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शनिवार, 26 दिसंबर 2015

कांच के शामियाने - मेरी नज़र में


 
चाहती तो यही थी कि कहीं पहले छप जाए उसके बाद ही यहाँ लगाऊँ लेकिन आज का दिन रश्मि की ज़िन्दगी का ख़ास दिन है और हम तो पुराने मित्र हैं ब्लोगिंग के वक्त के तो लगा इससे बेहतर और क्या तोहफा दे सकती हूँ अपनी मित्र को , रश्मि जन्मदिन की ढेरों शुभकामनाओं के साथ यही दुआ तुम्हारा लेखन अनवरत जारी रहे . ये लीजिये रश्मि के पहले उपन्यास पर मेरी प्रतिक्रिया :


जो उपन्यास चार पांच साल पहले किश्तों में पढ़ा हो और छपकर आने के बाद एक दिन में अपने आपको पढवा ले तो कोई तो बात होगी न उसमे . न केवल कहानी बल्कि लेखन कौशल भी अपने चरम पर ही होगा तभी आप इतनी शिद्दत से उसे दोबारा पढ़ सकते हैं क्योंकि एक बार पढ़ी चीज दोबारा इतनी जल्दी नहीं पढ़ी जाती खासतौर से कहानी या उपन्यास जब तक आप भूल न गए हों . और ऐसा ही हुआ ‘ कांच के शामियाने ‘ उपन्यास के साथ जो हिन्द युग्म से प्रकाशित लेखिका रश्मि रविजा का पहला उपन्यास है .


ऐसा कम ही हुआ कि कुछ पढ़ा हो और उसके बारे में लिखने की इतनी उत्कंठा हो कि दिल चाहे पूरा पढने से पहले ही आप लिखने बैठ जाओ . हर पात्र पाठक के दिलो – दिमाग को इतना बेचैन किये रहते हैं कि पाठक मन चैन नहीं पाता बिना कुछ कहे . पात्रों की बुनावट , चरित्र जैसे हर किरदार अपनी जगह पर कायम जिसे न जबरदस्ती ठूँसा गया और न ही निकाल सकते . लेखिका का पहला उपन्यास होते हुए भी एक मंजे हुए कथाकार की तरह कसी बुनावट , प्रवाहमय शैली और भावनाओं के आवेग का ऐसा तारतम्य है कि कोई अंदाज़ा नहीं लगा सकता कि लेखिका एक नवोदित लेखिका है .

आदिकाल से स्त्री के दुःख दर्द लिखे जाते रहे और आज भी लिखे जा रहे हैं , जाने कब ये सिलसिला ख़त्म होगा और वो वक्त आएगा जब स्त्री के सिर्फ कौशल और दृढ व्यक्तित्व पर कहानियां और उपन्यास लिखे जायेंगे क्योंकि स्त्री को दुःख और दर्द का मानो प्रतीक ही बना दिया गया है और उससे इतर उसका कोई व्यक्तित्व ही नहीं लेकिन आज भी स्त्री की दशा में कोई खास फर्क नहीं आया तो एक कथाकार आखिर करे क्या सिवाय उसके दर्द को अपनी कलम द्वारा अभिव्यक्त करने के फिर वो किरदार कहीं से भी लिया हो चाहे समाज से चाहे खुद के निजी जीवन से चाहे सखी सहेली के जीवन से और ये उपन्यास पढ़ते हुए भी ऐसा ही लगा मानो किसी के जीवन का सच्चा चित्रण हो .

उपन्यास पढ़ते हुए पाठक इतना डूब जाता है कि उसे घटनाएँ और पात्र चलचित्र पर चलती फिल्म के दृश्य से लगते हैं . पाठक के दिल दिमाग में एक औरा सा बन जाता है और वो उसी के परिदृश्य में पूरी कहानी को आँखों के आगे घटित होते हुए देखने लगता है जो किसी भी कुशल कथाकार की लेखनी की सबसे बड़ी सफलता है और इसके लिए लेखिका बधाई की पात्र है .

अब बात करते हैं कहानी की तो जया जो मुख्य पात्र है कहानी की मानो समूचा स्त्री विमर्श उसी में समाया है . त्याग और सहनशीलता की प्रतिमूर्ति के साथ हौसला और दृढ इच्छाशक्ति की भी धनी है .

