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शनिवार, 31 मार्च 2018

नहीं, ये मैं नहीं

नहीं ये मैं नहीं
नहीं वो भी मैं नहीं
मैं कोई और थी
अब कोई और हो गयी


बेदखली के शहर का आखिरी मज़ार हूँ
जिस पर कोई दीया अब जलता नहीं
हाँ, मैं वो नहीं
मैं ये नहीं


मैं कोई और थी
जिसकी चौखट पर
आसमाँ का सज़दा था
पीर फ़क़ीर दरवेश का कहकहा था


सच, वो कोई और थी
ये कोई और है
पहचान के चिन्हों से परे
इक रूह आलाप भरती है
मगर सुकूँ की मिट्टी से
न रुत ख्वाब की बदलती है


जो बिखरी मिटटी से बुत बना दे और बुतपरस्ती कर ले
यकीं कर
मैं वो नहीं, वो नहीं, वो नहीं


अब दरका हुआ आईना हूँ मैं
पहचान के तमाम चिन्हों से परे
उम्र जब लिबास बदलती है
न खोजचिन्ह छोड़ती है
अब खोजती हूँ खुद को
मैं कौन? मैं कौन? मैं कौन?

रविवार, 25 मार्च 2018

राम...बधाई और शुभकामनाओं तक

राम
बधाई और शुभकामनाओं तक ही बची है तुम्हारी प्रासंगिकता
जानते हो
प्रयोग होते हो तुम अब एक अस्त्र की तरह
जिससे जीती जाती हैं जंग

तुम, तुम्हारी मर्यादा और तुम्हारा औचित्य
महज प्रायोगिक हथियार हैं
जिनसे काटी जाती हैं सभ्यताओं की नस्लें
इस मर्यादाविहीन समय में
मर्यादा महज वो खिलौना है
जिससे दूसरों को ही सिखाया जाता है
खुद पर अमल करना शर्म का विषय गिना जाता है

क्या सोचा था कभी तुमने
जो राह तुम दिखा रहे हो
वहां ऐसी नागफनियाँ उगेंगी ?
अब काटने को नहीं बचा कोई औजार
क्योंकि
यहाँ सभी औजारों में तब्दील हो चुके हैं

भय का कोलाहल मथ रहा है
पंगु है चेतना
हावी है वासना
तत्वचिंतन महज कोरा ज्ञान भर है
भुनाने का एकमात्र अवसर हो तुम

क्या वाकई खुश होते होंगे तुम देख कर
झूठी संवेदनाएं और प्रतिक्रियाएं
जबकि जानते हो आज तुम महज एक मुद्दा भर रह गए हो

बताओ तो जरा
ऐसे निसहाय समय में कैसे दूँ तुम्हारे जन्म पर तुम्हें शुभकामनाएं
जब शुभकामनाओं का कटोरा भरा है
समय की दुर्दान्तता से
असामाजिक तत्व सी हो गयी है समय रेखा
ह्रदय उमगे भी तो भला किस बिनाह पर ?

क्या नहीं लगता राम तुम्हें
आज तुम्हारे जन्म को बना दिया
इस स्वार्थी जगत ने एक अभिशाप तुम्हारे लिए ...ऐसा तो नहीं सोचा था न तुमने?

उन्होंने तुम्हें
न भगवान् रहने दिया न इंसान
विडंबना की दहलीज पर
कैसे चटखती होंगी तुम्हारी श्वासें तिल तिल
मापने को नहीं मेरे पास कोई यंत्र 
 
बस इतना समझ लो .....काफी है
बदल चुके हैं अब रिवाज़
जन्मदिन मनाना महज दिखावा भर रह गया है
और
यहाँ जन्म लेना अब नियति है तुम्हारी... बार बार हर बार


बुधवार, 21 मार्च 2018

एक लम्बे अरसे बाद

एक लम्बे अरसे बाद
जब खोलती है घूँघट
अपने मुख से कविता
चकित रह जाता है कवि
देख उसका अनुपम सौन्दर्य

उसकी काम कमान भवें
नेत्रों की चपलता
धीर गंभीर मुखाकृति पर
छोड़ जाती हैं एक विरोधाभास

वो कोई और थी
या तुम कोई और हो
पहचान के सभी चिन्ह मिलते हैं जब नदारद
हो जाता है कवि
चारों खाने चित्त

