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रविवार, 19 अगस्त 2018

“सृष्टि-जनक” मेरी नजर में





सूरजमल रस्तोगी “शांत” जी किसी परिचय के मोहताज नहीं लेकिन मैं उनके बारे में नहीं जानती थी. पिछले दिनों उनके उपन्यास “सृष्टि-जनक” पर प्रतिक्रिया पढ़ी तो पढने की जिज्ञासा हुई. उन्हें पता चला तो उन्होंने स्वयं मुझसे पता लिया और भेज दिया. उपन्यास मुझे वीरवार को मिला और उसी दिन अटल बिहारी बाजपेयी जी के बारे में खबर आ रही थी तो सारा ध्यान उधर ही था मगर जब तक वो मनहूस खबर नहीं आई तब तक उम्मीद जागृत थी तो जैसे ही उपन्यास हाथ में आया पढना शुरू कर दिया. उसके बाद शुक्रवार को रात को सोते वक्त थोडा पढ़ा और शनिवार तो जैसे उपन्यास ने अपने नाम ही लिखवा लिया. एक बार पढना शुरू किया तो अंत जाने बिना रुक नहीं पायी और रात को ख़त्म करने के बाद ही सोयी.

अब बात करती हूँ उपन्यास की जो एक विषय को लेकर शुरू होता है जिसे उन्होंने काव्यात्मक रूप में ढाल कर लिखा है जैसा कि पहले भी हुआ है बड़े बड़े लेखकों ने लिखा है फिर वो दिनकर का उर्वशी हो या मैथिलीशरण गुप्त का साकेत. यानि एक कथानक लेकर अपनी बात कहनी. भूमिका में पता चला ये उपन्यास लिखे उन्हें 20 वर्ष हो गए लेकिन धनाभाव के कारण प्रकाशित नहीं करवा पाए. कितनी बड़ी विडंबना है ये साहित्य की यहाँ पता चलता है. उधर कुछ उनकी परिस्थितियों ने भी उन्हें इजाज़त नहीं दी. बेहद संघर्षपूर्ण जीवन जीने के बाद भी साहित्य प्रेम को कम न होने दिया और जैसे ही वक्त ने मोहलत दी कृति साहित्य संसार में पहुँचा दी.

