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रविवार, 28 अप्रैल 2013

अपेक्षाओं के सिन्धु

सुनो 
अपनी अपेक्षाओं के सिन्धुओ पर 
एक बाँध बना लो 
क्योंकि जानते हो ना 
सीमाएं सबकी निश्चित होती हैं 
और सीमाओं को तोडना 
या लांघना सबके वशीभूत नहीं होता 
और तुम जो अपेक्षा के तट पर खड़े 
मुझे निहार रहे हो 
मुझमे उड़ान भरता आसमान देख रहे हो 
शायद उतनी काबिलियत नहीं मुझमें 
कहीं स्वप्न धराशायी न हो जाए 
नींद के टूटने से पहले जान लो 
इस हकीकत को 
हर पंछी के उड़ान भरने की 
दिशा , गति और दशा पहले से ही तय हुआ करती है 
और मैं वो पंछी हूँ 
जो घायल है 
जिसमे संवेदनाएं मृतप्राय हो गयी हैं 
शून्यता का समावेश हो गया है 
कोई नवांकुर के फूटने की क्षीण सम्भावना भी नहीं दिखती 
कोई उमंग ,कोई उल्लास ,कोई लालसा जन्म ही नहीं लेती 
घायल अवस्था , बंजर जमीन और स्रोत का सूख जाना 
बताओ तो ज़रा कोई भी आस का बीज तुम्हें दिख रहा है प्रस्फुटित होने को 
ऐसे में कैसे तुम्हारी अपेक्षा की दुल्हन की माँग सिन्दूर से लाल हो सकती है .......ज़रा सोचना !!!

बुधवार, 24 अप्रैल 2013

गलती से एक नज़र इधर भी करिये :)

आदर्श नगर अपने क्षेत्र में पहली बार कविता पाठ करने का मौका मिला जिसका भी अपना ही मज़ा है…………21-4-2013 को  स्वामी विवेकानन्द की 150 वीं पुण्यतिथि और नव संवत्सर पर आयोजित कार्यक्रम में प्रसिद्ध मंचीय कवियों में कवि विनय विनम्र , महेन्द्र शर्मा, अनिल रघुवंशी , बलजीत कौर तन्हा , रसिक , सत्यवान आदि  के साथ मंच साझा करने का अपना ही अनुभव रहा जिसे बयान करना मुश्किल है …………राजीव तनेजा जी की शुक्रगुजार हूँ जो उन्होने इस कार्यक्रम का विडियो बनाकर यू-ट्यूब पर डाल दिया उनके साथ बलजीत जी ने भी हमारी हौसला अफ़ज़ाई की और यहाँ आकर मान बढाया ।



गर आप सुनना चाहते हैं तो इस लिंक पर सुन सकते हैं 

https://www.youtube.com/watch?v=hZcMlW9bbAA


https://www.youtube.com/watch?feature=player_detailpage&v=hZcMlW9bbAA



अजब बात रही सुबह एन डी टीवी के एक कार्यक्रम "हम लोग " में जाना हुआ और शाम को अपने क्षेत्र में ………सुबह का कार्यक्रम भी यहाँ उपलब्ध है :