बिहार के परिदृश्य में कहानी आकार लेती है तो देशज भाषा ने उसमे चार चाँद लगा दिए . एक लड़की जब अपनी यौवन की दहलीज पर होती है तो सपने आकार लेते हैं मगर जिन लड़कियों के सिर पर पिता का साया असमय उठ जाता है वो अपने सपनों को मन की डिबिया में बंद कर देती हैं ऐसा ही किरदार जया का है . एक आम लड़की की तरह सहज जीवन यापन करने वाली और अपनी जिम्मेदारियों को समझने वाली . जीवन में कुछ कर गुजरने का हौसला रखने वाली नहीं जानती थी कि वक्त कब और कैसे करवट बदलता है कि एक पल में जीवन बदल जाता है और उसका भी जीवन राजीव के आने से बदल गया जो कुंठित और जिद्दी सोच का मालिक है और एक बार जो ठान ले उसे करके ही दम लेना उसकी प्राथमिकता में शामिल हो जाता है जो यही सिद्ध करता है कि ज्यादा लाड प्यार किस हद तक बच्चों के जीवन को बर्बाद कर देता है न वो खुद चैन से जी पाते हैं न साथ रहने वालों को जीने देते हैं , अपना जीवन तो बर्बाद करते ही हैं , अपने अपनों का भी बर्बाद कर देते हैं और किसी के भी हाथ कुछ नहीं लगता . राजीव जैसे चरित्र हमारे आस पास ही विचर रहे होते हैं जो अपनी झूठी शान के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं वहीँ अपने बीवी बच्चों को एक एक पैसे के लिए मोहताज रखते हैं वहीँ अपने उच्च ओहदे का गुमाँ उनके इस स्वभाव को पोषित करने में और सहायक सिद्ध होता है . दोगला चेहरा रखे ये लोग बाहरवालों के सामने इतने शरीफ होते हैं कि कोई भी उनसे सहानुभूति रखने लगे और दूसरे को दोषी समझने लगे और ऐसा ही राजीव करता रहा जया के साथ यहाँ तक कि बच्चों के साथ भी , खुद को बेचारा साबित करने का कोई मौका नहीं छोड़ता वहीँ जया को बहुत ख़राब साबित करने से भी नहीं चूकता और सामने वाला भी यही सच समझता . खुद को हीरो और दूसरे को विलेन सिद्ध करना इनके बाएं हाथ का खेल होता है और इसी का फायदा राजीव तमाम उम्र उठाता रहा .
जया को जबरदस्ती पाने की जिद ने न केवल राजीव की बल्कि सभी की ज़िन्दगी बर्बाद कर दी . यदि इसके भीतर झांको तो पता चलेगा कि आखिर ऐसा हुआ क्यों ? जब राजीव के घरवालों का रहन सहन बोलचाल देखो तो पता चलता है ऐसा विषवृक्ष किस बीज की उपज है जहाँ कोई किसी से कम नहीं . उनके लिए पैसा ही प्रमुख है . तीन बहनों और एक भाई में सबसे छोटी जया के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ी गयी तब भी वो उस दंड की सजा तमाम उम्र पाती रही जो उसने किया ही नहीं . किसी लड़के से बात न करना या उससे शादी के लिए इंकार कर देना क्या इतना बड़ा गुनाह है कि उसे उम्र भर के लिए उम्र कैद दे दी जाए बिना किसी सुनवाई के जैसा कि आजकल हो रहा है अक्सर लड़की द्वारा मना करने पर उस पर कभी तेज़ाब फेंक दिया जाता है या फिर गोली मार दी जाती है और ऐसा ही चक्रव्यूह राजीव रचता है और फिर उसे न केवल मानसिक रूप से बल्कि शारीरिक रूप से भी प्रताड़ित करता है , यहाँ तक कि शारीरिक संबंधों में भी एकाधिकार की भावना के साथ वो ही पितृ सत्तात्मक सोच का हावी होना कि औरत तो होती ही मर्द की जड़ खरीद गुलाम है या ये तो स्त्री का कर्तव्य है पुरुष को शारीरिक सुख दे बेशक वो बीमार हो या अभी कुछ देर पहले उसे बुरी तरह कूटा गया हो या उसके पैर जल गए हों मगर मर्द की भूख शांत होनी जरूरी है मना करने पर सास द्वारा भी उसे ही दोषी सिद्ध कर देना एक नारी के जीवन का सबसे दुखद पहलू है कि कैसे एक स्त्री ही दूसरी स्त्री की दुश्मन बन जाती है जिसे अपने बेटे और पैसों के सिवा कुछ नहीं दिखता . वहीँ ससुर भी पैसे का इतना पुजारी कि एक दिन उसे जान से मारने के लिए बेटे को ही प्रोत्साहित कर दे और फिर दूसरी शादी करने के लिए कह दे वहां कैसे उम्मीद की जा सकती है राजीव जैसे करैक्टर से किसी सकारात्मकता की या उसकी अच्छी सोच की . कहीं न कहीं उसके घर का माहौल और उनकी सोच ही उसके व्यक्तित्व के विकास में शामिल रही और रही सही कसर उसकी दादी के लाड प्यार में जिद्दी बना देने ने पूरी कर दी , जो यही सिद्ध कर रहा है कहीं न कहीं न केवल पूरा पारिवारिक माहौल बल्कि पीढ़ी दर पीढ़ी औरतों का उसी सोच को पोषित कर देना इसमें शामिल है वर्ना जिस सास ने ऐसा कुछ भुगता हो कम से कम उससे उम्मीद नहीं की जाती कि वो अपनी बहू के साथ ऐसा कुछ करेगी लेकिन ये कुछ कुंठित सोच हैं जिन्होंने खून में ऐसे जड़ें जमा ली हैं कि चाहकर भी बाहर नहीं आ पातीं और वो ही व्यवहार करती हैं जो उन्होंने खुद सहा है बल्कि उससे भी ज्यादा बेरहम हो उठती हैं . वैसा ही देवर और ननद सिवाय छोटे देवर संजीव के क्योंकि वो अभी बच्चा है और गलत और सही के दृष्टिकोण से सब देखता है और वो ही एक सहारा बनता है वहां जया का लेकिन उसकी भी अपनी सीमाएं हैं ऊपर से राजीव का खौफ पूरे परिवार में एक दहशत की तरह व्याप्त है ऐसे माहौल में बच्चे के आने की उम्मीद में ये सोचना कि शायद अब सब सही हो जाए , कोई गलत नहीं मगर वहां सब गलत है क्योंकि बच्चा पैदा होने पर हक़ बन जायेगा उसका और उससे उन्हें छुटकारा नहीं मिलेगा इसलिए इसके बच्चे को मार दो या इसे ही , ऐसी सोच हो जहाँ , ऐसा विषाक्त वातावरण हो जहाँ वहां कैसे जीवन आकार ले सकता है ? मगर ले सकता है जब एक स्त्री जो असहाय लाचार बेबस का जीवन जी रही होती है जब अपने बच्चे के आने की आहट पाती है तो उसे बचाने की शक्ति भी जाने कहाँ से उसमे आ जाती है और वो हर अत्याचार सह जाती है सिर्फ अपने बच्चे के लिए और ऐसा ही जया के साथ हुआ . जहाँ उसने जगह जगह अपने हौसले का परिचय दिया बेशक सारे ज़माने के दुःख दर्द झेले मगर कमज़ोर नहीं पड़ी , यही जिजीविषा उसे बचाए रही .