उपन्यास के मुख्य पात्र हैं विभा और विवेक. यहाँ उपन्यास में लेखक ने उन दोनों के माध्यम से प्रेम की अलौकिकता को व्याख्यायित किया है. जिस काल में ये लिखा गया उस समय में प्रेम का यही रूप हुआ करता था जहाँ शरीर गौण हुआ करते थे. शुरुआत में ‘गुलाब कोठी’ जहाँ विभा रहती है उसका बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है जो सोचने को विवश करता है वाह, कितने अच्छे इंसान हैं भार्गव साहब जो अपनी कोठी के गुलाबों को सुबह सारे मंदिरों में भिजवाया करते हैं. इस काम में कोई कोताही बर्दाश्त नहीं. वहीं अपने कामगारों के लिए उनका मानवीय पक्ष भी दिखाई देता है. कैसे उनकी सेहत की चिंता में भी रहते हैं. वहीँ धर्म जात पाँत पर भी उनका कोई हस्तक्षेप नहीं. सबको साथ लेकर चलते हैं लेकिन जैसे जैसे कहानी आगे बढती है तो पता चलता है अछूते नहीं वो भी समाज की बेड़ियों से जिन्होंने मानसिकता को जकड़ा हुआ है. जब अपनी बेटी विभा के लिए विवाह का सोचते हैं तो उंच नीच की दलदल में फंस जाते हैं. इकलौती बेटी विभा जो गुलाबों सा स्मित लिए पैदा हुई थी और हँसी उसके चेहरे को द्विगुणित करती थी तो गुण उसे अलग ही ऊँचाई प्रदान करते हैं, उसके लिए अपनी मर्जी थोपना और फिर विभा का बिना प्रतिकार किये अलग रास्ता खोज लेना और देश छोड़कर अमेरिका आगे पढने के लिए चले जाना बेशक मंजूर हो गया लेकिन ये जानते हुए कि विवेक उनकी पत्नी और बेटी दोनों को पसंद है लेकिन समाज की चिंता में बेटी को खो देना मंजूर हुआ. लेकिन अब पछताय होत क्या जब चिड़िया चुग गयी खेत क्योंकि ये इंसान की फितरत है वो बिना ठोकर खाए संभलता नहीं. ऐसा व्यक्तित्व था उनका. वहीँ विवेक एक मध्यमवर्गीय परिवार का अकेला चिराग, जो एक बेहद जहीन इंसान, एक गंभीर व्यक्तित्व जिसे उसके साथ रहने वाला भी नहीं जान सकता. जिसने जैसे नियति से कह दिया हो – ले ले चाहे कितने ही इम्तिहान मगर हार नहीं मानूँगा. पूरा जीवन एक के बाद एक कड़े से कड़े इम्तिहान देता रहा मानो ईश्वर ने उसे ही चुना हो हर चुनौती के लिए. जितने अपने मिले सबको खो देने के बाद भी जीना आसान नहीं होता लेकिन जीवटता की मिसाल है विवेक कहना अतिश्योक्ति न होगी. आम इंसान इतने झंझावातों में डूब ही जाए लेकिन हर बार सोने सा तपा और कुंदन होकर निकला. अपना धैर्य और साहस नहीं खोया अंत तक. एक विभा की इच्छा के लिए उसकी चाहतों को पूरी करने के लिए खुद को झोंक देता है. प्रेम तो सिर्फ एक ही बार किया जाता है और उसका निर्वाह कैसे किया जाता है ये कोई पढ़कर ही जान सकता है. विभा की मृत्यु, दूसरी शादी उसकी इच्छा पूरी करने को और एक बच्चे के बाद उसका भी मर जाना फिर एकाकी जीवन जीते हुए समाज कल्याण के कार्य करते रहना आसान नहीं होता. वहीँ आखिरी पड़ाव पर जब राधा, विभा की प्रतिमूर्ति सी सामने आती है तो विवेक का धैर्य भी चुक जाता है, आखिर है तो इंसान ही मगर यहाँ भी वो खुद को बांधों में बांधे रखता है. क्या आसान है एक इंसान के लिए इतना सब कुछ? शायद नहीं. मगर यहाँ प्रेम का जैसे अलौकिक रूप प्रस्फुटित होता है जब वो राधा को पूजने का उससे अधिकार मांगता है क्योंकि राधा शादीशुदा है, एक बच्चे की माँ है......यहाँ जब ये प्रसंग पढ़ रही थी तो मुझे अपनी लिखी एक कहानी “अमर प्रेम” याद आ रही थी जहाँ मैंने भी प्रेम की इसी अलौकिकता का वर्णन किया है. लगा जैसे मेरी लिखी कहानी साथ साथ चल रही है और अंत में राधा के पति द्वारा स्वीकारा जाना जैसे मेरी कहानी का ही अंश हो ........इतनी साम्यता ने हतप्रभ कर दिया. राधा और विभा कोई अंतर ही नहीं यहाँ तक कि स्वभाव, बातचीत सब में इतनी साम्यता कि विवेक की छोडो, जितने भी लोग विभा के साथ जुड़े थे सभी के लिए आश्चर्य का केंद्र बन जाना, यानि उसे विभा ही मान लेना ऐसा मोड़ है कहानी का जहाँ राधा के लिए असहज स्थिति उत्पन्न होती है क्योंकि अपनी ज़िन्दगी में वो खुश है ऐसे में यदि कोई बिना स्पर्श सिर्फ उसे पूजने का अधिकार चाहे तब उसे कैसा लगेगा ये एक स्त्री ही समझ सकती है. लेकिन प्रेम अपनी राहें खुद बनाता है जैसे इसी को परिभाषित किया है लेखक ने.