http://www.ndtv.com/video/player/hum-log/video-story/272092


सोमवार, 22 अप्रैल 2013

इन्साफ हो जायेगा

माँ बचाओ बचाओ 
कहना चाहा मैने
मगर मूँह  बंधा था मेरा माँ 
मैं रो रही थी माँ 
तुम्हें आवाज़ देना चाह  रही थी माँ 
पता नहीं माँ 
वो बुरे अंकल ने 
मेरे कपडे उतार दिए 
मुझे काटा  , नोंचा , मारा 
पता नहीं क्या क्या किया माँ 
मुझे बहुत दर्द हुआ माँ 
मैं बोल नहीं सकती थी 
मुझे अब भी दर्द हो रहा है माँ 
मुझे भूख लगी थी माँ 
मैं तुम्हें बुला नहीं सकती थी माँ 
बुरे अंकल ने मुझे बहुत मारा  माँ 
वो बहुत बुरे हैं माँ 
होश में आने पर 
जब कुछ बोल सकने लायक हुयी 
तब बिलख बिलख  कर , सिसक सिसक कर , तड़प तड़प कर 
जब उस नन्ही जान ने 
खुद पर गुजरा वाकया बयां किया 
और बेटी की मार्मिक व्यथा सुन 
पिता ने जैसे ही सिर पर हाथ धरा 
सहम गयी मासूम हिरनी सी 
आँखों में दहशत का पाला  उभर आया 
और चेतना शून्य हो बिस्तर पर लुढ़क गयी 
आह ! किस मर्मान्तक पीड़ा से , किस वेदना से 
वो मासूम गुजरी होगी 
कि  नन्ही जान ने पिता के 
स्नेहमयी स्पर्श से भी सुध बुध खो दी 
और गश खाकर गिर पड़ी 
ज़रा सोचना हैवानों , दरिंदों 
कैसे न तुम्हारा कलेजा कांपा 
और कैसे इस देश का इन्साफ न अब तक जागा 
और क्यों तुम कानूनी दांव पेंच फंसाते हो 
क्यों नहीं इन दुर्दांत भेड़ियों को फांसी लगाते हो 
जो सीधा सन्देश पहुँच जाए 
कि  अब ना कोई बलात्कारी बच पायेगा 
जैसे ही पकड़ा जाएगा 
तुरंत फांसी  पर चढ़ाया जाएगा 
गर ऐसा अब तक किया होता 
तो मासूम गुडिया का ना  ये हश्र हुआ होता 
जिसने पांच वर्ष की उम्र में 
वो ज़हर पीया है 
वो वेदना सही है जो मौत से भी बदतर होती है 
जो नन्ही जान न इसका कोई अर्थ समझती है 
जो बस बिलख बिलख कर 
बेसुध होती रही होगी 
मगर बलात्कारी के चंगुल में फंसी 
पिंजरे के मैना सी तड़पती रही होगी 
मगर उस हैवान पर ना असर हुआ होगा 
तो अब तो जागो ओ देश के कर्णधारों 
कम से कम दूसरी 
मासूम गुडियों और निर्भयाओं 
को तो बचा लो 
कुछ तो ऐसा कर डालो 
जो ऐसा जुर्म करने से पहले 
बलात्कारी की रूह काँप जाए 
दो ऐसा दंड उसे कि 
आने वाली पीढ़ी भी सुधर जाए 
अब मत कानून की पेचीदगियों में उलझो 
अब न जनता को और भरमाओ 
ओ देश के कर्णधारों 
बस एक बार उस गुडिया में 
अपनी बेटी , पोती या नातिन का 
चेहरा देख लेना तब कोई निर्णय लेना 
कम से कम एक बार तो 
अपने जमीर को जगाओ 
और उस बलात्कारी दरिन्दे को 
जनता को सौंप जाओ 
इन्साफ हो जायेगा 
इन्साफ हो जायेगा 
इन्साफ हो जायेगा 

रविवार, 21 अप्रैल 2013

मत कहना दिलदार दिल्ली अब



मत कहना दिलदार दिल्ली अब 
कहो शर्मसार दिल्ली दागदार दिल्ली 
ना जाने और कितने देखेगी व्यभिचार दिल्ली 
ना जाने और कितनी निर्भया गुडिया की 
करेगी इज़्ज़त तार तार दिल्ली


