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मंगलवार, 29 जुलाई 2014

दो बहनें

तीज और ईद अक्सर 
गलबहियाँ डाल 
प्रेम के हिंडोलों पर 
पींग बढ़ा 
सौहार्द का प्रतीक 
बनने की कोशिश करती हैं दो बहनों सा 
जाने कौन से खुदा का 
फ़रमान तारी हो जाता है 
जो बो जाता है नफ़रत की नागफ़नियाँ 
और हो जाती हैं दोनो बहनें जुदा 
और करती हैं 
अपने अपने अस्तित्व की तलाश 
गंगा जमुनी तहजीब में 

और मिट्टियों में चाहे कितनी सेंध लगा लो 
समा ही लेती है अपने आकार में हर प्रकार को 
क्योंकि 
सुना है जन्मदात्री तो एक ही है दोनों की 

शनिवार, 26 जुलाई 2014

सोच की रोटी पर फ़फ़ूँद लगने से पहले

हाथ में कलम हो और
सोच के ताबूत में
सिर्फ़ कीलें ही कीलें गडी हों
तो कैसे खोली जा सकती है
ज़िन्दा लाश की आँख पर पडी पट्टी की गिरहें

चाहे कंगन कितने ही क्यों ना खनकते हों
सोच के गलियारों में पहनने वाले हाथ ही
आज नहीं मिला करते
और “ जंगल में मोर नाचा किसने देखा “
कहावत यूँ चरितार्थ होती है
मानो स्वंयवर के लिये दुल्हन खुद प्रस्तुत हो
मगर राजसभा मनुष्य विहीन हो
या रंगशाला में नर्तकी नृत्य को आतुर हो
मगर कद्रदान का ही अभाव हो
विडंबना की सूक्तियाँ मानो
कोई फ़कीर उच्चरित कर रहा हो
समय रहते बोध करा रहा हो
मगर हमने तो जैसे हाथ में माला पकडी हो
मनके फ़ेरने की धुन में कुछ सुनना
शास्त्राज्ञा का उल्लंघन लगता हो

अजब सोच की गगरी हो
जो सिर्फ़ कंकर पत्थरों से भरी हो
मगर पानी के अभाव में
ना किसी कौवे की प्यास बुझती हो
और कहीं कौवा प्यासा ही ना उड जाये
उससे पहले बरसनी ही चाहिये बरखा की पहली बूँद
मेरी सोच की मज़ार पर
ऐतिहासिक घटना के घटित होने से पहले
लिखी जानी चाहिये कोई इबारत
सोच की रोटी पर फ़फ़ूँद लगने से पहले
बदलनी ही चाहिये तस्वीर इस बार

कुंठित सोच
कुँठित मानसिकता
कुंठित पीढी को जन्म दे
उससे पहले
सोच की कन्दराओँ को
करना होगा रौशन
ज्ञान का दीप जलाकर
खुद का अन्वेषण कर के

(मेरे काव्य संग्रह बदलती सोच के नए अर्थ से एक कविता अन्तिम पंक्तियाँ वाजपेयी जी द्वारा भूमिका में उद्धृत)

शनिवार, 19 जुलाई 2014

नपुंसक समाज के नपुंसकों

वो कहते हैं 
नपुंसक समाज के नपुंसकों 
तुम हमारा कुछ नहीं बिगाड सकते 
हम तो ऐसा ही करेंगे 
कानून क्या बिगाडेगा हमारा 
जब अब तक न कुछ बिगाड सका 
अमानवीयता की हर हद को तोड कर 
नये नये तरीके ईजाद करेंगे 
मानवीयता की हर हद को तोड कर 
ब्लात्कार करेंगे ब्लात्कार करेंगे ब्लात्कार करेंगे 