अब बात विभा के व्यक्तित्व की. विभा जिसके लिए रिश्ते कितने मायने रखते हैं ये उसे पढ़कर ही जाना जा सकता है. धर्म उसके लिए मायने नहीं रखता . मायने रखती है तो सिर्फ इंसानियत तभी तो आफताब और उसके घर से ऐसे जुड़ गयी जैसे उसी घर की हो. वहीँ प्रफुल्ल की गरीबी से द्रवित हो विवेक को पीछे हटने को मजबूर कर दिया और उससे भी बहन का रिश्ता जोड़ लिया. अनजाने लोग लेकिन एक सूत्र में बंधते गए क्योंकि उनको बाँधा विभा ने अपनी नेकनीयती से. उसकी ऊंची सोच ने, उसके खुले ख्यालों ने. अंत तक हर कोई अपनी अपनी तरह विभा की स्मृतियों को जीता रहा और उसकी चाहत को पूरा करने में लगा रहा. विभा जिसके लिए प्रेम की स्वीकार्यता शब्दों से परे थी. सबसे अच्छी बात इस उपन्यास में ये लगी कहीं भी प्रेम , प्यार या मोहब्बत जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं हुआ . सिर्फ स्नेह के नाते जुड़े विवेक से भी और अन्यों से भी.यहाँ आकर कहा जा सकता है - कौन कहता है कि मोहब्बत की जुबाँ होती है/ ये हकीकत तो निगाहों से बयां होती है ---मानो इसी को जीया दोनों ही पात्रों ने.

वहीँ विभा द्वारा अमेरिका में ही विवेक की फोटो से शादी कर लेना और कुछ फोटो सबूत के तौर पर भेज देना प्रेम की पराकाष्ठा थी जहाँ प्रेम के लिए शरीर थे ही नहीं. आत्मा का आत्मा से सम्बन्ध था तभी तो ऊंगली से विभा के खून निकलता है तो विवेक के ह्रदय पर हाथ लगाने पर वहां विवेक के खून से सनसना जाते हैं विभा के हाथ ....प्रेम का कैसा उच्च पायदान शायद ही कहीं पढ़ा होगा सिवाय लैला मजनू की दास्तान के कि एक को चोट लगती थी तो निशाँ और दर्द दूसरे को होता था. वहीँ विभा का दीन दुखियों के लिए द्रवित होना, उनके लिए कुछ करने की इच्छा का होना तो साथ ही सबको सब भाषाओँ का ज्ञान होना उसके सपने में शुमार था जिसे विवेक पूरा करता है, उसके व्यक्तित्व का हिस्सा थे.

वहीँ आफ़ताब, अनु, प्रफुल्ल उसकी माँ आदि हर इंसान का चरित्र बखूबी उकेरा है लेखक ने. सबको एकसूत्र में पिरोने वाली विभा. चरित्रों का अच्छा ताना बाना बुना है लेखक ने. आप पढना शुरू करेंगे तो रुक नहीं पायेंगे क्योंकि जानना चाहेंगे आखिर कहना क्या चाहता है लेखक सृष्टि जनक के माध्यम से? पढने पर लगेगा जैसे लेखक कहना चाहता है प्रेम ही तो सृष्टि का आधार है और खुद ब्रह्म भी आधार के बिना रचना नहीं कर सकता. ऐसा ही यहाँ हुआ जैसे विवेक को माध्यम बना लेखक कहना चाह रहे हों उसने प्रेम की अलौकिकता को जीकर एक आधार दिया है सृष्टि को आगे बढाने का जहाँ जब अपनी चाहतें गौण हो जाती हैं वहाँ ही समाज कल्याण की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है. मानवीयता उच्च पायदान पर होती है और स्वार्थपरता के लिए कोई जगह ही नहीं होती. खुद को झोंकना पड़ता है तब जाकर किसी रचना का जन्म होता है. लेखक बधाई के पात्र हैं जिन्होंने प्रेम की दिव्यता का भान कराया आज के इस युग में जहाँ प्रेम सिर्फ एक मतलब की वस्तु बनकर रह गया है. इंसानियत और भाईचारे का सन्देश देता है उपन्यास.

पूरी कहानी नहीं खोलना चाहती वर्ना रोचकता खत्म हो जायेगी. ये तो जो पढ़ेगा तो एक दो जगह जाकर तो रो ही पड़ेगा और सोचने को विवश हो जाएगा कैसे कोई इतना सब कुछ सह कर जिंदा रह सकता है.