काश इतना कहने से इति हो जाती 
मगर यहाँ न कोई फर्क पड़ता है 
उनका जीवन तो पटरी पर चलता है 
जो सत्ता में बैठे हैं 
कुर्सियों को दबोचे बैठे हैं 
उनका दिल , मन और आत्मा सब 
कुर्सी के लिए ही होता है 
बस कुर्सी बची रहे 
फिर चाहे जनता कितनी पिसती रहे 
फिर चाहे कितने आन्दोलन होते रहे 
दबाव पड़े तो एक दो क़ानून बना देंगे 
उसके बाद फिर कुम्भ्करनी नींद सो लेंगे 
मगर आरोपियों को न सजा देंगे 
बस क़ानून बनाने के नाम पर 
जनता की भावनाओं से खेलेंगे 
जैसे बच्चे को कोई लोलीपोप दिखता हो 
जैसे कोई दूर से चाँद दिखता हो 
बस इतना ही इन्होने करना होता है 
बाकि जनता ने ही पिसना होता है 
जनता ने ही मरना होता है 
उस पर मादा होना तो गुनाह होता है 
फिर क़ानून हो या प्रशासन 
उनके लिए तो वो सिर्फ ताडन की वस्तु होती है 
क्या यही मेरे देश की सभ्यता रह गयी है ?
क्या यही नारी की समाज में इज्ज़त रह गयी है ?
जो चाहे जब चाहे जैसे चाहे उससे खेल सकता है 
और विरोध करने पर उसी का शोषण हो सकता है 
आह ! ये कैसा राजतन्त्र है , ये कैसा लोकतंत्र है 
जहाँ न नारी महफूज़ रही 
दो दिन पहले जहाँ कन्याएं पूजी जा रही थीं 
वहां अगले दिन कन्याएं ही अपमानित, तिरस्कृत की जा रही थीं 
ये कैसी दोगली नीति है 
ये कैसा गणतंत्र हैं 
ये कैसे देश के नुमाइन्दे हैं 
जिन्हें हमने ही शीर्ष पर चढ़ाया था 
अपनी रक्षा की डोर सौंपी थी 
आज कान बंद किये बैठे हैं 
क्या तब तक न सुनवाई होगी 
जब तक यही विभत्सता ना उनके घर होगी 
सोचना ज़रा गर ऐसा हुआ तो 
इस बार जनता न तुम्हारा साथ देगी 
जिस दिन ये दरिंदगी तुम्हारे आँगन होगी 
देखने वाली बात होगी 
कैसी बिजली तुम पर गिरेगी 
क्या तब भी यूं ही चुप बैठ सकोगे ?
क्या तब भी आँखें मूँद सकोगे ?
क्या तब भी कान बंद रख सकोगे ?
अरे जाओ भ्रष्ट कर्णधारों 
उस दिन तुम्हारा आकाश फट जाएगा 
हर क़ानून तुम्हारे लिए बदल जाएगा 
और आनन् फानन अपराधी फांसी पर भी चढ़ जायेगा 
बस यही फर्क है तुम्हारी सोच में तुम्हारे कार्यों में 
पता नहीं कैसे आईना देख लेते हो 
कैसे खुद से नज़र मिला लेते हो 
कैसे न शर्मसार होते हो 
जब जनता की रक्षा के लिए न तत्पर होते हो 
सिर्फ कुर्सी की चाहत , राजनीती की रोटी 
ही तुम्हारा धर्म बन गया है 
मगर सोचना ज़रा कभी ध्यान से 
गर जनता का मिजाज़ पलट गया तो ............?
सुधर जाओ अब भी 
बदल डालो अपने को भी 
एक बार सच्चे मन से 
हर मादा में बहन बेटी की तस्वीर देखो 
आज हर गुडिया , निर्भया 
तुम्हारी और ताक रही है 
इन्साफ की तराजू पर तुमको तौल रही है 
फिर देखना खून तुम्हारा खौलता है या नहीं 
जिस न्याय को मिलने में देर हो रही है 
वो मिलता है या नहीं 
बस एक बार तुम जाकर गुडिया को देख आना 
और आकर गर खाना खा सको 
सुख की नींद सो सको 
एक पल चैन से रह सको 
तो बता देना ....................
क्योंकि सिर्फ कानून बनाने से न कुछ होता है 
जब से जरूरी तो उस पर अमल करना होता है 
गर समय रहते ऐसा किया होता 
तो शायद गुडिया का न ये हश्र हुआ होता 
कुछ तो वहशियों पर क़ानून के डर का असर हुआ होता 

