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मंगलवार, 25 सितंबर 2012

तुम कहाँ हो ?



तुम कहाँ हो ?
युगों युगों की पुकार
ना जाने कब तक चलेगी
यूँ ही अनवरत
बहती धारा
प्रश्न चिन्ह बनी
अपने वजूद को ढूंढती
क्योंकि
तुमसे ही है मेरा वजूद
तुम नहीं तो मैं नहीं
मैं ...........कौन
कुछ भी तो नहीं
अस्तित्वहीन सा कुछ
जो तुम्हारे बिना कुछ नहीं
तुम ही तो वीणा में राग भरते हो
साज़ में आवाज़ भरते हो
धडकनों में स्पंदन करते हो
तुमसे पृथक "मैं" कहाँ ?
और कौन हूँ?
कुछ भी तो नहीं
तो बताओ
कैसे तुम्हें ढूंढूं
कहाँ तुम्हें खोजूं?
कौन सा रूप दूँ?
कौन सा आकार दूँ
जिसे नैनन में भर लूँ
जिसकी छाप अमिट हो जाये
वो छवि बस अंतरपट पर छा जाये
बोलो .........दोगे मुझे
वो अनिर्वचनीय सुख
समाओगे मेरे नैनों के कोटर में
मेरे ह्रदय स्थली में
देखो
ढूँढ ढूँढ हार चुकी हूँ
नहीं मिल रहा वो तुम्हारा रूप
ना वो रंग
जिसे देखने के बाद
कुछ देखना बाकी नहीं रहता
जिसे पाने के बाद
कुछ पाना बाकी नहीं रहता
तो बोलो
हे अनंत ...............चितचोर
माधव नन्द किशोर
कहाँ हो तुम ?
आओगे ना एक बार
जीवन रहते जवाब देने
और मुझे संपूर्ण करने
हे केशव
हे मदन मुरारी
तुझ पर मैं सब कुछ हारी
तुम कहाँ हो मुरारी ?
मेरी अधूरी प्यास के अमृतघट ...............
आ जाओ ना अब तो ..................
ओ बिहारी ! ओ गिरधारी !
लो मैं खुद को हारी !
अब तो सुन लो पुकार
दे दो दीदार !
तुम कहाँ हो ? तुम कहाँ हो ? तुम कहाँ हो?
सुन लो मन पपीहे की ये करुण पुकार
पीर का आर्तनाद तुम तक पहुँचता तो होगा ना ..........केशव !


बुधवार, 19 सितंबर 2012

खरोंच


कल तक जो
आन बान और शान थी
कल तक जो
पाक और पवित्र थी
जो दुनिया के लिए
मिसाल हुआ करती थी
अचानक क्या हुआ
क्यों उससे उसका ये
ओहदा छीन गया
कैसे वो मर्यादा
अचानक सबके लिए
अछूत चरित्रहीन हो गयी
कोई नहीं जानना चाहता
संवेदनहीन ह्रदयों की
संवेदनहीनता की यही तो
पराकाष्ठा होती है
पल में अर्श से फर्श पर
धकेल देते हैं
नहीं जानना चाहते
नकाब के पीछे छुपे
वीभत्स सत्य को
क्योंकि खुद बेनकाब होते हैं
बेनकाब होती है इंसानियत
और ऐसे में यदि
कोई मर्यादा ये कदम उठाती है
तो आसान नहीं होता
खुद को बेपर्दा करना


ना जाने कितने
घुटन के गलियारों में
दम तोडती सांसों से
समझौता करना पड़ता है
खुद को बताना पड़ता है
खुद को ही समझाना पड़ता है
तब जाकर कहीं
ये कदम उठता है
अन्दर से आती
दुर्गन्ध में एक बूँद और
डालनी पड़ती है गरल की
तेज़ाब जब खौलने लगता है
और लावा रिसता नहीं
ज्वालामुखी भी फटता नहीं
तब जाकर परदगी का
लिबास उतारना  पड़ता है
करना होता है खुद को निर्वस्त्र
एक बार नहीं बार बार
हर गली में
हर चौराहे पर
हर मोड़ पर
तार तार हो जाती है आत्मा
लहूलुहान हो जाता है आत्मबल
जब आखिरी दरवाज़े पर भी
लगा होता है एक साईन बोर्ड
सिर्फ इज्जतदारों को ही यहाँ पनाह मिलती है
जो निर्वस्त्र हो गए हों
जिनका शारीरिक या मानसिक
बलात्कार हुआ हो
वो स्वयं दोषी हैं यहाँ आने के
यहाँ बलात्कृत आत्माओं की रूहों को भी
सूली पर लटकाया जाता है
ताकि फिर यहाँ आने का गुनाह ना कर सकें