अब किसे सहेजे
उठ खड़ा होता है प्रश्न
और समय के गर्भ से मिलता है उत्तर
बचपन हो या यौवन
अवसान तो होता है
और जो परिपक्वता प्रौढ़ावस्था को प्राप्त होती है
वहीँ अनुभव की पोटली से सजी श्वेत केशराशी
कर देती है द्विगुणित सौन्दर्य कविता का
जिसका कभी अवसान नहीं हुआ करता 
आओ करो उद्घोष कवि
वक्त जो बीता 
उदासीन निरुद्देश्य 
किसी निरर्थक समाधि सा
उसी के गर्भ में छुपे होते हैं बीज कविता के
वही रचता है कालजयी कविता 
और तुम बन जाते हो कालजयी कवि
मान लेना 
वो खाली दीवारों को तकना 
छत पर मकड़ी के जालों को देखते रहना 
खुद से भी बेजार हो उठना
नहीं था निरर्थक , निरुद्देश्य 
बेचैनी बेसब नहीं हुआ करती ... जानते हो न 

खालीपन वास्तव में खालीपन नहीं होता 
भर रहे होते हो तुम उस वक्त 
जरूरी हवा, पानी और धूप
यही है खाद 
तुम्हारी तरलता की 
क्योंकि 
संवेदनाओं के बीज 
मौसम के अनुकूल  होने पर ही प्रस्फुटित हुआ करते हैं


समय के सीने पर छोड़ने को पदचाप 
जरूरी है तुम्हारा गूंगे वक्त से मौन संवाद

#विश्वकवितादिवस


गुरुवार, 15 मार्च 2018

भामती मेरी नज़र में








प्राचीन ग्रंथों वेदों उपनिषदों से आम इंसान अनजान ही रहता है. जितना उसे कहीं सुनने को या थोडा बहुत पढने को मिलता है उसी के आधार पर अपनी सोच बना लेता है. ऐसी सोच खतरनाक होती है क्योंकि आधा ज्ञान कभी समाज को सही दिशा नहीं दे सकता. ऐसे में जरूरी है ज्ञान का प्रचार प्रसार. उसके लिए जरूरी है उन ग्रंथों को खंगालना और फिर उनके मूल तत्व की व्याख्या सरल शब्दों में करना. इसके लिए जरूरी है किसी प्रकांड पंडित का होना और ऐसा ही किरदार है Ushakiran Khan उषा किरण खान जी के उपन्यास ‘भामती’ में वाचस्पति का, जिसके बचपन में माता पिता मर जाते हैं और गाँव के लोग और गुरु के आश्रम में उनका और उनकी बहन सुलक्षणा का जीवन यापन होता है. 