गुरुवार, 18 अप्रैल 2013

हमारी ज़िन्दगी में भी ये लम्हा आ ही गया


शोभना सम्मान समारोह---- 2012  आयोजक सुमित प्रताप सिंह , संगीता सिंह तोमर और उनकी माता जी श्रीमति शोभना जी के तत्वाधान में सम्पन्न हुआ । फ़ेसबुक और ब्लोग पर कुछ विषय दिये गये जिन पर अपनी अपनी कवितायें भेजनी थीं और हम ने भी अपनी रचना वहाँ भेजी थी जिसके आधार पर शोभना काव्य सृजन सम्मान --2012 से हमें भी सम्मानित कर सुमित ने हमारा मान बढाया जिसके हम हृदय से आभारी हैं । ब्लोगजगत की मशहूर हस्तियों से मिलना , उन्हें ब्लोगर सम्मान से सम्मानित करना , साथ मे पत्रकारिता और तकनीकी सम्मान से भी कुछ हस्तियों को सम्मानित करना एक गौरवमयी क्षण थे । इसी के अन्तर्गत शोभना काव्य सृजन सम्मान से हमें और बाकी हस्तियों को सम्मानित किया गया जिसमें मुकेश कुमार सिन्हा, पूनम माटिया, ज्योतिर्मयी पंत जी आदि शामिल थे । साथ ही ब्लोग रत्न सम्मान के अन्तर्गत जेन्नी शबनम, उपासना सियाग , मीना , अन्नपूर्णा जी आदि को शामिल किया गया। एक बेहद अनौपचारिक माहौल में औपचारिकताओं को पूर्णता प्रदान करता आयोजन बेहद सुखद था जिसमें सोशल मीडिया के रोल और उसमें हिन्दी के महत्त्व पर भी गोष्ठी का आयोजन किया गया जिस पर उपस्थित माननीय अतिथिगणों ने अपने अपने वक्तव्य रखे और माना कि आज सोशल मीडिया ने अपनी एक अलग पहचान बनाई है जिसे अपनी पहचान को और पुख्ता करने के लिये कुछ आवश्यक कदम और उठाने होंगे जिनसे सकारात्मकता के साथ संदेशपूर्ण माहौल भी बने और सोशल मीडिया अपनी उपस्थिति पूरी शिद्दत के साथ दर्ज कर सके । सुमित प्रताप सिंह ने पुलिस महकमे मे कार्यरत होते हुये भी जिस संजीदगी से ये आयोजन किया और उसे अंजाम तक पहुँचाया वो बेहद सराहनीय है । जिस प्रकार पहली बार उनके द्वारा ये आयोजन किया गया और उसे एक दिशा प्रदान की गयी वो बधाई और शुभकामनाओं के हकदार हैं कि आगे भी उनके द्वारा इसी तरह के अन्य आयोजन भी होते रहेंगे और उन्हें भी गरिमा मिलती रहेगी।

 राजीव तनेजा जी का हार्दिक आभार व्यक्त करती हूँ जिन्होंने इस आयोजन की खूबसूरती को अपने कैमरे में संजो कर हमारी यादों और हमारी ज़िन्दगी के अनमोल क्षणों को सुखकर बना दिया





























 इस आयोजन में हमारी जिस कविता के कारण हमें सम्मान मिला वो ये थी :


मुझे इंतज़ार रहेगा .........ओ समाज के ठेकेदारों !
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स्त्री पुरुष

