कोई लठैत हैं न बकैत. 

शर्मा जी: अजी छोडिये भी ये रोना.पाठकों की कमी के दौर में लेखक ही पाठक हैं आज. वे भी बंटे हुए हैं. सबके अपने मठ गढ़ विचारधाराएँ हैं. जब इतने विभक्त होंगे तब एक लेखक को कौन पढ़ेगा यह प्रश्न उठता है. सच्चा पाठक आज के दौर में दुर्लभ होता जा रहा है. यदि गलती से कोई सच्चा पाठक है भी और यदि उसने कुछ कटु कह दिया तो वह लेखक को स्वीकार्य नहीं. वहीँ एक लेखक यदि दूसरे लेखक के लेखन के विषय में कुछ कह दे तो भी तलाक निश्चित है. ऐसे में गिने चुने ही लेखक बचते हैं जो दूसरे लेखकों को पढ़ते हैं.

 सबके पास अपना एक दोस्तों का गुट होता है, वही पढ़ते हैं, वही सराहते हैं और आगे बढ़ जाते हैं. कुछ अन्य ग्रुप के लेखक यदि किसी लेखक को पढ़ते हैं तभी वह लेखक भी उस लेखक को पढता है यानि आदान प्रदान का दौर है ये जहाँ यदि आप किसी को पढेंगे तभी वह आपको पढ़ेगा. अब होता यह है कि जैसे ही किसी लेखक की कोई नयी किताब आती है बधाइयों का तो तांता लग जाता है लेकिन किताब पढने वालों का या तो अकाल पड़ जाता है या फिर उन पर पाला पड़ जाता है जब कोई यदि पाठक हो, वह भी लेखन के क्षेत्र में अपनी टांग अड़ा दे. सब एक दूसरे तक अपनी किताब की सूचना पहुंचाने में लग जाते हैं. कुछ जो पढना चाहते हैं खरीद लेते हैं, पढ़ भी लेते हैं लेकिन उस पर कुछ कहते नहीं क्योंकि उन्हें अपने गुट से निष्कासित नहीं होना होता. वहीँ कुछ हाँ जी हाँ जी कहते हुए उसी गाँव में रहने लगते हैं लेकिन न खरीदते न पढ़ते. अब ऐसे में शिकायतों का दौर अपने चरम पर रहता है. 

कुल मिलाकर इतना सब कहने का बस यही हेतु है यदि आप स्वयं को पढवाना चाहते हैं, आप भी लेखक हैं तो आपको भी पाठक बनना होगा, औरों को पढना होगा अन्यथा एक दिन सभी अपनी अपनी ढपली और अपना अपना राग बजाते रह जायेंगे क्योंकि मूर्ख यहाँ कोई नहीं है. सभी रोटी खाते हैं तो इतनी अक्ल तो रखते ही हैं कि आप हमें पढेंगे तभी हम आपको पढेंगे, आप हम पर लिखेंगे तभी हम आप पर लिखेंगे और यदि गलती से आपने किसी किताब पर कुछ न कहा तो हम आपका बहिष्कार कर देंगे फिर आप चाहे कितना ही अच्छा लिखते हों, सारे पुरस्कारों सम्मानों से आपका दामन भरा हो. 

बाकी कुछ ऐसे भी हैं जो स्वयं लेखक होते हैं और बेचारे इस आस पर दूसरों को पढ़ते हैं शायद वो भी हमें पढ़े और दो शब्द हम पर कहे लेकिन उसके सभी प्रयत्न व्यर्थ चले जाते हैं और वे बेचारे आसमान के तारे गिनते ही रह जाते हैं. 

जब ऐसा लेखन का दौर चल रहा हो वहां साहित्य की गति की किसे चिंता. पहले अपनी चिंता कर ली जाए और जीते जी मोक्ष प्राप्त कर लिया जाए, उसके बाद देख लिया जाएगा साहित्य किस चिड़िया का नाम है. आज का दौर नयी भाषा, नए शब्द, नयी विधा गढ़ने का दौर है इसलिए जो भी लिखेंगे सब मनवा लेंगे, स्वीकार करवा लेंगे, वे जानते हैं. बस पहले अपनी गोटी सेट कर ली जाए फिर तो पाँचों घी में ही रहेंगी इसलिए बस यही अंतिम पहलू बचा है जिस पर आज बुद्धिजीवी काम करने में जुटे हैं वर्मा जी.

शर्मा जी: ओह! यानि अब हमें भी इस मार्ग पर चलना पड़ेगा?

वर्मा जी: यह तो आप पर निर्भर करता है कछुआ रहना है या खरगोश. बाकी इस डगर पर चलने के लिए अब आप सोचिये आपको क्या बनना है केवल लेखक या साथ में पाठक भी ...इसलिए जो हाथ में हैं उन्हें बचा सको तो बचा लो. 


डिस्क्लेमर: पिछले कई महीनों से बहुत से लेखकों से बात हुई और उनकी पीड़ा जानी समझी तो सोचा उस पर कुछ प्रकाश डाल दिया जाए संभव है किसी का मार्गदर्शन हो, किसी को राहत मिले और कोई यह पढ़कर और खफा हो ले लेकिन अपुन क्या करें जी साहित्य जगत की सेहत दुरुस्त करने के लिए लेखनी कभी कभी पंगे लेने से चूकती ही नहीं - इसे भी ऊँगल करने में ही मज़ा आता है - हाँ नहीं तो 😜😜😎😎