उपन्यास का मुख्य तत्व है उस समय के लोगों का आपसी विश्वास, प्यार और भाईचारा. जहाँ आज के जीवन जैसे मतलब के रिश्ते नहीं थे. जैसे कण कण अपना हो ऐसा प्यार वाचस्पति और सुलक्षणा को मिलता है. विद्वानों का गाँव है तो विद्वता कण कण से फूटती है. जिसने आधार दिया वाचस्पति को, उनके लेखन को. वहीँ समयानुसार बहन का विवाह होना, वाचस्पति का बीमार पड़ना और फिर गुरुपुत्री भामा से विवाह होना. यहाँ तक सब सहज लगेगा लेकिन सहज है नहीं. वाचस्पति जब प्रकांड पंडित बन जाते हैं तो उन पर जिम्मेदारी आ जाती है ग्रंथों की टीका लिखने की और वो लिखते भी हैं. यहाँ वाचस्पति का चरित्र कितना जुझारू था वो जानना जरूरी है. जिसने अपने आप को पूरी तरह टीका में झोंक दिया. कोई मतलब नहीं संसार से. सिर्फ अपने कमरे में दीये की रोशनी में संलग्न रहना. भोजन पानी के लिए उठना उसमे भी बात न करना. कोई आ जाए तो जरूरी बात का संक्षिप्त उत्तर देना बस. ऐसा व्यक्तित्व जो तीन पहर सोता है बाकी पूरा वक्त टीका करने में लगा देता है. ऐसा समर्पण जिसका हो वो कैसे नहीं इतिहास रचेगा. दूसरी बात उनकी ख्याति का फैलना, राजा द्वारा उचित सहायता देना, बेशक राजा कमजोर है, दरबारी भी स्वार्थी हैं फिर भी वो वक्त ऐसा था जब विद्वान का सम्मान हुआ करता था. उनके लेखन पर राजा का अधिकार होता था. वो उन्हें सभी तरह की सुविधाएँ मुहैया करवाया करते थे. ये तो बात हुई वाचस्पति की. लेकिन यहाँ एक मुख्य किरदार है जो अँधेरे में बेशक रहा लेकिन उसी के त्याग ने वाचस्पति को वो स्थान दिलवाया जो शायद तब तक संभव ही नहीं होता जब तक ऐसा न हुआ होता. ये है वाचस्पति की पत्नी ‘भामती’. भामती सिर्फ पत्नी ही नहीं रही बल्कि जैसे एक माँ बच्चे का पालन पोषण करती है उस तरह वाचस्पति की सेवा की. पति पत्नी के सम्बन्ध क्या होते हैं वो तो उसने जाने ही नहीं. उसने सिर्फ ये जाना स्वामी एक बहुत बड़ा कार्य कर रहे हैं तो उनके कार्य में कोई विघ्न न आये. रात और दिन एक कर यदि वाचस्पति टीका करने में व्यस्त रहे तो भामती ने उन्हें समय से भोजन देने, कलम तैयार करने, दीपक में तेल डालने में ही अपना जीवन होम कर दिया. क्या संभव है आज की किसी स्त्री में ऐसा समर्पण. जहाँ पति दीं दुनिया से इतना बेखबर हो जाए कि उसे पता ही न चले कि 18 साल लग गए उसे इस कार्य में और वो भूल चुका है कि उसकी कोई पत्नी भी है. 18 साल साथ रहकर भी वियोगी का जीवन जीती है भामती शायद सीता ने भी इतना वियोग राम का न सहा होगा जितना भामती ने सहा. और सबसे बड़ी विडंबना उसके जीवन की तब थी जब अंत में वो पति का मुख देख समझ जाती है आज कार्य पूर्ण हो गया पंडित जी का, तब दीपक में तेल डालती है तब उनकी दृष्टि जब भामती पर पड़ती है और वो कोशिश करते हैं उन्हें पहचानने की लेकिन पहचान नहीं पाते तब पूछते हैं – “सुमुखी आप कौन हैं?” उफ़! कितना बड़ा कुठाराघात होगा किसी स्त्री के लिए, किसी पत्नी के लिए जब पति पूछे तुम कौन हो? शायद ही ऐसा उदाहरण कहीं देखने को मिले सिवाय दुष्यंत और शकुन्तला के वो भी श्राप के वशीभूत. यहाँ पत्नी 18 साल से सामने हैं लेकिन वो अपने मनन और चिंतन में खुद को भी भूल गए इस हद तक कि अंत में पत्नी को भी न पहचान पाए. बेशक समाजोपयोगी कार्य किया, जिसकी देश को बहुत आवश्यकता थी लेकिन वहीँ पतिधर्म से तो च्युत ही रहे. वो कैसा जीवन जिसमे सांसारिक निर्वाह का कर्तव्य भी कोई न निभा पाए. हम कह सकते हैं बुद्ध ने भी तो गृहत्याग किया और फिर समाज को एक दिशा दी, जीने का मूलमंत्र दिया तो इन्होने भी ऐसा किया तो क्या बुरा किया? लेकिन कम से कम वहां बुद्ध ने गृहत्याग तो किया था , पत्नी को उनके लौटने की कोई आशा तो नहीं बची थी लेकिन यहाँ पति सामने है, उसका हर कार्य पत्नी कर रही है फिर भी वो इतना डूब गया कि अपनी पत्नी को ही भूल गया. यौवन का स्वर्णिम काल जिसने पति के कार्य में होम कर दिया हो और वो जब ऐसा प्रश्न करे तो विचारिये उस पत्नी के दिल के कितने टुकड़े टुकड़े हो गए होंगे लेकिन फिर भी वो खुद को संभालती है और जवाब देती है – ‘भामती, आपकी अर्धांगिनी स्वामी’ जाने कितने ज्वालामुखी फट जाते हैं एक साथ वाचस्पति के ह्रदय में और तब अहसास होता है उन्हें अपनी भूल का. तब याद आता है क्या रूप था उसका जब विवाह किया था और आज एक भी चिन्ह नहीं बचा. हृदय ग्लानि से भर उठता है लेकिन ‘का वर्षा जब कृषि सुखानी’ यहीं लागू होता है जब भामती के ह्रदय में एक काँटा हर पल चुभता है और वो व्यक्त करती है –‘मैं आपकी कुल परंपरा को आगे बढाने योग्य नहीं रही’. स्त्री मन की व्यथा. अपना पूरा यौवन दीप की बाती सा होम कर दिया जैसे दीप संग वो खुद जली और मातृत्व सुख से भी वंचित हो गयी इतना लम्बा समय उसने बिना किसी शिकायत के बिता दिया. सौदामिनी एक वैद्य है वो कहती भी है उसकी ये तपस्या देख कि ऐसी औषधि दे दूंगी जिससे पंडित जी थोडा समय तुम्हें भी दे सकेंगे लेकिन भामती जैसी दृढ निश्चयी शायद ही मिले जो जानती है लोक कल्याण के मार्ग पर अग्रसर हैं उसके स्वामी इसलिए वो सौदामिनी का प्रस्ताव अस्वीकार कर देती है. बेशक स्त्री है तो स्त्री सुलभ चाहतें जन्म लेती हैं लेकिन स्वयं पर कितना नियंत्रण है उसका ये पढ़कर ही जाना जा सकता है. अंत में वाचस्पति का जय जयकार होना, उत्तर से दक्षिण तक की पैदल यात्रा पत्नी संग करना और वहां शंकराचार्य और अन्य विद्वानों में मध्य अपने लेखन को मान दिलवाना, फिर वापस आना और वापसी में भामती का बीमार पड़ जाना और इस हद तक कि अंत में सौदामिनी जैसी वैद्य जिसका डंका दूर दूर तक फैला होता है , जो मुर्दे तक को जिला सकती थी वो भी हार जाती है और भामती इस दुनिया से चली जाती है और छोड़ जाती है अपने पीछे अपना अस्तित्व. पूरा जीवन पति के लिए होम किया, कुछ पल पति का सानिध्य मिला तब वो वक्त आया था जब वो उसके साथ सुख का जीवन व्यतीत कर सकती थी लेकिन वो भी उसकी किस्मत में नहीं था. क्या मिला भामती को आखिर उसके पूरे जीवन की तपस्या का फल? क्या सिर्फ इतना कि वाचस्पति जब जानते हैं कि उनकी पत्नी का कितना बड़ा योगदान रहा उनके लेखन को स्थायित्व प्रदान करने में तो कहने वालों ने बेशक कह दिया ये तो खुद को ग्लानि से मुक्त करने हेतु किया या फिर पत्नी को जैसे बहलाने का साधन किया, तब उन्होंने अपनी पत्नी के अतुलनीय योगदान के निमित्त अपने भाष्य का नाम रखा- ‘भामती टीका’ और पत्नी को कहा – पुत्र पुत्री या वंश परंपरा तो कभी भी नष्ट हो जाती है. किसकी आज तक चली है लेकिन तुम्हारे और मेरे युग्म से जो उत्पन्न हुआ है उसका युग युगांत तक संसार में नाम होगा अर्थात ये जो भामती टीका लिखी है यही हमारी वंश परंपरा है अब. क्या इतना कर देना भर काफी है एक स्त्री की उम्र भर की तपस्या का प्रतिफल? ये कहने सुनने में बेशक अच्छा लगे लेकिन हकीकत के धरातल पर उससे गुजरना कोई आसान नहीं होता. पल पल सिर्फ दीप की बाती को देखते बिताना क्या संभव है? 

