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बुधवार, 28 सितंबर 2011

कुछ तो था उसमे

कुछ तो था उसमे
शायद उसकी आदत
बच्चियों सी जिद पकड़ने की
और फिर खिलौना देख
बच्चे जैसे खुश होने की
या शायद उसकी बातें
जिसमे मैं तो कहीं नहीं होता था
मगर सारा ज़माना अपने संग लिए घूमती थी
हर बात पर खिलखिलाना
हर बात की खाल खींच लाना
हर बात पर एक जुमला कस देना
या शायद उसकी वो दिलकश मुस्कान
जिसमे बच्चों की मासूमियत छुपी थी
जैसे किसी फूल पर शबनम रुकी हो
और इंतज़ार में हो कब हवा का झोंका आये
उसके वजूद को हिलाए
और वो नीचे टपक जाए
ना जाने क्या था उसमे
मगर कुछ तो था
शायद ख्वाब को पकड़ने की उसकी आदत
वो मेरी आँखों में चाँद देखने की उसकी जिद
और फिर उस चाँद को
किताब में सहेजने का उसका जूनून
या शायद एक चंचल हवा का
रुके हुए पानी में 

हलचल पैदा कर जाने जैसा 
उसका वजूद
कभी लगती

किसी मदमस्त इठलाती 
पवन की मीठी बयार सी
तो कभी लगती जैसे
जेठ की तपिश में जलती रूह पर
किसी ने बर्फ का फाया रखा हो
या शायद सागर में तैरती वो कश्ती
जिसमे मुसाफिर को मंजिल की चाह ना हो
बस सफ़र चलता रहे यूँ ही
अनवरत ............अनंत की तरफ
बस उसका साथ हो
कुछ तो था उसमे
तभी आज तक
उसकी सरगोशियाँ हवाओं में सरसरा रही हैं
कानों में गुनगुना रही हैं
रूह पर थाप दे रही हैं
एक संगीत जैसे कोई बज रहा हो
और वो कोई गीत गुनगुना रही हो

तभी उसमे कुछ होता है
जिसे भूल पाना नामुमकिन होता है 

कुछ आहटें बिन बुलाये भी दस्तक देती हैं ..............

तेरे बिना जिया लागे ना


सुनो 
देखो ना
इक युग बीता
मगर देखो तो
मेरी आस का टोकरा
कभी रीता ही नही
सबने मुझे बावरी बना दिया
तेरे विरह में ये नाम दे दिया
मगर तुम बिन मेरा ना
कोई पल रहा अछूता
फिर भला कैसे कहूं 
तेरे बिना जिया लागे ना
तुम तो सदा
मेरी आँख की ओट में

करवट लेते रहे
कभी नींद में तो कभी ख्वाब में
मिलते जुलते रहे
सुना है
दुनिया कहती है
तुम यहाँ कहीं नहीं हो अब
अब नहीं आओगे वापस
जाने वाले फिर नहीं आते
मगर ये तो बताओ
तुम गए कहाँ से हो
क्या मेरी यादों से
क्या मेरे नयनों से
क्या मेरे दिल से
हर पल तो तुम्हें
निहारा करती हूँ
हर पल तुम्हारा वजूद
मेरे ख्वाबों से
अठखेलियाँ करता है
कभी रूठा करते हो
कभी मनाया करते हो
कभी मेरी माँग
अपनी प्रीत से सजाया करते हो
कभी चाँदनी रात में
मेरी वेणी में फूल लगाया करते हो
कभी किसी झील के किनारे
ठहरे हुए पानी में
चाँद की सैर पर ले जाया करते हो
कभी तारावली के फूलों से
धरती सजाया करते हो
और मुझे वहाँ किसी
ख्वाब सा सजाया करते हो
तो बताओ ना
कौन है दीवाना
ये दुनिया या मैं
बताओ तो
जब हर पल
हर सांस में
हर धड़कन में
मेरी रूह में
तुम ही तुम समाये हो
फिर कैसे कह दूं
तेरे बिना जिया लागे ना

शनिवार, 24 सितंबर 2011

आ मेरी चाँदनी








आ मेरी चाँदनी 

तुझे कौन से 

दामन मे सहेजूँ

कैसे तेरी राहो को
रौशन करूँ
कौन से नव 
पल्लव खिलाऊँ
जो तू मुस्काये तो
मै मुस्काऊँ
ये जग मुस्काये
हर कली खिल जाये
चाँद की चाँदनी भी
तुझसे रश्क खाये

 आ मेरी चांदनी 
तुझे ऐसे संवारूं
जो तू चले तो 
हवाये चले
जो तू रुके तो
वक्त थम जाये
तेरी इक जुम्बिश पर
ये जहाँ हिल जाये
आ मेरी चाँदनी
तुझे सीने मे बसा लूँ
और एक नया जहाँ बसा लूँ
जिसमे तू ऐसे सिमट जाये
कि हर आंगन महक जाये







आ मेरी चाँदनी 

इक दीप जलाऊँ

जिसकी रौशनी में

हर आँगन महक जाये
घर घर गूंजे किलकारी
खिले हर बगिया न्यारी
तू हर घर में महक जाये
तेरी खुशबू यूँ बिखर जाये
हर आँगन में तुझसी 
इक कली खिल जाये 

आ मेरी चाँदनी 
तुझे पलकों में सजाऊँ
तुझे तेरा हक़ दिलाऊँ
और इस जहाँ को 
इक आईना दिखाऊँ
तुझे ऐसे बुलंद करूँ
कि आसमाँ भी छोटा पड़ जाये
और तेरा सितारा 
जहाँ में रोशन हो जाये
आ मेरी चाँदनी
तुझ पर हर ख़ुशी मैं लुटाऊँ 
और तेरी बुलंदियों को 
आसमाँ पे सजाऊँ

बुधवार, 21 सितंबर 2011

कहीं ये मन की मौत का कोई संकेत तो नहीं ?