इतनी ताकीद के बाद भी
गर कोई ये गुनाह कर ही दे
तो फिर कैसे बच सकता है
बलात्कार के जुर्म से
अवमानना करने के जुर्म से
जहाँ पैसे वाला ही पोषित होता है
और मजलूम पर ही जुल्म होता है
ये जानते हुए भी कि साबित करना संभव नहीं
फिर भी आस की आखिरी उम्मीद पर
एक बार फिर खुद को बलात्कृत करवाना
शब्दों की मर्यादाओं को पार करती बहसों से गुजरना
अंग प्रत्यंग पर पड़ते कोड़ों का उल्लेख करना
एक एक पल में हजार हजार मौत मरना
खुद से इन्साफ करने के लिए
खुद पर ही जुल्म करना
कोई आसान नहीं होता

खुद को हर नज़र में
"प्राप्तव्य वस्तु" समझते देखना
और फिर उसे अनदेखा करना
हर नज़र जो चीर देती है ना केवल ऊपरी वस्त्र
बल्कि रूह की सिलाईयाँ भी उधेड़ जाती हैं
उसे भी सहना कुछ यूँ
जैसे खुद ने ही गुनाह किया हो
खरोंचों पर दोबारा लगती खरोंचें
टीसती भी नहीं अब
क्योंकि
जब स्वयं को निर्वस्त्र स्वयं करना होता है
सामने वालों की नज़र में
शर्मिंदगी या दया का कोई अंश भी नहीं दिखता
दिखता है तो सिर्फ
वासनात्मक लाल डोरे आँखों में तैरते
उघाड़े जाते हैं अंतरआत्मा के वस्त्र
दी जाती हैं दलीलें पाक़ साफ होने की
मगर कहीं कोई सुनवाई नहीं होती
होता है तो सिर्फ एक अन्याय जिसे
न्याय की संज्ञा दी जाती है

इतना सब होने के बावजूद भी
मगर नहीं समझा पाती किसी को
नहीं साक्ष्य उपलब्ध करवा पाती
और हार जाती है
निर्वस्त्र हो जाती है खोखली मर्यादा
और हो जाता है हुक्म
चढ़ा दो सूली पर
दे दो उम्र कैद पीड़ित मर्यादा को
ताकि फिर कोई खरोंच ना इतनी बढे
ना करे इतनी हिम्मत
जो नज़र मिलाने की जुर्रत कर सके

आसान था उस पीड़ा से गुजरना शायद
तब कम से कम खुद की नज़र में ही
एक मर्यादा का हनन हुआ था
मगर अब तो मर्यादा की दहलीज पर ही
मर्यादा निर्वस्त्र हुई थी प्रमाण के अभाव में
और अट्टहास कर रही थी सुना है कोई 
आँख पर पट्टी बाँधे हैवानियत की चरम सीमा........

ये खोखले आदर्शों की जमीनों के ताबूत की आखिरी कीलों पर
मौत से पहले का अट्टहास सोच की आखिरी दलदल तो नहीं
किसी अनहोनी के तांडव नृत्य का शोर यूँ ही नहीं हुआ करता ...गर संभल सकते हो तो संभल जाओ