वहीँ लेखिका ने उस समय की व्यवस्था का भी दिग्दर्शन कराया है. कैसे उस समाज में स्त्री हो या पुरुष सभी का वेद पुराण पढने पर समान अधिकार था. स्त्रियाँ भी परम ज्ञानी थीं लेकिन समय एक सा नहीं रहता और सौदामिनी के वाकये ने उनके क्षेत्र में भी स्त्रियों को घर गृहस्थी तक सीमित कर दिया. वो स्त्रियाँ जो परम ज्ञानी थीं अब घर गृहस्थी तक सीमित रह गयीं. देश के अन्य भागों में बेशक स्त्री के लिए रोक टोक बढ़ने लगी थी लेकिन उनके गाँव में ऐसा नहीं था लेकिन एक तांत्रिक द्वारा सौदामिनी को उठा ले जाना वहां की सभी स्त्रियों के लिए जैसे एक शाप बन उभरा. क्योंकि गुरुकुल में भामती सुलक्षणा और वाचस्पति सबने साथ ही शिक्षा ली थी. तभी तो परम ग्यानी थी भामती. वो देश और समाज में आये अंतर से व्यथित थी. वहीँ वो अपना योगदान समय समय पर देती रही. अपनी विद्या को उसने समाज के कल्याण में उपयोग किया जब घर बैठे लड़कियों को शिक्षा देने लगी क्योंकि लड़कियों का पाठशाला जाना बंद हो गया था. उस समय की स्त्रियाँ सुनकर ही सब याद कर लिया करती थीं. लेकिन सुना हुआ धीरे धीरे जब ख़त्म होने लगा तब जरूरत महसूस हुई उसे लिपिबद्ध करने की और उसी दिशा में कार्य को अंजाम दिया गया उस समय के विद्वानों द्वारा. स्त्री पुरुष का भेद उसी काल से शुरू हुआ जो आज तक इतना बढ़ चुका है कि सुरसा का मुख हो गया है. शायद यही कारण है आज जब फिर से शिक्षा का प्रचार प्रसार बढ़ा है तब स्त्री ने खुद को पहचाना है, अपने अस्तित्व के लिए वो उठ खड़ी हुई है. यानि शिक्षा का कितना बड़ा योगदान रहा हमेशा. 