कहीं कोई हलचल नहीं
नीरव निस्तब्ध अंतर्मन
निर्जन वन सा मन आँगन
कोई शब्द संचयन नहीं
कोई नव सृजन नहीं
सब ओर सिर्फ एक 
मरघट की ख़ामोशी
कहीं कोई दूर 
सियार भी नहीं बोल रहा
जो वातावरण का 
सन्नाटा कुछ तो घटे 
कब्रिस्तान की ख़ामोशी 
चिताओं की जलन
और दूर दूर तक फैला 
भयावह घटाटोप अँधेरा
कोई आकृति नहीं
कोई आकार नहीं
सिर्फ एक उमस
जिसमे घिरा अंतर्मन
कहीं ये मन की मौत का कोई संकेत तो नहीं ?

शनिवार, 17 सितंबर 2011

बताओ तो अब सुलगने को क्या बचा ?

एक हसरत के पाँव में
जैसे किसी ने आरजुओं के
घुंघरुओं को बांधा हो
उम्र के लिहाज को
जैसे किसी ने
उच्छंखरल नदी में डाला हो
रिश्ते की करवट ने
जैसे चाँद दिन में निकाला हो
मोहब्बत के चेनाब में
जैसे पक्का घड़ा उतारा हो
कुछ ऐसे मोहब्बत का धुआँ
मेरी रूह में पैबस्त हो गया है


बताओ तो अब सुलगने को क्या बचा ?

मंगलवार, 13 सितंबर 2011

आखिर कोई तो हो कारण

सुनो
आजकल मन तुम तक नहीं पहुँचता
पता नहीं किन जंगलों में भटकता है
पता नहीं किस कांटे में उलझा है
जो अब फूलों की डगर नहीं देखता
कहीं दिखे तुम्हें किसी
अन्जान शहर में
अन्जान डगर पर
अन्जान महफ़िल में
किसी कांटे से उलझा
तो उसे याद कराना
हर बीता लम्हा
जो तुम्हारे साथ गुजरा था
शायद दिल की जमीन नम हो जाए
और फिर भी ना माने तो
एक बार उसे वापसी की राह दिखाना
जहाँ ये ठूंठ उसके इंतज़ार में सूखा पड़ा है
अब इसमें हलचल नहीं होती
आखिर कोई तो हो कारण
चाँदनी को जमीं तक पहुँचने के लिए

बुधवार, 7 सितंबर 2011

युगों की प्यास को अभिशप्त होने से पहले

सुनो
कहो
..............
अरे कहो ना
अब खामोश क्यूँ हो?


जानते हो
कब से
शायद अनंत जन्म से
हम प्रतीक्षारत थे
और हर क्षण
एक दूजे की चाह
एक दूजे का साथ
एक दूजे में समाहित
हमारे वजूद थे
वजूद जानते हो ना कौन से?


हाँ जानता हूँ...........
रूहानी वजूद
जो मिटकर भी नहीं मिटते
जो दूर होकर भी
पास होते हैं
एक दूजे के साथ होते हैं

देखो ना
कहीं आज अमावस तो नहीं
पूनम तो कभी
हमारी ज़िन्दगी में आयी ही नहीं
कभी चाँदनी में
रूह मुस्कायी ही नहीं
कोई कली किसी गुलशन में
खिलखिलाई ही नहीं


हाँ सही कहते हो
शायद आज
चाँद भी शर्मिंदा है
दो चाहने वालों के प्रेम का
साक्षी जो ना बन पाया
शायद मालूम हो गया है उसे
अब चाँदनी की हसरत
रूहों पर नहीं उतरती
किसी सूईं  में पिरो कर
कोई नहीं लगाता टांका
चाँदनी के तागों  का
महबूबा के केशों  में
देखो ना .............
शायद आज कोई
गवाह बनना नहीं चाहता
हमारे मिलन का
देखो तो .............
तभी सबने मुँह छुपाया है
जैसे प्रलय का कोई
चिन्ह नज़र आया है
जैसे सिर्फ एक
कँवल ही मुस्काया है
जिस पर हमारी प्रीत
का कोई मोती उभर आया है
अकेला बह रहा है
इस अथाह सागर में
आज शरीर होते
तो क्या हम होते?
नहीं ना...............
बस ये प्रेम ही है
जिसने प्रवाहमान बनाया है
शायद खुदाई नूर का
कोई करिश्मा नज़र आया है
तभी कहीं कोई विनाश का
चिन्ह ना नजर आया है
सिर्फ और सिर्फ
वो बहता हुआ
शांत सौम्य स्थिर अटल
एक ध्रुव तारा ही नज़र आया है
आओ चलें
आज प्रेम को
पूर्णविराम दे दें
युगों की प्यास को अभिशप्त होने से पहले

शनिवार, 3 सितंबर 2011

हिंदी की सच्ची तस्वीर








दोस्तों
मेरा ये आलेख इस माह के गर्भनाल के अंक मे छपा है जिसे आप फ़ोटो पर क्लिक करके बडा  करके पढ सकते हैं।