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गुरुवार, 22 सितंबर 2016

यही है मेरा कल

यूँ तो भूलने की आदत बरसों पहले शुरू हो गयी थी जो अब इतनी पक गयी है कि उसके असमय बाल सफ़ेद हो गए हैं . आज इन्हें रंगने का कोई रंग भी नहीं बना बाज़ार में जो जाएँ खरीदें और रंग दें . अब इन्होने तो सोच लिया है इसका तो जनाजा निकाल कर ही रहना है तभी तो जब चाहे जहाँ चाहे दगा दे जाती है खासतौर से तब जब किसी से बात करती हूँ  शब्द नदारद . दिमाग में होते हुए भी अदृश्य . एक अजीब सी बेचैनी से घिर उठती हूँ .

यूँ आये दिन सबसे कहती हूँ मुझे याद नहीं रहता लेकिन सबके लिए वो भी महज एक साधारण बात है फिर चाहे भूलने की वजह से जाने कितनी महाभारत हुईं घर में लेकिन तब भी सबके लिए इसमें कुछ ख़ास नहीं तो मैं ही भला क्यों सोचूं कि मुझे कुछ हुआ है . ठीक हूँ , ऐसा तो उम्र के साथ होता ही है , सब कहते हैं , मान लेती हूँ . क्या सच में ऐसा होता है ? क्या ये किसी रोग का कोई लक्षण तो नहीं ? डरती हूँ कभी कभी . जब सोचती हूँ ऐसा न हो किसी दिन अपना नाम ही भूल जाऊँ , अपना घर , अपना पता और अपने रिश्ते . होता है कभी कभी आभास सा . जैसे भूल सा गयी हूँ सब कुछ . एक कोरा कागज़ बिना किसी स्मृति के . तब ? तब क्या होगा?

आवाज़े घोषणापत्र होती हैं जीवन्तता का तो  स्मृति उसकी धड़कन . बिना धड़कन के कैसा जीवन ? शून्य का पसर जाना तो ज़िन्दगी नहीं . विस्मृति से नहीं होंगे चिन्हित रास्ते . जानती हूँ . तो फिर क्या करूँ , कौन सा उपाय करूँ जो खुद को एक अंधी खाई में उतरने से बचा सकूँ .

न अब ये मत कहना लिख कर रखो तो याद रहता है क्योंकि तब भी याद रहना जरूरी है कि कहीं कुछ लिखा है . गाँठ मार लो पल्लू को , चुन्नी को या चोटी को मगर क्या करूँ गाँठ तो दिख जाती है मगर याद तब भी धोखा दे जाती है आखिर ये बाँधी क्यों ?

एक अजीब सी सिम्फनी है ज़िन्दगी की . जब यादों में उगा करते थे सुरमई फूल तब सोचा भी नहीं था ऐसा वक्त आएगा या आ सकता है . आज लौटा नहीं जा सकता अतीत में लेकिन भविष्य के दर्पण से मुँह चुराने के अलावा कोई विकल्प नज़र नहीं आता .

वो मेरा कौन सा वक्त था ये मेरा कौन सा वक्त है . दहशत का साया अक्सर लीलता है मुझे . यूं उम्र भर विस्मृत करना चाहा बहुत कुछ लेकिन नहीं हुआ . मगर आज विस्मृति का दश झकझोर रहा है . आज विस्मृति के भय से व्याकुल हैं मेरी धमनियाँ और उनमे बहता रक्त जैसे यहीं रुक जाना चाहता है . आगे बढ़ना भयावह समय की कल्पना से भी ज्यादा भयावह प्रतीत हो रहा है .

मैं बैठी हूँ . कहाँ नहीं मालूम . शायद कोई कमरा . कोई नहीं वहां . शायद मैं भी नहीं . एक शून्य का शून्य से मिलन . जहाँ होने को सूर्य का प्रकाश भी है और हवा का स्पर्श भी मगर नहीं है तो मेरे पास उसे महसूसने की क्षमता . शब्द , वाक्य सब चुक चुके . जोर नहीं दे सकती स्मृति पर . जानती जो नहीं जोर देना होता है क्या ? ये एक बिना वाक्य के बना विन्यास है जहाँ कल्पना है न हकीकत . वस्तुतः अंत यहीं से निश्चित हो चुका है क्योंकि अवांछित तत्व बेजान वस्तु अपनी उपादेयता जब खो देते हैं , उनके सन्दर्भ बदल जाते हैं . शायद यही है मेरा कल जो आज मुझसे मिलवा रहा है . भविष्यवक्ता तो नहीं लेकिन बदलते सन्दर्भ बोध करा जाते हैं आने वाली सुनामियों का .

स्मृति ह्रास तो विलाप का भी मौका नहीं देता इसलिए शोकमुक्त होने को जरूरी था ये विधवा विलाप . समय अपनी चाल चलने को कटिबद्ध है .

बुधवार, 7 सितंबर 2016

एक प्रतिक्रिया ऐसी भी



जैसे दाने दाने पर लिखा होता है खाने वाले का नाम
वैसे ही किताब किताब पर लिखा होता है पढने वाले का नाम

ऐसा ही मेरे उपन्यास अँधेरे का मध्य बिंदु के साथ हुआ जब जन्माष्टमी पर एक फ़ोन आया .