अब एक बात प्रकाशक से कहना चाहूँगी क्योंकि ये काम प्रकाशक का है वो देखे पंक्तियाँ ऊपर नीचे तो नहीं हो रहीं जिससे प्रवाह में बाधा उत्पन्न न हो लेकिन कई जगह ऐसा ही हुआ जहाँ एक टुकड़ा ख़त्म हो रहा है उसकी अंतिम लाइन को अगले टुकड़े से जोड़ दिया गया जिससे पाठक को पढने में परेशानी होती है. ये काम लेखक का नहीं होता ये प्रकाशक को देखना चाहिए था क्योंकि 582 पृष्ठ का काव्यात्मक उपन्यास है उसमें ये त्रुटि यदि बार बार झलके तो ऊंगली प्रकाशक पर ही उठेगी.

अंत में एक बात और कहना चाहूँगी यदि इसे काव्यात्मक रूप में न लाकर गद्य में ही लाया जाता तो शायद इतने पृष्ठ भी न लगते और उपन्यास हर पाठक की पहुँच में होता क्योंकि इसकी कीमत 995 रूपये यदि कोई पढना चाहेगा तो उसे हिला देगी. यदि गद्य में ही लाया जाता तो मुश्किल से दो सौ से ढाई सौ पृष्ठों में ही सिमट जाता और हर पाठक की उस तक पहुँच भी हो जाती.

पठनीयता और रोचकता किसी भी किताब के विशेष गुण होते हैं और उसमें संग्रह खरा उतरता है. एक बार पढना शुरू करेगा पाठक तो पता भी नहीं चलेगा कब पढ़ा गया.

लेखक/कवि : सूरजमल रस्तोगी “शांत”
प्रकाशक : अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्युटर्स(प्रा.) लिमिटेड
फ़ोन : 011-23281655, 011-23270239
मूल्य : 995
पृष्ठ : 582


शुक्रवार, 10 अगस्त 2018

तुलसी शालिग्राम संयोग .....एक प्रश्नचिन्ह





1
जार जार है अस्मिता मेरी आज भी
व्यथित हूँ , उद्वेलित हूँ , मर्मान्तक आहत हूँ
करती हूँ जब भी आकलन
पाती हूँ खुद को ठगा हुआ

मेरा क्या दोष था
आज तक न कहीं आकलन हुआ
तप शक्ति से वरदान पा भविष्य सुरक्षित किया
तो क्या बुरा किया
हर स्त्री का यही सपना होता है
जीवनसाथी का संग जन्म जन्म चाहिए होता है

अपनी तपश्चर्या से आप्लावित हो
जब गृहस्थ में प्रवेश हुआ
अपने समय के शक्तिशाली वीर से मेरा विवाह हुआ
मेरी शक्ति जान वो और मदमस्त हुआ
अब मैं नहीं मर सकताइसका उसे भ्रम हुआ
तो बताओ जरा
इसमें मेरा क्या दोष हुआ ?

2
तुम्हें कृष्ण कहूं या विष्णु
दोनों रूप में तुम ही तो समाये हो
इसलिए संबोधन मैं तो तुम्हें कृष्ण का ही दूँगी
और तुम्ही से प्रश्न करूंगी
क्योंकि मूल में तो तुम ही हो सृष्टि के आधार 
फिर कैसे तुमसे तुम्हारा कोई रूप भिन्न हो सकता है 

जाने कृष्ण तुमने कहा या समाज के ठेकेदारों ने 
तुम्हें ये वीभत्स रूप दिया
लेकिन एक कटघरा जरूर बना 
और उसमे तुम्हें खड़ा किया 
जानते हो क्यों 
क्योंकि तुम्हारे नाम पर ही तो दोहन हुआ 

हाँ अबला थी या सबला 
कभी आकलन नहीं कर सके तुम 
जबकि कितनी सबल थी
जिसे तुम भी न डिगा सके 
तब तुमने धोखे का मार्ग अपनाया 
और करके शीलहरण  
कौन सा ऐसा मार्गदर्शक कार्य किया 
जिससे समाज सुसंस्कृत हुआ 
कभी विचारा इस पर ?

बेशक शापित हुए 
दंड भी भोगा 
और मुझे महिमामंडित भी किया 
बिना मेरे खुद का पूजन न स्वीकार कर 
कौन सा अहसान किया 
ये तो तुमने सिर्फ खुद को अपराधबोध से मुक्त करने को स्वांग धरा 
तुलसी और शालिग्राम का रिश्ता बना लिया 
मगर बताना ज़रा 
कैसे तुम्हारा कृत्य उचित हुआ ?