विवादित स्वरुप
सदा से दो गोलार्ध
होता रहा हमेशा
संवेदनाओं का उत्खनन
नहीं हो पायी पहचान 
ना स्त्री ने जाना 
ना पुरुष ने जाना
बस लकीर के फकीर बने
दोनों चलते रहे 
अपने अपने हाशियों पर 
साथ होते हुए भी पृथक 
स्त्री की पवित्रता बनी उसकी देह
आखिर क्यों ?
क्या वो पुरुष जो हुआ दिग्भ्रमित
या जिसने जान बूझकर 
खुद को सौंप दिया 
किसी अनजान बिस्तर को 
क्या वो ना हुआ अपवित्र
फिर ये दोहरा अवलोकन क्यों ?
आचार विचार , मान्यताएं , रस्मों - रिवाज़ 
होते तो दोनों के लिए ही हैं
क्योंकि समाज कभी एक से नहीं बनता
और जब सह अस्तित्व की बात हो 
तो क्यों मापदंड बदल जाते हैं ?
क्या स्त्री का जन्म कोख से ना होकर
किसी श्राप से हुआ है 
जो सिर्फ वो ही उस दुराचार की शिकार बने 
क्या पुरुष जो खुद जान बूझकर 
खाई में उतरा है 
उसका जन्म ही सार्थक है 
क्योंकि वो पुरुष है 
इसलिए सब उसे माफ़ है 
क्यों हैं ये दोहरे मापदंड?
क्यों भरी गयी स्त्री के मन में ये आत्मग्लानि ?
क्यों हर दंश उसके हिस्से में ही आया ?
क्यों नहीं उसे भी समाज की एक 
बराबर की इकाई स्वीकारा गया ?
कहीं ना कहीं , कोई ना कोई तो कारण रहा होगा
रही होगी कहीं कोई दोषपूर्ण व्यवस्था 
जिसने स्त्री को दोयम दर्जा दिया होगा
जबकि शास्त्रों में तो स्त्री को सबसे ऊंचा दर्जा मिला है
फिर क्यूँ उसे देह ही समझा गया है
और भोग्या की छवि से नवाज़ा गया है 
जो कर्म एक के लिए अमान्य है 
वो दूजे के लिए कैसे स्वीकार्य हुआ 
अब ये विश्लेषण करना होगा 
एक नया शास्त्र गढ़ना होगा
और दोषपूर्ण व्यवस्था को बदलना होगा 
तभी स्त्री पुरुष 
विवादित स्वरुप ना रहकर
सह अस्तित्व के महत्त्व को सार्थक दर्शन दे पाएंगे 
और एक नए सभ्य समाज का निर्माण कर पाएंगे
 जैसे 
पुरुष की देह उसकी पवित्रता का मापदंड नहीं
वैसे ही स्त्री की देह भी उसकी पवित्रता का मापदंड नहीं
क्योंकि 
दोनों देह से इतर 
अपने अपने व्यक्तित्व से
आलोकित इन्सान हैं 
जिनके हर कर्त्तव्य और अधिकार समान हैं 
फिर कैसे देह के मापदंड पर पूरा चरित्र कसा जा सकता है 
हो कोई उत्तर तो जवाब देना 
मुझे इंतज़ार रहेगा .........ओ समाज के ठेकेदारों !

मंगलवार, 16 अप्रैल 2013

हाय रे बाब्स! तूने ये क्या किया

हाय रे बाब्स! तूने ये क्या किया 
एक अखाडा यहाँ लगा दिया 
और ब्लोगर्स के बीच घमासान मचा दिया 
तू तो कुछ दिन मे चला जायेगा 
मगर ना जाने किन किन को लडवा जायेगा 
दोस्तों ज़रा बच के रहना
 संभल कर रहना 
ये कठिन डगर है प्यारे 
इसमें फ़ंसते बडे बडे दिग्गज भी प्यारे 
जो ना होना होता वो भी यहाँ हो जाता है 
उस पर बात पहचान की हो 
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर तो कुछ भी हो सकता है 
इसलिये कहती हूँ 
रायता तो यहाँ फ़ैलना ही था 
ये तो होना ही था 

पुरस्कार हो या सम्मान 
ब्लोगर की निकलती है जान 
मुझसे आगे कोई कैसे जाये 
कैसे अपना नाम कमाये 
जिसे हम सिर पर बिठायें 
बस वो ही आगे जाये 
जब हो ऐसी सबकी मानसिकता 
फिर कहो तो कैसे ना निकले जान 
अब तुम भी लो मान 
ये तो होना ही था 

गुटबाजी भी बढनी थी 
टाँग् भी खींचनी थी 
कुर्सी से गिराना भी था 
और सबसे बडी बात 
खुद को कर्ता धर्ता
और बैस्ट आलोचक भी बताना था
ताकि हम भी अपनी पह्चान बना सकें 
अपना उल्लू भी सीधा कर सकें 
इस तरह एक नाम अपना भी कमा सकें 

ये ब्लोगजगत है प्यारे 
यहाँ ज़रा संभल कर आना 
और सोच समझ कर ही 
कदम आगे बढाना 
मूंह में राम बगल में छुरी 
लिए यहाँ मिलते हैं 
पीठ पीछे तुममे ही दोष गिनते हैं 
सामने फर्शी सलाम ठोकते हैं 
यहाँ दोगले चेहरे , दोगले चरित्र ही 
ज्यादा दिखते  हैं 
जिनका न दीन ईमान होता है 
बस अपनी पोस्ट और नाम के लिए 
किसी के भी चरित्र का हनन करते हैं 
इसलिए कुछ कहना सुनना  बेकार है 
मान लो मेरी बात प्यारे 
ये तो होना ही था 