हैलो , क्या मैं वंदना  गुप्ता जी से बात कर सकता हूँ
जी मैं बोल रही हूँ
(थोडा हिचकिचाते हुए) मैं अवधेश बोल रहा हूँ
मैम (फिर से हिचकिचाते हुए बोले) आप की एक बुक मुझे अपनी दोस्त के माध्यम से मिली
कौन सी ?
अँधेरे का मध्य बिंदु
(मैं अलर्ट) जी , किस दोस्त के ?
देखिये, न मैं आपको जानता हूँ न आप मुझे लेकिन मैंने आपकी ये किताब पढ़ी तो मुझे लगा आपसे बात करनी चाहिए .
जी , आपको किस दोस्त से मिली ?
आपने उसे भेंट की थी
किसे ?
जी खनक
खनक नाम की तो मेरी कोई दोस्त नहीं है
आपने आर जे खनक को दी थी
ओह , हाँ , बिग ऍफ़ एम वाली खनक
जी जी , वो ही
तो बताइए आपको कैसी लगी ?
बहुत बढ़िया . आपके इस उपन्यास से मैंने बहुत कुछ सीखा . मैं भी इसी दौर से गुजर रहा हूँ . मुझे ऐसा लगा  रिश्ता कोई भी हो उसे एक स्पेस की जरूरत होती है तभी निभ सकता है . फिर वो लिव इन हो या शादी का .
जी बिल्कुल
जो जैसा है उसे वैसा ही स्वीकारा जाए . उस पर अपने आपको थोपा न जाए . फिर  तो रिश्ता ब्रह्माण्ड के अंत तक निभ सकता है . मुझे तो पढ़कर ऐसा ही लगा .
बिल्कुल सही पकडे हैं आप . यही कहने की कोशिश की है जो जैसा है न तो उसे बदलें न उस पर खुद को थोपें तभी रिश्ते निभ सकते हैं ,
जानती हैं , खनक मेरी पत्नी हैं
अरे वाह
और मैं उसे ये किताब कई बार पढ़ते देखता तो पूछता आखिर ऐसा इसमें है क्या ? और फिर जब मैंने इसे पढ़ा तो अपने आपको फ़ोन करने से रोक नहीं पाया
मैं शुक्रगुजार हूँ जो आपने अपनी प्रतिक्रिया दी
मैंने काफी कुछ सीखा इससे . वो जो वकील वाला हिस्सा है उससे भी . वैसे अच्छा नहीं लगता इतनी बात कर लूं लेकिन अपना पूरा परिचय न दूँ
जी बताइए
मैं अवधेश श्रीवास्तव हूँ . आपने सुना हो कभी रेडियो सिटी पर . आर जे अवधेश .
अरे वाह , ये तो बढ़िया है इसी बहाने आप से बात करने का मौका मिला
उपन्यास का जब अंत आता है तो यूं लगा जैसे हम वहीँ बैठे हैं और सुन रहे हैं शीना की कहानी उसकी जुबानी . आँखों के आगे चित्र साकार हो उठा .
ये मेरा सौभाग्य है जो आपको पसंद आया .
वादा तो नहीं करता लेकिन यदि कभी आपको बुलाएं तो आप आ सकेंगी रेडियो सिटी पर ?
जी जरूर
फिर हम इस पर और काफी सारी बात करेंगे
जी मैं खुद चाहती हूँ आज की युवा पीढ़ी जो लिव इन में रह रही है या रहने की सोच रही है उस तक ये बात पहुंचे . अपने जीवन को बर्बाद न करें वो . जैसा कि आजकल पेपर में देखिये तो कहीं अलगाव तो कहीं मर्डर या कहीं आत्महत्या ही हो रही हैं ऐसे संबंधों में .
जी , मैं तो खुद ऐसे रिलेशन में हूँ
यानि आप भी लिव इन में रह रहे हैं
नहीं मैं शादी शुदा हूँ . दस साल हो गए और हमारी अरेंज्ड मैरिज थी . लेकिन इससे मुझे सीखने को मिला कि लिव इन हो या शादीशुदा जीवन सब का अपना अस्तित्व होता है . उसके अस्तित्व को बदले बिना ही उसको स्वीकारना . तभी रिलेशन लम्बे चल सकते हैं .
जी , आपसे एक रिक्वेस्ट है
जी कहिये
आप फेसबुक पर हैं
हाँ
तो वहां ही चाहे हिंदी में चाहे इंग्लिश में अपनी प्रतिक्रिया लिख कर दे सकते हैं तो दे दीजिये . आपकी बात सब तक पहुंचे . क्योंकि आपकी प्रतिक्रिया एक विशुद्ध पाठकीय प्रतिक्रिया है जो मेरे लिए अनमोल है ,
जी जरूर लिखूँगा
शुक्रिया
अच्छा मैम
आपका बहुत वक्त लिया ,बाय
बाय

ये थी बात जो आज जन्माष्टमी पर हुई .अब मैंने सोचा वो जाने कब अपनी प्रतिक्रिया लिख कर दें और जरूरी नहीं दे भी पायें . कहना मेरा फ़र्ज़ बनता था . हर कोई अपनी ज़िन्दगी में बिजी है तो क्यों न मैं ही सारी बातचीत पढवा दूँ और खुद भी सहेज  कर रख लूं क्योंकि ये भी तो प्रतिक्रिया ही है फिर क्या जरूरी हो कि वो लिखित ही हो . मौखिक प्रतिक्रिया का भी अपना महत्त्व है . 

 
और फिर मेरे जैसी नवोदित के लिए तो हर प्रतिक्रिया महत्त्वपूर्ण है जो मेरे लेखन को दिशा देगी क्योंकि एक अंजान पाठक न आपसे न आपके व्यक्तित्व से प्रभावित होता है . वो तो सिर्फ आपके लेखन से प्रभावित होता है और वो ही एक सबसे उत्तम प्रतिक्रिया होती है .