रविवार, 16 सितंबर 2012

अधूरी कविता हूँ मैं

जानती हूँ
तेरी ज़िन्दगी की
अधूरी कविता हूँ मैं
हाँ .........अधूरी ही कहा है
क्योंकि यही तो सच है
अच्छा बताओ तो ज़रा
कहाँ पूरी हुई है
रोज तो लिखते हो एक नया फलसफा
रोज गढ़ते हो एक नया किरदार मुझमे
रोज करते हो सजदा
कभी मोहब्बत की देवी बनाकर
तो कभी मोहब्बत का खुदा बनाकर
बताओ तो ज़रा
क्या नहीं देखते तुम मुझमे
कभी किसी नदिया की अल्हड रवानी
क्या नहीं करते तुम तुलना
चाँद की चाँदनी से मेरे अक्स की
क्या नहीं देखते तुम मेरी आँखों में
सारे जहान की जन्नत
क्या नहीं लिखते रोज एक
नयी नज़्म
कभी मेरी खिलखिलाहट पर
तो कभी मेरी मुस्कराहट पर
तो कभी नज़रों की शोखियों पर
तो कभी मेरी नाजनीन अदाओं पर
तो कभी मेरी उदासी पर
तो कभी मेरी घबराहट पर
तो कभी मेरी धड़कन पर
तो कभी मेरी उलझन पर
बताओ तो ज़रा
कितने फलसफे गढ़े हैं तुमने
लिख लिख कर तुमने
पन्ने कितने काले किये हैं
मगर क्या पूरी हुई तुम्हारी कविता
नहीं ना .........नहीं होगी
जानते हो क्यों
क्योंकि
तुमने खुद को मिटाया है
और अपनी मिटी हस्ती की राख में
आँसुओं की कलम में
दिल के जज्बातों को डुबाया है
तभी तो ये नक्स उभर आया है
कि देखने वालों को
सिर्फ और सिर्फ मैं ही दिखती हूँ
तुम कहीं नहीं .............
और ऐसा तभी होता है
जब किसी के वजूद को
किसी ने आत्मसात कर लिया हो
तो बताओ ज़रा
क्या कभी पूरी हो सकती है ये कविता
जब तक ज़िन्दगी है
जब तक सांस है
जब तक धड़कन है
जब तक कायनात है
ये कविता हमेशा अधूरी ही रहेगी
मगर अधूरेपन में छुपी पूर्णता को सिर्फ मैं ही जान सकती हूँ
क्यूँकि
प्रकृति हो या पुरुष दोनों का सम्बन्ध शाश्वत जो है

गुरुवार, 13 सितंबर 2012

"मैं अभिव्यक्ति की आज़ादी बोल रही हूँ"


आप सब मेरी एक रचना पढिये जो अभी 5-6 दिन पहले अचानक लिखी गयी और उम्मीद नही थी कि इसका प्रयोग इतनी जल्दी हो जायेगा ……और देश मे जो घटने वाला है वो कलम से उद्धरित हो जायेगा 






मैं अभिव्यक्ति की आज़ादी बोल रही हूँ
कट्टरपंथियों की कट्टरता से लेकर
पुरातत्व विदों की खोजों तक
मेरे वजूद पर सिर्फ पहरे ही मिले
कहीं ना मुझे मेरे चेहरे मिले
कोशिशों के संग्राम में
उम्मीदों की आस्तीनों पर
जब विचारों का बवंडर चला
इन्कलाब के नारे लगे
एक नया जूनून उठा
और अस्तित्व मेरा सुलग उठा
अपना युद्ध खुद लड़ना पड़ता है
मैंने भी लड़ा .........मगर देखो तो
मुझे आखिर क्या मिला
लगता है अब तक सिर्फ मेरा
दोहन ही तो हुआ
अभिव्यक्ति की आज़ादी का सिर्फ तमगा मिला
कहीं ना कहीं मेरी स्वतंत्रता पर
आज भी है अंकुश लगा
तभी तो
सच कहने वाला ही दोषी बना
झूठ का परचम तो आज भी खूब डटा
मैंने ही हथकड़ी पहनी
मेरे ही पाँव में बेडी पड़ी
मगर झूठ तो आज भी सिंहासन पर काबिज़ है
फिर कैसी ये अभिव्यक्ति की आज़ादी है
जहाँ सांस लेना भी दुश्वार है
अभिव्यक्ति की आज़ादी का बलात्कार है
देखो अब ना खुलकर सांस ले रही हूँ
ना तुम्हारे चँगुल से निकली हूँ
फिर मैं कैसी अभिव्यक्ति की आज़ादी हूँ
जो चोर को चोर नहीं कह सकती हूँ
महामहिमों को दंडवत सलाम ठोंकती हूँ
और अन्दर ही अन्दर कसमसाती हूँ
बेड़ियों में जकड़ी मैं कैसी अभिव्यक्ति की आज़ादी हूँ
बस इसी पर विचार करती हूँ
कभी कहा जाता है भाषा संयमित बरतो
तो कभी कहा जाता है भावनाओं पर अंकुश रखो
कभी कहा जाता है ये कहने का तुम्हें हक़ नहीं
तो आखिर कैसे खुद को अभिव्यक्त करूँ
आखिर कैसे मूँहतोड जवाब दूं
कैसे इस रेत के दरिया से बाहर निकलूँ
और खुलकर ताज़ी हवा में सांस ले सकूँ
और कह सकूँ ..........हाँ , मैं आज़ाद हूँ
सही में अभिव्यक्ति की आज़ादी हूँ
जब तक ना अपना वास्तविक स्वरुप पाऊँ
कैसे खुद को अभिव्यक्ति की आज़ादी कहलाऊँ ????????