एक दूसरा पहलू जो इस उपन्यास में उभर कर आया है वो हमारी सामाजिक मानसिकता है चाहे कितना ही आधुनिक होने का दंभ भरें या कितना ही पढ़े लिखे हों , यहाँ की कुंठित सोच , दकियानूसी विचार नहीं बदलते फिर चाहे राजीव हो या जया के परिवार वाले . जया के परिवार की सोच लड़का पढ़ा लिखा है , कलेक्टर है तो ब्याह दो कोई जांच पड़ताल नहीं करो और उसके बाद भी उसे ही सहने को विवश करते रहो ये कह कि स्त्री तो होती ही सहने के लिए है , सभी स्त्रियाँ करती हैं , जया की माँ की वो ही दकियानूसी परंपरागत सोच और अत्यधिक सीधापन उनकी अपनी ही बेटी के लिए भारी पड़ता रहा यहाँ तक कि जब वो सब छोड़कर आ गयी तब भी माँ उसे खुलेमन से स्वीकार नहीं पायी . ‘मर्द तो गुस्सा हो ही जाते हैं तो क्या हुआ’ वाली सोच से वो खुद को मुक्त नहीं कर पायी बेशक अंत आते आते सोच उनकी बदली लेकिन उनकी इसी सोच के कारण जया ने ये सब झेला यदि घर से उसे सहारा मिलता तो उस नरक को वो कब का छोड़ चुकी होती लेकिन जब एक स्त्री के लिए सारे दरवाज़े बंद हो जाते हैं तब या तो घुट घुटकर सहने को विवश होती है या फिर वो जब अत्याचार सहने में असमर्थ हो जाती है तो अपनी जीवन लीला ही समाप्त कर लेती है . वहीँ राजीव जो कलेक्टर तो बेशक बन गया मगर अपनी दकियानूसी सोच से बाहर नहीं आ पाया . कहते हैं शिक्षा जीवन में उजास भर देती है लेकिन अक्सर शिक्षा भी ऐसे अमर्यादित संस्कारों के आगे हार जाती है क्योंकि सब कुछ बदल सकता है इंसान का स्वभाव नहीं बदल सकता और अपने अहम् को पोषित करने के लिए राजीव द्वारा हर संभव प्रयत्न किये गए कि एक भी पल जया सुख की साँस न ले सके . जब तक साथ थी तब भी और अलग होने के बाद भी , न तलाक दिया न उसे चैन से रहने दिया , जो यही दर्शाता है पुरुष के लिए स्त्री सिर्फ खिलौना है और उसको प्रमाणित जया की अलग होने के बाद वाली ज़िन्दगी करती है जब भी कहीं नौकरी की और राजीव की वजह से जब लोगों को उसके बारे में पता चला तो सबने उसका किसी न किसी तरह शोषण ही करना चाहा , उसे आसानी से उपलब्ध समझा . सभी पढ़े लिखे ऊंचे ओहदों पर लेकिन सोच और विचारों से वो ही एक आम स्त्री देह लोलुप ही थे फिर छोटे शहर में हों या बड़े में . ये मानसिक विकृति यदि राजीव में भी थी तो कौन सी उनसे जुदा थी औरों की ढकी हुई थी और उसकी सामने आ गयी थी वर्ना अन्दर से सारा पुरुषवर्ग एक सा ही होता है मानो लेखिका यही कहना चाह रही हों .

वहीँ एक पति से अलग रहने वाली स्त्री को न केवल पुरुष वर्ग बल्कि स्त्रियाँ भी गलत नज़र से ही देखती हैं फिर चाहे वो बड़े ऑफिसर की पत्नियाँ हों या ठेठ दकियानूसी समाज और ऐसा ही जया के साथ होता रहा , हर जगह . साथ ही कानूनी लड़ाई , बच्चों की कस्टडी और राजीव से बच्चों का खर्चा लेना हो , सब साथ साथ चलते रहे और उस समय कैसी समस्याएं सामने आयीं उन पर भी लेखिका ने बाकायदा नज़र डाली यहाँ तक कि अंत में जया का वकील तक उसे प्राप्य समझने लगा तो दूसरी तरफ पुलिस में फैले भ्रष्टाचार का भी पर्दाफाश किया फिर वो स्त्री हो या पुरुष सब पैसे और रसूख के आगे झुकते हैं ऐसे में एक स्त्री खुद को कितना असहाय और निसहाय पाती है ये वो ही समझ सकती है लेकिन जया ने खुद का हौसला नहीं खोया और अपने बच्चों को भी एक मुकाम दिलाया तो साथ भी लेखन के माध्यम से एक ऐसा मुकाम पाया जिसका उसने कभी सपना भी नहीं देखा था , सोचने पर विवश करता है यदि स्त्री चाहे तो अपनी कमजोरियों पर विजय प्राप्त कर एक उच्च मुकाम पा सकती है .
ये उपन्यास स्त्री विमर्श का जीवंत उदाहरण इसी वजह से है क्योंकि यहाँ स्त्री अपनी कमजोरी पर विजय प्राप्त करती है न कि ‘नीर भरी दुःख की बदरी’ बन कर रह जाती है और यही है सार्थकता किसी भी विमर्श की जब वो मुकाम पाए न कि उसे अधूरा छोड़ दिया जाए उसके दर्द के साथ , जो कि आज तक हम पढ़ते आये हैं अक्सर कहानियों और उपन्यासों में और फिर चाहते हैं स्त्री ऐसी ही बनी रहे लेकिन यहाँ लेखिका ऐसा नहीं चाहती जो उसकी प्रगतिशील सोच को दर्शाता है साथ ही वो चाहती है कि स्त्री सशक्त बने और सबके लिए एक उदाहरण ताकि आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्त्रोत बन जगमगाये .