लेखिका ने उस काल में अन्य धर्मों जैसे बौद्ध धर्म के प्रति लोगों की कैसी धारणा थी उस पर भी प्रकाश डाला है तो वहीँ उस समय के राजा कैसे थे उस पर भी कलम चलाई है - कोई कमजोर तो कोई शक्तिशाली, कोई विद्वानों का सम्मान करने वाला तो कोई सबसे पहले विद्या को ही जड़ में मिटा देने को उत्सुक. एक युग परिवर्तन का दौर था वो जिसे लेखिका ने अपनी कलम द्वारा बखूबी उकेरा है. 

यूँ तो जाने और भी कितने पहलू हैं इस उपन्यास में यदि सब पर लिखूँगी तो एक और उपन्यास तैयार हो जायेगा. लेखिका ने 'भामती-एक अविस्मर्णीय प्रेमकथा' नाम दिया है जो यही सिद्ध करता है लेखिका ने वहाँ प्रेम को तरजीह दी है और यदि देखा जाए तो शायद एक सत्य भी है जब वाचस्पति को भामती के त्याग और समर्पण का अहसास होता है तो उन्हें अपना लेखन तुच्छ लगने लगता है क्योंकि जो भामती ने लिखा बेशक वो कलमबद्ध नहीं हुआ लेकिन उसे सिर्फ और सिर्फ वाचस्पति ने ही गुना , महसूस किया और फिर अपनी हर रचना में अपना परिचय भामती पति वाचस्पति मिश्र के नाम से दिया. शायद प्रेम का इतना सुन्दर प्रतिदान किसी ने नहीं दिया होगा. न भामती का प्रेम कम था और न वाचस्पति का मानो यही लेखिका कहना चाहती हैं. शायद यही सच्चे प्रेम की पहचान है. 

ब्रह्म तत्व का निरूपण वाचस्पति द्वारा किया जाना, उसकी स्थापना करना , द्वैत और अद्वैत के मध्य के  भेद पर अपनी कलम चलाना कोई आसान नहीं रहा होगा, जाने कितना अध्ययन मनन लेखिका ने किया होगा तभी इतने पुख्ता रूप में प्रस्तुत कर पायीं . 