सोमवार, 10 सितंबर 2012

शतरंज के खेल मे शह मात देना अब मैने भी सीख लिया है …400 वीं पोस्ट

तुम्हारा प्रश्न
आज की आधुनिक
क्रांतिकारी स्त्री से
शिकार होने को  तैयार हो ना
क्योंकि
नये नये तरीके ईज़ाद करने की
कवायद शुरु कर दी है मैने
तुम्हें अपने चंगुल मे दबोचे रखने की
क्या शिकार होने को तैयार हो तुम ……स्त्री?

तो इस बार तुम्हे जवाब जरूर मिलेगा ……



हां , तैयार हूँ मै भी

हर प्रतिकार का जवाब देने को
तुम्हारी आंखों मे उभरे
कलुषित विचारों के जवाब देने को
क्योंकि सोच लिया है मैने भी
दूंगी अब तुम्हे
तुम्हारी ही भाषा मे जवाब
खोलूँगी वो सारे बंध
जिसमे बाँधी थी गांठें
चोली को कसने के लिये
क्योंकि जानती हूँ
तुम्हारा ठहराव कहां होगा
तुम्हारा ज़ायका कैसे बदलेगा
भित्तिचित्रों की गरिमा को सहेजना
सिर्फ़ मुझे ही सुशोभित करता है
मगर तुम्हारे लिये हर वो
अशोभनीय होता है जो गर
तुमने ना कहा हो
इसलिये सोच लिया है
इस बार दूँगी तुम्हे जवाब
तुम्हारी ही भाषा मे
मर्यादा की हर सीमा लांघकर
देखूंगी मै भी उसी बेशर्मी से
और कर दूंगी उजागर
तुम्हारे आँखो के परदों पर उभरी
उभारों की दास्ताँ को
क्योंकि येन केन प्रकारेण
तुम्हारा आखिरी मनोरथ तो यही है ना
चाहे कितना ही खुद को सिद्ध करने की कोशिश करो
मगर तुम पुरुष हो ना
नही बच सकते अपनी प्रवृत्ति से
उस दृष्टिदोष से जो सिर्फ़
अंगो को भेदना ही जानती है
इसलिये इस बार दूँगी मै भी
तुम्हे खुलकर जवाब
मगर सोच लेना
कहीं कहर तुम पर ही ना टूट पडे
क्योंकि बाँधों मे बँधे दरिया जब बाँध तोडते हैं
तो सैलाब मे ना गाँव बचते हैं ना शहर
क्या तैयार हो तुम नेस्तनाबूद होने के लिये
कहीं तुम्हारा पौरुषिक अहम आहत तो नही हो जायेगा
सोच लेना इस बार फिर प्रश्न करना
क्योंकि सीख लिया है मैने भी अब
नश्तरों पर नश्तर लगाना …………तुमसे ही ओ पुरुष !!!!!!!

दांवपेंच की जद्दोजहद मे उलझे तुम

सम्भल जाना इस बार
क्योंकि जरूरी नही होता
हर बार शिकार शिकारी ही करे
इस बार शिकारी के शिकार होने की प्रबल सम्भावना है
क्योंकि जानती हूं
आधुनिकता के परिप्रेक्ष्य मे आहत होता तुम्हारा अहम
कितना दुरूह कर रहा है तुम्हारा जीवन
रचोगे तुम नये षडयत्रों के प्रतिमान
खोजोगे नये ब्रह्मांड
स्थापित करने को अपना वर्चस्व
खंडित करने को प्रतिमा का सौंदर्य
मगर इस बार मै
नही छुडाऊँगी खुद को तुम्हारे चंगुल से
क्योंकि जरूरी नही
जाल तुम ही डालो और कबूतरी फ़ंस ही जाये
क्योंकि
इस बार निशाने पर तुम हो
तुम्हारे सारे जंग लगे हथियार हैं
इसलिये रख छोडा है मैने अपना ब्रह्मास्त्र
और इंतज़ार है तुम्हारी धधकती ज्वाला का
मगर सम्भलकर
क्योंकि धधकती ज्वालायें आकाश को भस्मीभूत नहीं कर पातीं
और इस बार
तुम्हारा सारा आकाश हूँ मै …………हाँ मैं , एक औरत 


