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बुधवार, 2 मार्च 2022

शाश्वत किन्तु अभिशप्त सत्य

 

वास्तव में हम जंगली ही हैं
लड़ना हमारी फितरत रही
'सभ्य' कहा जाना
हमारा ओढा हुआ नकाब है

खिल जाती हैं हमारी बांछें
जब भी होता है मानवता का ह्रास
युद्धोन्माद से ग्रस्त जेहन दरअसल क्रूरता और अमानवीयता के गरम गोश्त खाकर नृत्यरत हैं
अट्टहास से कम्पित है धरती का सीना

प्रेम के विभ्रम रचते
हम इक्कीसवीं सदी के वासी
दे रहे हैं एक नयी सभ्यता को जन्म
जहाँ आँसू, दुःख, पीड़ा, क्षोभ शब्द किये जा चुके हैं खारिज शब्दकोष से
यही है आज के समय की अवसरवादी तस्वीर

जद में आने वाले बालक हों, जवान या बूढ़े
क्षत विक्षत चेहरे
बिखरे अंग प्रत्यंग साक्षी हैं
लालसा के दैत्य ने लील लिया है मासूमियत को
लगा दिया है ग्रहण
एक चलते फिरते हँसते खेलते खुशहाल देश को
तबाही के निशानों के मध्य 
देश का नाम मायने कहाँ रखता है? 

उजड़े दयार कैसे लिखेंगे कहानी
जहाँ बह रहा है खून का दरिया
किस माँ के सीने को बनायेंगे कागज़ 
कैसे बनायेंगे लहू को स्याही
किस कलम को बनायेंगे हथियार
जब बित्ते भर जमीन भी न बची हो खड़े होने को
जब कहानी लिखने को बचा न हो जहाँ कोई 'इंसान'
चीखों से दहल रहा हो जहाँ आसमान
और आंसुओं के नमक से चाक हो धरती का सीना
वहाँ के इतिहास को किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं

देवासुर संग्राम हो या महाभारत का युद्ध
प्रथम विश्व युद्ध हो या द्वितीय
हो तृतीय, चतुर्थ या पंचम 
हर दौर में खोज ही लेते हैं अपनी प्रासंगिकता
आज सर्वशक्तिशाली होने की हवस में बिला गयी मानवता
वास्तव में हम जंगली ही हैं
लड़ना हमारी फितरत रही
यही है शाश्वत किन्तु अभिशप्त सत्य
इस भूमंडल का