सबसे बड़ी बात लेखिका अपनी कलम के माध्यम से उस पात्र को संज्ञान में लायीं जिसके बारे में शायद ही लोगों को पता हो या कहा जाए बहुत ही कम पता होगा. कैसे हमारे देश की स्त्रियाँ नींव की ईंट बनी जिसके ऊपर के सुदृढ़ ईमारत खड़ी हो सकी ये हमें ऐसे ही प्रकरणों के माध्यम से पता चल सकता है. इतिहास कभी गवाह नहीं रहा स्त्री के योगदान का क्योंकि लिखा पुरुषों द्वारा गया. ये तो स्त्री ही स्त्री की व्यथा को समझ सकती है और उकेर सकती है जिसके लिए लेखिका बधाई की पात्र हैं क्योंकि ये मैथिली  में लिखा गया उपन्यास है जिसे लेखिका ने खुद अनुवाद कर हिन्दी के पाठकों तक पहुँचाया, जो एक बेहद सराहनीय कदम है. शायद हम जैसे लोग तो अनभिज्ञ ही रह जाते यदि ये उपन्यास न पढ़ते कि कैसे समय समय पर स्त्रियों ने अपनी चुप्पी से भी नव निर्माण किया और एक इतिहास रच दिया. हो सकता है इसमें भी कुछ शब्द पाठकों को समझ न आयें क्योंकि विशुद्ध हिंदी में लेखिका ने अनुवाद किया है फिर भी मूल तत्व पाठक को बांधे रखेगा. वो पूरा पढ़े बिना खुद को उससे अलग नहीं कर सकेगा. अंत में उपन्यास पढ़कर यही पंक्तियाँ याद आती हैं - ‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आँचल में है दूध और आँखों में पानी’ जो भामती के जीवन पर पूरी तरह लागू होती हैं. उपन्यास पढने के बाद पाठक मन इतना व्यथित हो जाता है कि उससे बाहर ही नहीं आ पाता. सोच में पड़ जाता है पाठक मन ये कौन सी गली में ले गया समय हमें जिसकी हर दरो दीवार किसी स्त्री के आंसुओं से लाल है जिसका मोल तो खुद समय भी नहीं चुका सकता. एक कालजयी कृति के लिए लेखिका को बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं. उनके पाठकों को आगे भी उनसे ऐसे ही उपेक्षित पात्रों पर अन्य कृतियाँ मिलती रहेंगी और पाठक उन्हें पढ़ लाभान्वित होते रहेंगे.

गुरुवार, 8 मार्च 2018

मुँह फाड़ हँसती लड़की

मुँह फाड़ हँसती लड़की
आज बन चुकी है
आश्चर्य का प्रतीक

हँसी का फूटता फव्वारा
जब गुजरता है कानों के बीहड़ से गुजरकर
ह्रदय की संकुचता तक
मुड़कर ठहरकर देखी जाती है
कभी ईर्ष्या से
तो कभी अचम्भे से

कल बेशक अशोभनीय था
उसका मुँह फाड़ हँसना

तो क्या हुआ
बदली है सभ्यता
मगर सोच तो नहीं

खटकती है वो आज भी
आँख में किरकिरी सी

पहले उपदेशों से होती थी ग्रस्त
और आज तमगों से
कितनी बेहया है
चालू दिखती है
तेज तर्रार  होगी
घाट घाट का पानी पीये दिखती है 

मगर छोड़ चुकी है वो परवाह करना तमगों की
क्योंकि
उसके हवा में उड़ते बाल
आँखों में ख़्वाबों का संसार
और मुँह फाड़ कर हँसने से खिली उसकी सुन्दरता
आज किसी पर्याय की मोहताज नहीं

उन्मुक्तता का भी अपना दर्शन होता है...

स्त्रीशतक मेरी नज़र में

आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का शुभ अवसर है तो मुझे लगा आज के लिए इससे उपयुक्त प्रस्तुति और क्या होगी जब एक पुरुष स्त्री मन को, उसकी भावनाओं को इतना मान सम्मान दे तो सार्थक हो जाता है महिला दिवस .....इसी बदलाव की तो समाज को जरूरत है ..... पवन करण जी ने जो स्त्री शतक लिखा है उस पर मेरे विचार पढ़िए .....आसान काम नहीं था ये जिसे उन्होंने सार्थक बनाया और उपेक्षितों को महिमामंडित किया ...

स्त्रीशतक मेरी नज़र में
*****************
जो पुरुष ये कहता हो ‘स्त्री मेरे भीतर’ वो कितना संवेदनशील होगा, अंदाज़ा लगाया जा सकता है. स्त्री होना बेशक अलग है और स्त्री को अपने अन्दर जीना एक अलग ही अहसास है. पुरुष जब स्त्री को अपने अन्दर जीने लगे अर्थात स्त्री की मनोदशा का गहन चिंतन करने लगे तब एक अलग ही रचना का जन्म होता है. वहाँ वो पुरुष भाव का त्याग कर देता है, भूल जाता है वो पुरुष है. शरीर से ही तो स्त्री और पुरुष हैं जबकि आन्तरिक चेतना के स्तर पर न कोई स्त्री है न पुरुष तो ऐसे में जब चेतना का प्रसार होता है तब स्त्री के भावों से लबरेज होना कोई आश्चर्य नहीं. ऐसा ही कवि ‘पवन करण’ जी के साथ होता है शायद तभी तो जब भी कोई कृति आती है उसमें स्त्रीमन को जैसे किसी स्त्री ने ही पढ़कर लिखा हो, ऐसा लगता है. शायद यही है आंतरिक चेतना की वो शक्ति जो इंसान को बहुत ऊपर उठा देती है. 