3
मांग लेते मेरा बलिदान सहर्ष दे देती
मानवता के कल्याण हेतु
खुद को समर्पित कर देती
ऋषि दधिची सम
मैं भी अपना उत्सर्ग कर देती
तो आज मैं भी गौरान्वित होती
अपने होने का कुछ मोल समझ लेती
मगर तुमने तो छल प्रपंच का मार्ग अपनाया
धोखे से मेरा सतीत्व भंग किया
भला इसमें कौन सा नया इतिहास तुमने रचा
मगर तुम्हें तो सदा धोखा छल प्रपंच ही भाया
ये कौन सा नया चलन तुमने चलाया
हाथ काटने वाले का हाथ काट गिराया
उन्मत्त मदमस्त दंभ से ग्रस्त हो
अत्याचार यौनाचार गर जालंधर करता था
तो उसके कृत्य की सजा मैंने क्यों पायी
क्यों मातृतुल्य पार्वती पर कुदृष्टि रखने वाले की पत्नी का
शीलभंग करने की नयी प्रणाली तुमने चलायी

अब शीलभंग करने को जरूरी नहीं किसी भी स्त्री का
तप की शक्ति से आप्लावित हो किसी जालंधर सम योद्धा की पत्नी होना  
बस जरूरी है उसका स्त्री होना भर
शीलभंग का अधिकार स्वयमेव पा लिया है पुरुष ने

4
ये कैसा न्याय था तुम्हारा
जो अन्याय बन पीढ़ियों को रौंद रहा है
तुम दोषमुक्त नहीं हो सकते कृष्ण
बेशक तुमने मुझे पूज्य बना
खुद को अपराधबोध से मुक्त किया
फिर भी मेरा पदार्पण न
किसी घर के अन्दर हुआ

आज भी देहरी तक ही है प्रवेश मेरा
अन्दर आना वर्जित है
तुम्हारा ये दोगला आचरण
न मुझे कृतार्थ कर पाया
शोषित परित्यक्ता सी मैं
आज भी सिर्फ देहरी की शोभा बनती हूँ
एक शापित जीवन जीती हूँ

5
कृष्ण तुम्हारी बिछायी जलकुम्भियों में 
आज हर स्त्री जल रही है , डर रही है , लड़ रही है 
मगर बाहर नहीं निकल पा रही 
हर डगर , हर मोड़ पर तुम्हारा सा वेश धरे खलनायक खड़े हैं 
उसकी अस्मिता से खेलने को 
उसका शीलहरण करने को 
और जानते हो 
अब तुम्हारी तरह महिमामंडित नहीं की जाती वो 
बल्कि पेड़ों पर टांग दी जाती है 
या फिर अंतड़ियाँ बाहर खींच मार दी जाती है 

सुनो 
कितना और दोष लोगे खुद पर 
क्या शर्मसार नहीं होते होंगे ये सोच 
तुम्हारे बोये काँटों की फसल कैसी लहलहा रही है 
कि घर बाहर हर जगह चुभ कर 
न केवल शरीर आत्मा भी रक्तरंजित हुए जा रही है 
और हल के नाम पर 
कोई तस्वीर न नज़र आ रही है 
आज शोषित का ही जीवन दूभर हुआ है
अनाचारी व्यभिचारी महिमामंडित हुआ है
क्या खुश हो इतनी स्त्रियों के शोषण का दोष सिर पर लेकर ?
क्या चैन से जी पाते होंगे तुम ?

6
एक सत्य से और अवगत करा दूं तुम्हें
बेशक अपने साथ पुजवाया तुमने
मगर तुम आये तो इंसान बनकर ही थे न
तो कैसे संभव था इंसानों का तुम्हारे
पदचिन्ह पर न चलना
नहीं मानते वो तुम्हें भगवान्
नहीं हुआ मेरा उद्धार
क्योंकि आज भी
शोषित हूँ मैं
ये जो सम्पूर्ण स्त्री जाति देखते हो न ......प्रतीक है मेरी
और तुम प्रतीक हो ......समस्त पुरुष वर्ग के
उनके लिए भगवान् नहीं हो ...........



शीलहरण कर कौन सी देवस्तुति तुल्य परंपरा के वाहक बने ........बताना तो ज़रा !!!