गर हो सके तो करना कोशिश इस बार मेरा दाह संस्कार करने की
क्योंकि मेरी बोयी फ़सलों को काटते
सदियाँ गुज़र जायेंगी
मगर तुम्हें ना धरती नज़र आयेगी
ये एक क्रांतिकारी आधुनिक औरत का तुमसे वादा है
शतरंज के खेल मे शह मात देना अब मैने भी सीख लिया है
और खेल का मज़ा तभी आता है

जब दोनो तरफ़ खिलाडी बराबर के हों 
दांव पेंच की तिकडमे बराबर से हों 
वैसे इस बार वज़ीर और राज़ा सब मै ही हूँ
कहो अब तैयार हो आखिरी बाज़ी को ……ओ पुरुष !!!!

गुरुवार, 6 सितंबर 2012

इश्क का पंचनामा ऐसे भी हुआ करता है



दौड़ती भागती रही उम्र भर
तेरे इश्क की कच्ची गलियों में
लगाती रही सेंध बंजारों की टोलियों में
होगा कहीं मेरा बंजारा भी
जिसकी सारंगी की धुन पर
इश्क की कशिश पर
नृत्य करने लगेंगी मेरी चूड़ियाँ
रेशम की ओढनी पर
लगी होंगी जंगली बेल बूँटियाँ
और बजती होंगी किसी
मंदिर की चौखट पर
इश्क की घंटियाँ
स्वप्न के पार होगी कहीं
कोई स्वप्निली घाटियाँ
जिसके एक छोर पर
सारंगी बजाता होगा मेरा बंजारा
और दूसरे छोर पर
कोई रक्कासा की परछाईं
करती होगी नृत्य सांझ की चौखट पर
एक धूमिल अक्स झुक रहा होगा आसमाँ का
करने कदमबोसी इश्क की ..........
सुनो ............आवाज़ पहुंची तुम तक ?
मेरे ख्वाबों की चखरी पर
हकीकत का मांजा क्यों नहीं चढ़ता ?
ये आखिरी ख़त की भाषा
कोई रंगरेज क्यों नहीं समझता ?
शायद अब इश्क की बारातें नहीं निकला करतीं
जनाजों की धूम खामोश होने लगी है
तभी तो देखो ना ..................
मैंने जो पकड़ी थी एक लकीर हाथों से
उसके बस निशाँ ही हथेली पर पसरे पड़े हैं
मगर कोई ज्योतिषी बूझ ही नहीं पा रहा
इश्क का ज्ञान .............
देखो ना मेरी हथेली पर
सारी रेखाएं मिट चुकी हैं
सिर्फ इश्क की रेखा ही कैसे टिमटिमा रही है
फिर भी नहीं कर पा रहा कोई भविष्यवाणी
अब ये भविष्य वक्ता का दोष है या इश्क की इन्तेहाँ
जो बस सिर्फ एक रेखा का गणित ही
सवाल हल नहीं कर पा रहा
और देखो तो ............सदियाँ बीत गयीं
सुलझाते सुलझाते धागे की उलझन को
बालों में उतरी चाँदी गवाह है इसकी
जितना सुलझाने की कोशिश करती हूँ
जितना मौलवी से कलमे पढवाती हूँ
ताबीज़ गढ़वाती  हूँ
ये नामुराद इश्क की रेखा उतनी ही सुर्ख हो जाती है
ना ना .........इश्क की रेखा हर हथेली में नहीं होती
और जिसमे होती है तो वहाँ
बस सिर्फ एक वो ही रेखा होती है
और मेरी हथेली की जमीन देखो तो ज़रा
कितनी चमक रही है
बर्फ की चादर बिछी है
जिसकी मांग सिन्दूर से भरी है
अमिट है मेरा सुहाग ......जानते हो ना
तभी तो दिन पर दिन
सुहागरेखा कैसे गहरा रही है
इसीलिए अब बंद रखती हूँ मुट्ठी को
कहीं नज़र ना लग जाए
वैसे तुम्हारी नज़र का
इन्तखाब तो आज भी है
मगर इंतज़ार के पुलों पर
ख्वाबों के बाँध बांधे तो
युगों बीत गए .........
क्या पहुँचा तुम तक
इंतज़ार -ओ-इश्क का जूनून
जानती हूँ नहीं पहुँचा होगा
तभी तो लहू का रिसना जारी है
यूँ ही इश्क का सुहाग अमर नहीं होता
जब तक ना दर्द का लहू रिसता
और फिर बंजारों की टोलियाँ
वैसे भी कब महलों की मोहताज हुई हैं
इश्क की चादरें तो बिना धागों के बुनी जाती हैं
और मेरी हथेली के बीचो बीच खिंची रेखा तो
लक्ष्मण रेखा से भी गहरी है , अटल है , तटस्थ है
जो इश्क की सुकूनी हवाओं की मोहताज नहीं
ओ मेरे इश्क के बंजारे ...........तू जहाँ भी है
याद रखना ...........एक दिन इश्क के जनाजे में ताशे तू ही बजा रहा होगा
और मेरा इश्क गुनगुना रहा होगा
रब्बा इश्क के पाँव में मेहंदी लगा दे कोई
इक शब की दुल्हन बना दे कोई ............
फिर भी कहती हूँ
यूँ इश्क के पेंचोखम में उलझना ठीक नहीं होता ...............जान की कीमत पर
क्योंकि
इंसानियत की रूह जब उतरती है
तब इश्क की दुल्हन अक्स बदलती है ...........और आइनों पर लिबास नहीं होते
देख लेना आकर क़यामत के रोज़ मेरी हथेलियों की सुर्ख रंगत .......... 
जो किसी मेहंदी की मोहताज नहीं
                      फिर चाहे तेरे इंतज़ार की ही क्यों ना हो ............