ज्ञानपीठ से प्रकाशित हाल में आया कविता संग्रह ‘स्त्रीशतक’ कवि पवन करण का नया संग्रह है जिसमें महाभारत, रामायण, पुराणों और उपनिषदों से स्त्री पात्रों को चुना गया है. यूँ जो स्त्री पात्र हम सभी जानते हैं उनके बारे में न लिखकर कवि ने एक नया जोखिम उठाया है. कवि ने वहाँ से ऐसे उपेक्षित पात्रों को उठाया है जिन्हें समाज किसी गिनती में नहीं गिनता या फिर जिनका होना किसी की निगाह में कोई महत्त्व नहीं रखता. वंचितों को तो वैसे भी इतिहास में कभी स्थान मिला ही नहीं फिर ये तो पौराणिक पात्र हैं जिन्हें उनकी उपयोगिता तक ही सराहा गया अन्यथा स्त्रियों का वहाँ कभी कोई रोल रहा ही नहीं सिवाय भोग्या के और कवि ने मानो उसकी उसी छवि के माध्यम से उस समाज पर कटाक्ष किया है. प्रश्न उठाये हैं, सोचने को विवश किया है. स्त्री कोई हो राजमहिषी या फिर वेश्या या अप्सरा वो सिर्फ एक देह भर है जैसे, फिर चाहे वो देवता हों, राजा हों या फिर ऋषि मुनि. ये तो अक्सर पुराणों में कथाओं आदि में सबने पढ़ा और सुना भी है तो इस सत्य को कतई नकारा नहीं जा सकता कि आदिकाल से स्त्री को कभी किसी ने उसके अस्तित्व के साथ नहीं स्वीकारा और वो संघर्ष आज तक जारी है. ऐसे में ये पहल करना कवि का स्त्रियों के प्रति उसके कोमल भाव को तो दर्शाता ही है बल्कि यहाँ कवि की मेहनत भी परिलक्षित होती है. आसान था कवि के लिए नामचीन स्त्री पात्रों पर लिख इतिश्री करना लेकिन कवि ने वो जोखिम उठाया जिसे उठाने की हिम्मत करना आसान नहीं होता. सभी पुराण आदि पढना और फिर उनमें से वंचितों के भावों, उनकी मनोदशा को आत्मसात करना और फिर उन पर लिखना कोई आसान कार्य नहीं. कई वर्षों की मेहनत का नतीजा ही है ये. 

कवि ने कई ऐसे पात्र लिए हैं जिनके बारे में हमने कभी न पढ़ा न सुना तो पाठक आश्चर्य से भर उठता है जब उसे पता चलता है गोकुल में कृष्ण की कोई बहन ‘एका’ भी थी. उसकी मनोदशा या उसके भाव व्यक्त करना तो अलग बात हो गयी यहाँ तो यही सत्य हलक से नीचे उतारना आसान नहीं होता. कृष्ण ने तो सभी वंचितों को उपेक्षितों को अपनाया तो फिर उस बहन का जिक्र क्यूँ गायब रहा इतिहास से? क्या ये विचारणीय नहीं? मानो उसका जिक्र कर कवि यही प्रश्न उठाना चाहता है. यहाँ कवि का उद्देश्य महज कविता करना नहीं है बल्कि प्रश्नों की अदालत ही लगाईं है कवि ने .

अप्सराओं का जीवन क्या होता है किस से छुपा है. नाम बेशक सुन्दर दे दिया जाए लेकिन कार्य तो उनका वेश्या वाला ही होता है बस फर्क है वहां देव और ऋषि मुनि भोगी होते हैं. ऐसे में उन्हें कठपुतली बनना होता है इंद्र की और उसकी आज्ञा का पालन भर करना होता है. फिर चाहे वो किसी के प्रति अनुरक्त हो भी जाएँ तो भी उनकी आकांक्षाओं का वहां कोई महत्त्व नहीं होता फिर वो पूर्वचित्ति हो या उर्वशी, मेनका या रम्भा. 