एक ख़ास बात , इस उपन्यास पर बहुत ऊँगलियाँ उठेंगी क्योंकि ये समाज पुरुष प्रधान है ऐसे में एक स्त्री की दुर्दशा इतनी बेबाकी से आखिर लेखिका ने लिख कैसे दी , हलक से नीचे नहीं उतरेंगी सच्चाइयाँ ........सब कुछ जानते समझते भी लोग इसकी परतें उखाड़ना चाहेंगे .........लेकिन रश्मि बधाई की पात्र है जो उसने इतनी हिम्मत की और समाज के नकाब को उतारने की कोशिश की .........कैसे दोगले चेहरे आस पास नुमाइंदा हैं , हम जानते हुए भी चुप रहते हैं अक्सर . ये उपन्यास पुरुष के हलक में ऊँगली डाल उसका मुखौटा उगलवाने वाला है . पितृ सत्तात्मक सोच पर कड़ा प्रहार है तो हो सकता है लेखिका को नकारने की एक सोची समझी साजिश भी बुनी जाए मगर यहीं हौसलों को उसे उड़ान देनी होगी तभी साहित्य जगत में अपनी लेखनी को मुकाम दिलवा पाएगी क्योंकि अस्वीकार्यता या नकारात्मकता ही सफलता की पहली सीढ़ी होती है .

लेखिका रश्मि रविजा की लेखनी के तो हम शुरू से कायल रहे मगर अब तक टुकड़ों में पढ़ते रहे मगर अब जब प्रिंट में आया तो लगा कि हाँ , लेखनी हो तो ऐसी जो पाठक को ऐसे बाँध ले कि जब तक पूरा न पढ़ ले कोई काम न कर सके . यहाँ तक कि जितनी बार पढ़े कभी असहजता महसूस न करे बल्कि हर बार मंत्रमुग्ध हो पढता चला जाए . लेखिका के लेखकीय जीवन के लिए ढेरों शुभकामनाएं , उनकी कलम निर्बाध रूप से चलते हुए समाज को सदा दिशा प्रदान करती रहे .


शनिवार, 12 दिसंबर 2015

यूँ ही कभी कभी ...

कि
सुलग रही हैं आजकल
खामोशियाँ मेरी
और
जलने के निशान ढूँढ रहे हैं
जिस्म मेरा

जाने क्यूँ
रूह की खराश से
बेदम हुआ सीना मेरा

कि
बंदगी का ये आगाज़ था न अंजाम
फिर भी
गुनहगार है कोई नाखुदा मेरा

सोचती हूँ यूँ ही कभी कभी ...


बुधवार, 2 दिसंबर 2015

यूँ ही तन्हा तन्हा

गुजर गयीं मेरे अन्दर
जाने कितनी सदियाँ
यूँ ही तन्हा तन्हा

जाने कौन सी तलाश है
जो न तुझ तक पहुँचती है
और न ही मुझ तक

कि आओ
बेखबर शहरों तक चलें दोनों
यूँ ही तन्हा तन्हा
बनकर डोम अपने अपने कब्रिस्तान के

यूँ के क्या कहूँ इसे
इंसानी नियति या फिर ... ?

गुरुवार, 26 नवंबर 2015

दुष्कर उपालंभ

जब चुक जाएँ संवेदनाएं
रुक जाएँ आहटें
और अपना ही पतन जब स्वयमेव होते देखने लगो
मान लेना
निपट चुके हो तुम

गिरजों के घंटे हों
मंदिरों की घंटियाँ
या मस्जिद की अजान
सुप्त पड़ी नाड़ियों में नहीं किया करतीं
चेतना का संचार

ये घोर निराशा का वक्त है
चुप्पियों ने असमय की है आपातकाल की घोषणा
और उम्र कर रही है गुरेज
मन के बीहड़ों से गुजरने में

ऐसे में
मन बहुत थका थका है
इस थके थके से मन पर
कौन सा फाहा रखूँ
जो सुर्खरू हो जाए उम्र मेरी
क्योंकि
जुगाली करने को जरूरी होता है दाना पानी

'आशावाद' आज के समय का सबसे दुष्कर उपालंभ है ...

शनिवार, 21 नवंबर 2015

मैंने हदों से कहा

1
मैंने हदों से कहा
मत चिंघाडो
कि लांघने को मेरे पास दहलीज ही नहीं 


पत्थरों के शहर में
पत्थरों के आइनों में
पत्थर सी हकीकतें ही तो नज़र आएँगी 


ये मेरी
बेअदबी मोहब्बत का जूनून नहीं
जो सिर चढ़कर बोले ही 


कि आज
शहर में झंझावात आया है
और डूबने को मैं कहीं बची ही नहीं 


और दिल है कि गुलफाम हो रहा है .........