जहाँ भी पुरस्कार हो 
उस पर अंतर्राष्ट्रीय पहचान की बात हो 
कैसे कोई हजम कर सकता है 
आरोपों प्रत्यारोपों का यहाँ 
सिलसिला चलता है 
झूठे सच्चे बेनामी 
सभी हथकंडे अपनाये जाते हैं 
बस जी हजूरी करने वाले की ही 
यहाँ जय जय कार  होती है 
सच कहने वाले की तो सिर्फ हार होती है 
इसलिए मान लो मेरी बात 
ये तो होना ही था ...........नादानों 



(अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कौन सा हिन्दी ब्लोग सर्वश्रेष्ठ चुना जायेगा आजकल लेटेस्ट यही ब्लोग्स पर चल रहा है और आरोपों प्रत्यारोपों की बाढ आयी हुई है तो हमारी लेखनी कहाँ खामोश रहने वाली है …………यहाँ के रंग देख उसने भी बहती गंगा में हाथ धो लिये :) कितना समझाओ इसे चुप रहो तुम्हें क्या करना है मगर लेखनी है कि मानती ही नहीं :)  ) 

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

बैठ मेरे पास तुझे देखता रहूँ …………

सोचती हूँ कभी - कभी
ना जाने क्यों छोडा उसने
क्या कमी थी?
खुद की तो पसन्द थी
रूप रंग पर तो जैसे
भोर की उजास छलकती थी
आईने भी शर्माते थे
जब रूप लावण्य दमकता था
ना केवल सूरत
बल्कि सीरत में भी
ना कहीं कम थी
फिर ऐसा क्या हुआ?
क्यों तूने वो कदम उठाया?
क्या सिर्फ़ इसलिये
कि मै मर्यादा पसन्द थी
और ठुकरा दिया तुम्हारा नेह आमन्त्रण
जिसे तुमने मेरा गुरूर समझा
और चल दिया अपना तुरुप का पत्ता
खुद को काबिल बना
भेज प्रस्ताव अंकशायिनी बना लिया
मगर तब तक थी अन्जान
तुम्हारे वीभत्स चेहरे से ना थी पहचान
तुम तो इंसान थे ही नहीं
पाशविक प्रवृत्ति ने जैसे सिर उठाया
तो धरा का भी रोम रोम थर्राया
बलात शारीरिक मानसिक अत्याचार
उस पर भी ना उफ़ किया मैने
कहो तो ………कौन सा गुनाह किया मैने?

और एक दिन डोर टूट ही गयी

जो बंधी थी अविश्वास के कच्चे तारों से
उसे तो टूटना ही था

मगर अब

सोचती हूँ ………
इक उम्र उस गुनाह की सज़ा
भुगतती रही
जो ना कभी की मैने
फिर मेरे साथ क्यों ऐसा हुआ?
क्या प्रेम का प्रतिकार प्रेम से देना ही जरूरी होता है?
क्या पुरुष का अहम इतना अहम होता है
कि किसी की उम्र तबाह कर दे
और खुद उफ़ भी ना करे?
और सबसे बडी बात
जो संस्कारों में घोट कर पिलाई जाती है
मर्यादा……मर्यादा………मर्यादा
तो क्या मेरा मर्यादा में रहना गुनाह हो गया?

उम्र भर वो ज़ख्म सींया जो हमेशा हरा ही रहा ………

और
इधर आज भी आईना कहता है
क्या फ़र्क पडता है उम्र के बीतने से
बैठ मेरे पास तुझे देखता रहूँ …………

ये खडी फ़सलों पर ही ओलावृष्टि क्यों होती है ………नहीं समझ पायी आज तलक!!!