इश्क का पंचनामा ऐसे भी हुआ करता है …………ओ मेरे बंजारे  !!!!!!!!

सोमवार, 3 सितंबर 2012

सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यों है

सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यों है
ये ब्लोगिंग में मचा घमासान सा क्यों है

क्या हुआ जो एक पुरस्कार हाथ से छूट गया

क्या हुआ जो दिल तुम्हारा टूट गया
ऐसा तो हमेशा होता आया
फिर भी  उठा आखिर  ये बवाल सा क्यों है

क्या हुआ जो तुम्हारी पूछ ना हुई

क्या हुआ जो आयोजक की चाँदी हो गयी
यूँ ही तो नहीं बनता कोई खतरों का खिलाडी
आयोजकों पर मढ़ा ये इल्ज़ाम सा क्यों है

क्या हुआ जो आयोजन में  कमी रह गयी

क्या हुआ जो बद इन्तजामी  रह गयी
बड़े बड़े शहरों में छोटी छोटी
बातें होती रहती हैं
ऐसी बातें कहता हर बार वो  है
हर आयोजक का पुराना जुमला यही क्यों है

क्या हुआ जो अपनी भड़ास दूसरों पर निकाल दी

क्या हुआ जो किसी शख्सियत ने वाह वाही बटोर ली
ये तो होता आया हर आयोजन में
फिर इस बार ही ये धमाल सा क्यों है


क्या हुआ जो तुम्हारी ट्रेन छूट गयी

क्या हुआ जो ट्राफ़ी तुमसे रूठ गयी
ये ही तो होता आया ब्लोगिंग की जुगाडु दुनिया में
फिर इस बार ही छाया ये तूफ़ान सा क्यों है

सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यों है
ये ब्लोगिंग में मचा घमासान सा क्यों है
:):):):):):):):):)

शनिवार, 1 सितंबर 2012

देख तो ज़रा एक कश लेकर………………

अपने दिल की चिलम मे
तेरी सांसों को फ़ूंका मैने
फिर चाहे खुद फ़ना हो गयी
देख तो ज़रा एक कश लेकर………
हर कश में जो गंध महकेगी
किसी के जिगर की राख होगी

छलनियाँ भी शरमा जाएँ जहाँ
ये ऐसी दिल की शबे बारात होगी 


अब और क्या नूर-ए-नज़र करूँ
ना सुबह होगी ना शाम होगी
कह दो रौशनियों से कोई जाकर
अब ना कभी मुलाकात होगी



जानते हो ना

चिलमों की धीमी आँच

कैसे धीमे धीमे ज़हर सी

उतरती है रूह के लिहाफ़ मे 
धुओं के छल्लों पर निशान भी नही मिलेंगे

बस तू एक कश लेकर तो देख
दर्द की राखों मे चीखें नही होतीं …………