2
तेरी यादों से बात करूँ कि तुझे याद करूँ
दिल की बेचैनियों को कैसे आत्मसात करूँ




चुप्पी को घोंटकर पी गयी
ज़िन्दगी कब का लील गयी




मंगलवार, 17 नवंबर 2015

शब्द भर ही

मोहब्बत के
वृहद् और विस्तृत अर्थों में से
कौन सा अर्थ चुनूँ अपने लिए
जो किसी एक में समा जाए सारी कायनात की मोहब्बत

वैसे सुना है
मोहब्बत सोच समझ कर नहीं की जाती
मगर मुझे तो आदत है
हर लकीर को आड़ा काटने की
तो
मोहब्बत मेरे दिमाग का फितूर ही सही
चलो इस बार फितूर को ही आजमा लूं

दिल तो वैसे भी बंदगी का दीवाना है
और मेरे पास
न प्रेमी है न कृष्ण

और शायद इसीलिए
मेरे निरामय निपट अंधेरों में
मोहब्बत का
सिर्फ शब्द भर ही अस्तित्व रहा...

शुक्रवार, 13 नवंबर 2015

शून्य निरर्थक नहीं .......

शून्य पर खड़ा होता है जब एक कवि
आउट होने के डर से परे
खींचने लगता है एक हाशिया
उस तरफ की जमात के लिए

यूँ बेसबब नहीं है शून्य भी
जानता है वो शून्य का महत्त्व

बस तमाम वर्जनाओं से अवगुंठित हो
बनाने लगता है एक गुंथी हुई माला
ताकि सनद रहे
इस तरफ और उस तरफ के मध्य
खिंची खाइयों में भी
बचे होते हैं कविता के अवशेष

और अमर होने के लिए काफी है अवशेषों का होना ही
क्योंकि
शून्य निरर्थक नहीं .......

गुरुवार, 5 नवंबर 2015

ये हैं अच्छे दिन

ये है सुशासन
तुम्हें पता नहीं
ये हैं अच्छे दिन
ये है विकास का मूल मन्त्र

घर बाहर
गाँव नगर
चुप रहना है तुम्हारी नियति
सिर्फ सिर झुकाने की अदा तक ही
तुम्हारी कर्मस्थली
गर बोलोगे
घर से बाहर कदम रखोगे
मिलोगे एक दूसरे से
हम तालिबानी बन जायेंगे
तुम चीखते रहना
कहीं न सुनवाई होगी
न्याय की दहलीज पर ही
तुम्हारी हजामत होगी

चुप हो जाओ नहीं तो करवा दिए जाओगे
धर्म के नाम पर चिनवा दिए जाओगे
कब चुपके से हालाक कर दिए जाओगे
पता भी न चलेगा
फिर चाहे कलबुर्गी हों या पानसरे या आम आदमी .........

कुछ भी कहने और करने की आज़ादी
सिर्फ उन्हें और उनके गुर्गों को है ......तुम्हें नहीं 
क्या इतना सा तथ्य भी नहीं जानते
देश में अराजकता हो या धार्मिक उन्मादी माहौल
यही तो है हमारी पहली पहल
किसी भी कीमत पर खुद को साबित कर दें
और दुनिया हमें सबसे ताकतवर इंसान की श्रेणी में स्थान दे दे ..............

मुफ्त में कुछ नहीं मिला करता
इसलिए प्यारों
सुशासन और अच्छे दिन की कुछ तो कीमत तुम भी चुकाओ
उनके दिखाया चश्मा ही लगाओ 
तभी सहज जीवन जी पाओगे  
फिर सिर झुकाए सिर्फ यही चिल्लाओगे
ये हैं अच्छे दिन 
ये हैं अच्छे दिन 
ये हैं अच्छे दिन 


सोमवार, 2 नवंबर 2015

जब तक सत्ता निरंकुश है .......

आश्वस्त हूँ
अपने मानवाधिकार से
और मुझसे परे भी
क्या जरूरत होती है
किसी को किसी और अधिकार की .......जरा सोचिये !!!

मानवाधिकार
मेरा कवच
मेरी सुरक्षा का बीजमंत्र
तो क्या हुआ
कल कर दूं मैं तुम्हारे ही अधिकारों का हनन
ये है मेरा विकल्प .......

मानवाधिकार
एक शब्द भर
और शब्दों का अक्सर हो ही जाता है बलात्कार
तो क्या हुआ
जो इसकी आड़ में
हो जाए सम्पूर्ण सभ्यता बलात्कृत
ये है आज का सच

तब से सोच में हूँ
मानवाधिकार
ओढ़ा हुआ शब्द है
या बिछाया हुआ बिछौना
जो
बच्चे के गीले करने भर से हो जाता है निष्कासित
या फिर
किसी कुँवारी लड़की के सिर से
चुनरी ढलकने भर से
हो जाता है अपमानित
या फिर मैं हूँ
अपने ही हाथों अपना खून बेचता दलाल

न न , आम आदमी हूँ मैं
जिसके कोई नहीं होते मानवाधिकार
कम से कम तब तक
जब तक सत्ता निरंकुश है .......

शनिवार, 24 अक्तूबर 2015

भारतकोश पर

अभी अभी प्राप्त सूचना के अनुसार , ' भारतकोश ' पर मुझे और मेरी रचनाओं को भी जगह मिली है जिसके लिए मैं रश्मि प्रभा दी और भारतकोश के संचालक आदित्य चौधरी जी और आशा चौधरी जी की तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ . 

मित्रों यहाँ मेरी अध्यात्म और दर्शन से जुडी रचनाएँ आपको पढने को मिलेंगी 

जहाँ मेरे अलावा भारतीय अध्यात्म से सम्बंधित आदिकाल से लेकर आधुनिक कवियों को भी आप पढ़ सकते हैं .

http://hi.bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%B5%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A4%A8%E0%A4%BE_%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BE

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2015

जरा सोचिये ............