रविवार, 7 अप्रैल 2013

यूँ अपने ही नाखूनों से अपनी ही खरोंचों को खरोंचना आसान नहीं होता


जो कभी हुआ ही नहीं 
जो कभी मिला ही नहीं 
जिसका कोई वजूद रहा ही नहीं 
मैने उस इश्क को पीया है 
और जीया है साहिबा 

यूँ अपने ही नाखूनों से अपनी ही खरोंचों को खरोंचना आसान नहीं होता 

दिल धडकता भी हो 
साँस आती भी हो 
रूह पैबस्त भी हो 
मैने हर उस लम्हे में 
खुद को मरते देखा है साहिबा 

यूँ अपने ही नाखूनों से अपनी ही खरोंचों को खरोंचना आसान नहीं होता 

आँच जलती भी रही 
रोटी पकती भी रही 
भूख मिटती भी रही 
मैने उस चूल्हे की तपन में 
खुद को सेंका है साहिबा 

यूँ अपने ही नाखूनों से अपनी ही खरोंचों को खरोंचना आसान नहीं होता 

बुधवार, 3 अप्रैल 2013

प्रेम का मौसम, इश्क का दरिया , मोहब्बत का जुनून !!!

निरुपमा सिंह की वाल पर ये मैसेज पढा 

* अगर भगवान् आप से कहे कि किस उम्र में ठहर जाना चाहती हो तो 


आप किस उम्र को पसंद करेंगी ???

तो ये ख्याल उभरा सोचा सबसे शेयर किया जाये ......और ये है मेरा 


ख्याल :)


वहाँ रुकना चाहूँगी जहाँ 

जीवन मे निस्वार्थ शाश्वत प्रेम की 
अजस्र धारा बह रही हो , 
कोई हो जो मुझे मुझसे ज्यादा जान ले , 
कोई हो जो मुझे मुझसे ज्यादा चाह ले , 
हो कोई ऐसा नाद जिसके बाद ना सुनूँ कोई आवाज़ 
बस वहीं ठहर जाये जीवन , 
वहीं थम जाये वक्त , 
वहीं रुक जाये कायनात 
और हवाओं के तार पर कोई सुर छिडा है प्रेम का , प्रेम के लिये , प्रेम से 
आह ! बस …………बस …………बस 
नहीं चाहिये और कुछ उसके बाद 
जहाँ सितारों भरी आसमाँ की चूनर ने शामियाना ताना हो 
और धरा ने बसंत को पुकारा हो 
और प्रेमी दिलों में बजता प्रेम का इकतारा हो ………
कहो तो ऐसे मौसमों को छोड 
कौन जाये ज़िन्दगी की तल्खियों से गुजरने को 
अब इसे स्वप्न कहो या हकीकत 
मगर मै ज़िन्दगी के उसी मोड पर ठहरना चाहूँगी 
जहाँ मेरा प्रियतम मेरे साथ हो
 हाथों मे हाथ हो 
और निगाहों मे इक दूजे का अक्स चस्पाँ हो 
यूँ तो ठहरने के मौसम नहीं हुआ करते 
मगर प्रेम के मौसम तो हर मौसम में ठहरा करते हैं 
अंगडाइयाँ लिया करते हैं 
जहाँ पतझड भी हरे लगते हैं 
जब कोई ऐसा चाहने वाला हो 
जो आँख की नमी भी सोख ले , 
प्रियतमा के लब पर इक मुस्कान के लिये 
अपने लहू से धरती को सींच दे …………
कौन कमबख्त चाहेगा छोडकर जाना इश्क की इन कमसिन गलियों को
कौन कमबख्त ना चाहेगा रहना इन वादियों में उम्र के ज़िबह होने तक  
आखिर ज़िन्दगी की पहली और अन्तिम प्यास का
 निर्णायक मोड यही तो होता है 
जिसकी चाह में मन का पंछी जीवन का सफ़र तय करता है 
और जब किसी खुदा की नेमत से 
वो पल खुद बख्शीश बन झोली मे गिरा हो 
फिर कैसे ना चाह का प्याला लबालब भरा हो 
ओ खुदा ! एक बार ठहरा दे उस मौसम को मेरी ज़िन्दगी में 
या ज़िन्दगी के उसी मौसम में उम्र फ़ना हो जाये 
तो हसरत हर, दिल की निकल जाये 
पंचतत्वों मे से दो तत्व हैं हम आग और पानी 
और सुना है आग और पानी के ठहरने का 
सिर्फ़ एक ही मौसम हुआ करता है …………प्रेम का मौसम, इश्क का दरिया , मोहब्बत का जुनून !!!