बलात्कार अमानवीयता संवेदनहीनता महज थोथे शब्द भर रह गये

शर्मसार होने को क्या अब भी कुछ बचा रह गया है जो समाज देश कानून सब कुम्भकर्णी नींद सो रहे हैं जिन्हें पता नहीं चल रहा कि किस आग को हवा दे रहे हैं , कल जाने और कितना वीभस्त होगा ये तो सिर्फ़ एक शुरुआत है यदि अभी नहीं संभले तो कल तुम्हारी आँखों के आगे भी ये मानसिक विक्षिप्त कुछ भी कर सकते हैं और तुम नपुंसकों से कुछ नहीं कर पाओगे समय रह्ते चेतो , जागो और कुछ न्याय कानून से हटकर कदम उठाओ ताकि सीधा संदेश जाए ऐसे दरिंदों तक ……अब यदि कुछ किया तो क्या हश्र होगा उसका दम दिखाओ नहीं तो तैयार रहना बर्बादी हर घर के आगे दस्तक दे रही है ।

बुधवार, 16 जुलाई 2014

मेरी नज़र से


व्यस्तता इंसान को कितना लाचार कर देती है कि वो चाहकर भी हर काम को सही समय पर अंजाम नहीं दे सकता ऐसा ही कुछ मेरे साथ होता रहा है । पिछले कई महीनों से जाने कितने काम अधूरे पडे हैं , जाने कितना पढती रही मगर लिख नहीं पायी किसी के बारे में कुछ भी मगर इस बार ठान ही लिया कि कुछ वक्त चुराना होगा क्योंकि अंक है ही इतना शानदार कि रोक नहीं पायी खुद को । प्रवासी भारतीयों की पत्रिका हिन्दी चेतना जिसका सम्पादन सुधा ओम ढींगरा करती हैं अब भारत में प्रकाशित होने लगी है जिसे पंकज सुबीर देखते हैं ।

'हिन्दी चेतना' का जुलाई-सितम्बर 2014 अंक  मेरी नज़र से :

इस बार के अंक में रीता कश्यप की कहानी ; एक ही सवाल ' ज़िन्दगी की वो कटु सच्चाई है जिसे हम उम्र भर अनदेखा करते रहते हैं और कब हम अकेले और अवांछित तत्व में बदल जाते हैं पता ही नहीं चलता । कहानी के पात्र की मनोदशा के साथ साथ बाकि के पात्रों की मन:स्थिति पर रौशनी डालते हुए लेखिका ने बडी सहजता से उस सच को कहा है कि इंसान सोचता तो बहुत कुछ है मगर जब उससे गुजरता है तो उसे अहसास ही नहीं होता कि यदि वैसा हो गया तो हालात कैसे होंगे । शायद पहले से भी बदतर क्योंकि स्वप्न और हकीकतों में बहुत फ़र्क होता है यही कहानी के माध्यम से दर्शाया गया है ।

रजनी गुप्त की कितने चेहरे हर दूसरी स्त्री की कहानी है जो घर से बाहर निकलती है और कैसे वासनामय दृष्टियों से टकराती है मगर उसके साथ प्रतिकार भी अब जरूरी है आवाज़ उठानी जरूरी है इस तथ्य को बल दिया गया है ताकि जन जागृति हो सके।

आस्था नवल की ' उसका नाम ' एक गृहिणी के जीवन का चित्रण है जहाँ वो खुद को मिटाकर एक संसार रचती है और बन कर रह जाती है सिर्फ़ , माँ , मौसी , बहन , चाची , मामी , भाभी , जाने वक्त की किन परतों में खो जाता है उसका नाम , उसकी पहचान और जब कोई उसे अहसास कराता है तब जाकर समझ पाती है कि इन सब सम्बोधनों से इतर भी जरूरी है उसकी एक पहचान , एक नाम ।