जरा सोचिये ............
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धर्म निरपेक्ष देश होते हुए धार्मिक असहिक्ष्णुता का माहौल अचानक से बन जाना एक संदेह को जन्म देता है . पिछले डेढ़ साल में ऐसा क्या हुआ जो अचानक हर जगह सिर्फ हिन्दू मुस्लिम में बांटा जा रहा है जनता को ? उससे पहले इतनी शांति थी कि कोई सोच भी नहीं सकता था कि यहाँ हिन्दू और मुस्लिम दो कम्युनिटी रहती हैं . यहाँ तक कि जब बाबरी मस्जिद पर फैसला आया था तो लगता था जाने कितना बड़ा बवाल हो जाएगा देश में लेकिन दोनों ही धर्मों के लोगों ने उसका ने केवल स्वागत किया बल्कि भाईचारे और धैर्य का भी परिचय दिया . फिर अचानक से ऐसा क्या हुआ जो आज ऐसा माहौल बन गया है कि देश सिवाय इस मुद्दे के और कोई मुद्दा ही नहीं बचा ?

ये बात सोचने वाली है आखिर क्यों कभी मुजफ्फरपुर कभी दादरी में दंगे होते हैं तो कभी कलबुर्गी , पंसारे आदि की हत्या ? क्या अब लोग असहिष्णु हो गए हैं ? क्या अब अचानक उनमे अपने धर्म के प्रति ज्यादा मोह उत्पन्न हो गया है ? या आज ही ज्यादा धार्मिक हो गए हैं ?

लोगों से बात करो तो वो कहते हैं सब राजनीति है . आम इंसान ऐसा कुछ नहीं चाहता . दोनों ही अमनोचैन से रहें बस यही चाहते हैं तो क्या उनका कहना सही है ? क्या सिर्फ सियासत की बिसात बिछाने को इतनी घिनौनी चालें खेली जा रही हैं जिनमे आम आदमी मोहरे बना हुआ है ? उसकी जान के कीमत पर इतनी घटिया चाल चलना क्या शोभा देता है ?

अगर राजनीति भी है तो प्रश्न उठता है कौन करा रहा है ये सब ? पक्ष विपक्ष एक दुसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगा रहे हैं . कांग्रेस कहती है बीजेपी और संघ के इशारे पर हो रहा है और वो कहते हैं कांग्रेस के . तो सुनने के बाद लगता है कहीं न कहीं कोई न कोई पार्टी तो ऐसा कर ही रही है जो नहीं चाहती देश में अमन रहे जनता खुशहाल रहे . बात फिर वहीँ आती है घूमफिरकर कि क्या मोदी के आने से ऐसा हुआ या उन्हें फ्रेम किया जा रहा है क्योंकि उनके नाम के साथ गोधरा काण्ड चिपका हुआ है . साथ ही जिस तेजी से वो विकास के रास्ते देश के लिए बना रहे हैं , सभी देशों से मिलकर भारत का नाम सारे संसार में ऊंचा करने में लगे हैं , ये देख कुछ राजनैतिक पार्टियों को सोचना पड़ गया कि यदि ये इन पांच सालों के बाद अगले पांच साल भी रह गया तो हमारा तो कोई नामलेवा भी नहीं रहेगा इसलिए और कुछ नहीं तो इसी आग को फैलाया जाए क्योंकि किसी भी देश या व्यक्ति को खोखला करने के लिए धार्मिक असहिष्णुता का माहौल बनाना सबसे आसान है और उस पर अपनी राजनीति की रोटियां सेंकना और भी आसान .

दूसरी तरफ ये भी नहीं कहा जा सकता कि जो सत्ता में काबिज हैं वो पूरी तरह दूध के धुले हैं . अब दाग तो दाग है और लगा भी है कोई दोषी मानता है कोई निर्दोष ऐसे में ऊंगली उन पर भी उठती है साथ ही संघ पर भी . शायद देश को सिर्फ हिन्दू राष्ट्र बनाने की मुहीम की ओर अग्रसर हों ये पार्टियाँ या फिर सिर्फ चुनाव जितने के लिए करवाए जा रहे उपद्रव हों .............मगर चाहे जो हो , चाहे पक्ष का हाथ हो या विपक्ष का मगर उसमे नुक्सान आम आदमी का हो रहा है . वो समझ नहीं पा रहा ऐसे में कौन सही है और कौन गलत यहाँ तक कि इस विरोध में जब साहित्यकारों का एक धडा शामिल हो गया तो वो भी आरोपों की राजनीति से मुक्त न रह सका जबकि साहित्यकार अपने समय को रचता है तो अपनी तरह विरोध करने का भी हकदार है कोई कलम से करता है तो कोई पुरस्कार वापसी से तो ऐसे में उन पर ही तोहमतों की राजनीति खेली जा रही है जो किसी भी दृष्टिकोण से सही नहीं है . साहित्यकार सिर्फ इतना चाहता है कि उसे देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिले और यदि उस स्वतंत्रता पर उसका ही क़त्ल होने लगे तो विरोध लाजिमी है क्योंकि साहित्यकार न हिन्दू होता है न मुस्लिम वो समाज का आइना होता है जो देखता है वो ही उसकी कलम लिखती है , इंसान है तो आहत भी होता है जब अति होने लगती है तो कैसे खुद को सिर्फ अपने लेखन तक ही सिमित रख सकता है और जब विरोध करने लगता है तो उस पर भी आरोप प्रत्यारोप लगने लगते हैं कि ये फलानी पार्टी के हैं ये ढिमकानी पार्टी के जबकि वो विरोध कर रहा है तो अपनी आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए ताकि उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिल सके ऐसे में सारा साहित्यिक समाज भी साथ नहीं देता क्योंकि राजनीति की जड़ें काफी गहरे तक धंसी हैं . क्या ये सोचने वाली बात नहीं है कि राजनीति हर क्षेत्र में इस हद तक व्याप्त है कि कोई अपना स्वतंत्र निर्णय नहीं ले सकता और लेता है तो या तो मार दिया जाता है या आरोपित हो जाता है ? ये कैसा माहौल बन गया अचानक ? इतनी अराजकता पहले तो न थी तो अभी अचानक ऐसा क्या हुआ जो कोई भी खुद को कहीं सुरक्षित नहीं पा रहा ?
जरा सोचिये ............

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2015

शक्ति है तो विध्वंस भी

शब्दविहीन होना
मानो आत्मा विहीन देह
मौन के पिंजर में कैद हो
और अंतस में
कुलबुलाहट का कृष्ण बांसुरी बजाता
जाने किस राधा को रिझाता हो

ये ढकोसलों की सांझें कितनी निर्मोही हैं
कि
साझे दुःख सुख पर भी पहरे बिठा दिए

अब कोई कितना भी
कबीर की साखी सूर के पद मीरा का गायन नृत्यन करे
बंद दरवाज़े किसी थाप के मोहताज नहीं

मौन
शक्ति है तो विध्वंस भी न

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2015

बुजुर्ग : बोझ या धरोहर


केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड द्वारा प्रकाशित "समाज कल्याण" पत्रिका (महिला एवं बाल विकास मंत्रालय,भारत सरकार की मासिक पत्रिका) के अक्टूबर अंक2015 में प्रकाशित मेरा लिखा आलेख : बुजुर्ग : बोझ या धरोहर

श्री ‪#‎kishoresrivastav‬ जी व संपादन मंडल का हार्दिक आभार






आज के भागादौड़ी वाले समय में मानवीय संवेदनाओं की चूलें किस हद तक हिल गयी हैं कि बुजुर्ग हमारे लिए हमारी ‘धरोहर हैं या बोझ’ पर सोचने को विवश होना पड़ रहा है जो यही दर्शा रहा है कि कहीं न कहीं कोई न कोई कमी पिछली पीढ़ी के संस्कारों में रह गयी है जो आज की पीढ़ी उन्हें वो मान सम्मान नहीं दे पा रही जिसके वो हकदार हैं .

घर में बड़े बुजुर्गों का होना कभी शान का प्रतीक होता था . उनके अनुभव और दूरदर्शिता आने वाली पीढ़ियों में स्वतः ही स्थान्तरित होती जाती थी बिना किसी अनावश्यक प्रयास के क्योंकि वो अपने आचरण से अहसास कराया करते थे . वो कहने में नहीं करने में विश्वास रखते थे तो सुसंस्कार , मर्यादाएं और सफल जीवन के गुर इंसान स्वतः ही सीख जाता था और उन्ही को आगे हस्तांतरित करता जाता था लेकिन आज के आपाधापी के युग में न वो संस्कार रहे न वो मर्यादाएं और न ही वो रिश्तों में ऊष्मा तो कैसे संभव है बुजुर्गों को धरोहर मान लेना ? जिन्होंने रिश्तों के महत्त्व को न जाना न समझा न ही अपने से बड़ों को अपने बुजुर्गों को सहेजते हुए देखा उनसे कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वो सही आचरण करें और उन्हें वो ही मान सम्मान दें जो पहले लोग दिया करते थे .

बुजुर्ग बोझ हैं या धरोहर ये तो हर घर के संस्कार ही निर्धारित करते हैं . जिन्होंने अपने माता पिता को बुजुर्गों की सेवा करते देखा है वो ही आगे अपने जीवन में इस महत्त्व को समझ सकते हैं क्योंकि जब उम्र बढ़ने लगती है तो शक्ति का ह्रास होने लगता है , बुद्धि भी कमजोर होने लगती है , अंग शिथिल पड़ने लगते हैं ऐसे में उन्हें जरूरत होती है एक बच्चे की तरह की देखभाल की और इसके लिए जरूरी है पूरा समय देना लेकिन आज वो संभव नहीं है क्योंकि पति पत्नी दोनों नौकरी कर रहे हैं ऐसे समय में वो अपने बच्चों को ही क्रेच के हवाले करते हैं तो कैसे संभव है बुजुर्गों पर पूरा ध्यान देना .

कारण दोनों ही हैं कहीं ज़िन्दगी की आपाधापी तो कहीं संस्कार विहीनता लेकिन इस चक्कर में बुजुर्ग न केवल उपेक्षित हो रहे हैं बल्कि वो बोझ भी महसूस होने लगते हैं और इसका आज की पीढ़ी अंतिम विकल्प यही निकालती है या तो उन्हें वृद्ध आश्रम में छोड़ देती है या उनसे मुँह ही फेर लेती है और अपनी ज़िन्दगी में व्यस्त रहती है जो कहीं से भी एक स्वस्थ समाज का संकेत नहीं है क्योंकि ज़िन्दगी सिर्फ सीधी सहज सरल सपाट सड़क नहीं इसमें ऊबड़ खाबड़ रास्ते भी हैं जहाँ अनुभवों की दरकार होती है , किसी अपने के ऊष्मीय स्पर्श की आवश्यकता भी होती है , किसी अपने के सिर पर हाथ की अपेक्षा भी होती है और ये तब समझ आती है जब इंसान उन परिस्थितियों से गुजरता है लेकिन तब तक देर हो चुकी होती है .
इसलिए जरूरी है वक्त रहते चेता जाये ताकि उनके अनुभवों और आशीर्वाद से एक सफल जीवन जिया जा सके क्योंकि बोझ मानते हुए वो ये भूल जाता है कि एक दिन वो भी इन्ही परिस्थितियों से गुजरेगा तब क्या होगा यदि बोझ मानने से पहले इतना यदि अपने बारे में ही सोच ले तो कभी उन्हें धरोहर मानने से इनकार नहीं करेगा . वर्ना आज तो बुजुर्ग सिवाय बोझ के कुछ और प्रतीत ही नहीं होते .
जो लोग उन्हें बोझ मानते हैं वो नहीं जानते वो क्या खो रहे हैं और जो धरोहर मानते हैं उनके लिए वो वास्तव में एक अमूल्य उपहार से कम नहीं होते क्योंकि बाकि सब ज़िन्दगी में आसानी से मिल जाता है लेकिन बुजुर्गों का निस्वार्थ प्यार,   अनुभव और अपनापन किसी बाज़ार से ख़रीदा नहीं जा सकता .