 नीरा त्यागी की ' क्या आज मैं यहाँ होती ' एक तलाकशुदा स्त्री के जीवन का दर्पण है तो दूसरी तरफ़  उसूलों , आदर्शों और मर्यादा के साथ जीने की एक स्त्री के अदम्य साहस की प्रत्यंचा है । तलाकशुदा होकर भी स्त्री चाहे तो अपनी शर्तों पर मर्यादा पूर्ण जीवन जी सकती है उसके लिए जरूरी नहीं होता किसी भी तरह का समझौता करना ।

वहीं कहानी भीतर कहानी में सुशील सिद्धार्थ द्वारा किया गया गहन विश्लेषण पाठक को वृहद दृष्टि देता है जो अन्तस को छू जाता है ।

शैली गिल की ' फ़ादर्स डे ' एक बार फिर बुजुर्गों के प्रति संवेदनहीनता का दर्शन है । वहीं लघुकथायें कम शब्दों में प्रभावकारी असर छोडती हैं ।

 शशि पाधा का संस्मरण ' प्रथा कुप्रथा ' प्रभावशाली और अनुगमनीय संस्मरण है यदि सभी इसी तरह सोच सकें और कर सकें थोडी हिम्मत और थोडा जज़्बा रखें तो जाने कितनी ही ज़िन्दगियाँ बर्बाद होने से बच जायें और जाने कितनी ही ज़िन्दगियों में खुशियों की चमक बिखर जाए क्योंकि सरहद पर सिर्फ़ सैनिक ही शहीद नही होते उनके साथ उनका पूरा परिवार शहीद होता है यदि कुछ कुप्रथाओं का विरोध करने में पढे लिखे लोग आगे आकर साथ दें और रहने खाने की व्यवस्था कर दें तो एक जीवन किस तरह सुधर सकता है उसका वर्णन है जिसके लिए सरकारी महकमों के साथ जन जागृति भी जरूरी है ।

सौरभ पाण्डेय की गज़लें , शशि पुरुवार , सरस दरबारी, रश्मि प्रभा , रचना श्रीवास्तव,ज्योत्स्ना प्रदीप , सविता अग्रवाल , अदिति मजूमदार की कविताये , हरकीरत हीर , डॉ उर्मिला अग्रवाल , डॉअ सतीश राज पुष्करणा के हाइकू, अनुवादित कवितायें देकर पत्रिका को समृद्ध किया है । भारतेन्दु हरीशचन्द्र के  परिचय के साथ डॉ रेनु यादव का व्यंग्य ' क्योंकि औरतों की नाक नहीं होती ' पत्रिका को सम्पूर्णता प्रदान करता है । देवी नागरानी द्वारा की गयी पुस्तक समीक्षा कमल किशोर गोयनका द्वारा प्रेमचंद की कहानियों का कालक्रमानुसार अध्ययन , यात्रा संस्मरण पर आधारित नीले पानियों की शायराना हरारत की रघुवीर द्वारा की गयी समीक्षा और फिर पंकज सुबीर द्वारा गीता श्री की किताब प्रार्थना के बाहर और अन्य कहानियाँ ' की समीक्षा पत्रिका को न केवल सम्पूर्णता प्रदान करती है बल्कि पत्रिका को गरिमामय के साथ पठनीय भी बनाती है । एक ही पत्रिका में सम्पूर्ण साहित्य को सहेजना साथ ही साहित्य समाचारों को भी स्थान देना संपादक के कुशल संपादन को दृष्टिगोचर करता है । एक कुशल संपादक को दूरदर्शी होने के साथ वर्तमान परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखकर पत्रिका का संपादन करना होता है और सुधा जी उसमें पूरी तरह सक्षम हैं तभी तो जब से प्रिंट में पत्रिका आयी है सभी दिग्गजों को पत्रिका में स्थान तो मिल ही रहा है साथ ही नवोदितों के लिए भी खास जगह बना रखी है और यही एक पत्रिका की सफ़लता का पैमाना है जहाँ नये और पुराने दोनो लेखकों का संगम हो वहीं तो साहित्य की गंगा निर्बाध रूप से बहा करती है ।