वंदना गुप्ता
डी – 19 , राणा प्रताप रोड
आदर्श नगर
दिल्ली --- 110033
मोबाइल : 09868077896



सोमवार, 5 अक्तूबर 2015

अंधेरों की सरसों

अंधेरों के पीछे के अँधेरे भी
उतने ही घनेरे होते हैं
ये जानकर होने लगता है अहसास
भविष्य की कछुआ चाल का
जिसमे न गति होगी न रिदम न संगीत
न सुर न लय न ताल
तब भविष्यदृष्टा नहीं तो भी
छटी इंद्री जरूर करती है सचेत
आने वाली काली गहराती परछाइयों से
और जब आशंकाएं अक्सर सच हो जाया करती हैं 
ऐसे में संभव ही नहीं
कोई दूसरा जुगाड़ बाहर आने का
तब छोड़कर हर जद्दोजहद
मान लेना चाहिए

ये गहराते अंधेरों से इश्क करने का ही मौसम है

तो क़ुबूल है क़ुबूल है क़ुबूल है
कह
करना ही पड़ता है निकाह

किस किस से , कैसे और कब तक बचूँ
क्या बचना संभव है मेरा ?

जबकि
मेरे चारों तरफ लहलहा रही अंधेरों की सरसों बेइंतेहा

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2015

रोता है मेरा रब बुक्का फाड़ कर

रोता है मेरा रब बुक्का फाड़ कर 
आह ! ये किस तराजू में तुल गया 
जहाँ अन्याय ठहाकें लगाता मिला 
बेबस न्याय ही कसमसाता मिला 
ये किन शरीफों की बस्ती में आ गया 
हर चेहरे पर लटकता वहशियत का 
चमचमाता फानूस मिला 
हर गर्दन तलवार के साए में सिर झुकाए 
ताबेदार सी बेबस निष्प्राण मिली 
बस एक शैतान के चेहरे पर ही 
खिलखिलाती मुस्कान मिली 

ऐसे  तो जहान की न कल्पना की थी मैंने 
जहाँ हैवानियत के जूतों में लगी 
इंसानियत की कील हर चेहरे पर चुभती मिली 
कहीं गुरुद्वार पर ही अस्मिता बिलबिलाती मिली 
कहीं जिंदा लाशों के चेहरों पर बेबसी की मजार मिली 
कहीं कोई हीर वक्त के तेज़ाब में खौलती मिली 
देह तो क्या आत्मा भी तेजाबी ताप से गलती मिली 
कहीं खरीद फरोख्त के साझीदारों में 
अपनों के हाथों के फिंगरप्रिंट मिले 
कहीं शीश महलों में भी कुचली मसली 
रूहों के अवशेष मिले 
कहीं पिंजरबद्ध सोन चिरैया के 
हाथ में तलवार मगर 
पैरों में पड़ी बेड़ियाँ मिलीं 
अपने ही दांतों से अपने ही मांस को नोंचते 
गिद्धों के बाज़ार मिले 
मौकापरस्ती , स्वार्थपरता के खोटे  सिक्कों का 
महकता चलता बाज़ार मिला 
स्वार्थ की वेदी पर निस्वार्थता की बलि देती 
सारी  कायनात मिली 
कहीं अन्याय के बिस्तर पर 
सिसकती न्याय की जिंदा लाश मिली 
कर्त्तव्य अकर्तव्य के दायरे में जकड़ी 
मानुष की ना कोई जात मिली 
बस खुदपरस्ती  की जकड़नों में  जकड़ी 
हैवानियत की ही सांस मिली 

ये कौन सी बस्ती में आ गया 
देख खुदा भी घबरा गया 
आदम और हव्वा के रचनात्मक संसार में 
आदम को ढूँढने खुदा भी चल दिया 

अपने मन के इकतारे पर बिना सुरों को साजे 
मेरा रब रोता है बुक्का फाड़ कर 
कहता है बिलबिलाकर 
कोई मेरा भी क़त्ल कर दो यारों 
कोई मुझे भी मुक्त कर दो यारों 
तुम्हारी जड़वादी सोच से 
भयग्रस्त कुंठाओं से 
भय के अखंड साम्राज्य से 
जहाँ मेरे नाम की तख्ती लगा 
मनमाना व्यभिचार करते हो 
और मेरे नाम के दीप में 
अपनी तुच्छ वासनाओं के घृत भरते हो 
और फिर  कभी सामाजिक तो कभी 
धार्मिक डर की आँधियाँ  चलाते हो 
मेरे नाम पर मानव द्वारा मानवता को ही छलवाते हो 
अपनी कामनाओं की पूर्ती के लिए 
मेरे कंधे पर  बन्दूक रख चलाते हो 
बस करो अब बस करो 
खुद को बेबस लाचार महसूसता हूँ 
जब तुम्हारी स्वार्थपरता में घिरता हूँ 
मेरा अंतःकरण भी रोता है 
और यही प्रश्न करता है 

तुम्हारे बोये भय और उन्माद की आँधी में आखिर कब तक मेरा क़त्ल होता रहेगा ?