इसी तरह पिता पुत्री के संबंधों की मर्यादा भी कब और कैसे खंडित हो जाती रही या फिर रिश्तों को ताक पर रख अपनी ही पत्नी को संसर्ग हेतु किसी भी ऋषि या देवता के पास भेज देना क्या है ऐसे संबंधों का औचित्य जिन्हें हम देवता मान हाथ जोड़ देते हैं लेकिन वो अपने स्वार्थ के लिए स्त्री को हथियार के रूप में प्रयोग करते हैं फिर भी पूजनीय कहलाते हैं. मानो इन सन्दर्भों को देकर कवि यही प्रश्न उठाना चाहता है क्यों आदिकाल से विरोध नहीं किया गया गलत का? क्यों हम पूजनीय मानें और इस रोग को पीढ़ी दर पीढ़ी फैलाएं? क्यों न सत्य सामने लाकर बेनकाब करें? और यही किया है कवि ने. 

ऐसा ही दासियों का जीवन रहा. दासी चाहे रानी से कितनी ही सुन्दर और सुशील हो, जिसकी यदि रानियाँ भी प्रशंसा क्यों न करती हों लेकिन वो रहती ही दासी है. उसका स्थान कभी ऊंचा नहीं हो सकता. वो बेशक भोग्या बन जाए लेकिन राजमहिषी होने का स्वप्न नहीं देख सकती क्योंकि वो दासी है कोई राजकन्या नहीं. मानो उंच नीच के भेद के माध्यम से कवि यही कहना चाहता है ये वर्गभेद परम्परा से चली आ रही वो प्रथा है जिसने जाने कितनी ही स्त्रियों के जीवन को दांव पर लगा दिया. जो इतिहास के पन्नों में कहीं दबी रह गयीं. यहाँ कवि ने उन दासियों के मनों में झाँका है और उनके मन के भावों को उल्लखित किया है क्योंकि थीं तो वो भी हाड मांस का इंसान ही तो भावनाएं तो उनमें भी जन्मती थीं. वो भी सोचने समझने की शक्ति रखती थीं तो किसी राजकुमार को देखकर उनके मन में भी तो उसका होने की भावना जग सकती थी. कवि ने उसी नब्ज़ पर ऊंगली रखी जिसमें दर्द था. ये एक भावुक ह्रदय ही कर सकता था. वहीँ दासियों के मध्य अपनी रानी को लेकर किये गए संवाद भी हिस्सा बने संग्रह का जहाँ वो अपनी रानी से इतनी जुडी हुई हैं कि उसके दुखदर्द अपने लगते हैं जैसे गांधारी के विषय में केशनी और वासंती का संवाद होता है मानो कहना चाहता हो कवि कैसे अपने मन की कसक को गांधारी ने दबाया होगा और कैसे उसका दर्द उसकी दासियों ने महसूस किया होगा क्योंकि एक स्त्री ही दूसरी स्त्री के दर्द को बेहतर तरीके से महसूस कर सकती है:


मैं चाहती हूँ कि मेरा पति/ अपने सुसज्जित रथ पर नहीं/ अपने अश्व की पीठ पर/ पीछे बिठाकर/ आर्यावर्त की सभी/ नदियों के किनारे ले जाए मुझे/ गांधारी का यह कहना / तुम्हें याद है न वासंती 

वहीँ ‘अनामिका’ के माध्यम से कवि ने करारी चोट की है वर्ण व्यवस्था पर, पितृ सत्ता की सोच पर जहाँ पवित्रता और अपवित्रता को वर्ण से बाँध दिया गया. अरे गया तो पुरुष ही है एक स्त्री के पास फिर वो दासी हो या देवी लेकिन नहीं, ये देवता स्वीकार नहीं कर सकते, देवता यानि उच्च कुल वाले. ये कैसी शुद्र प्रथाएं थीं जिन्होंने पूरे समाज को एक ऐसे दुश्चक्र में बाँध दिया जिससे मुक्त होने को आज भी छटपटा रहा है लेकिन मुक्त नहीं हो पा रहा. ये पीढ़ियों की बोई फसल है जो आज भी जितना काटो उतनी ही बढती जा रही है शायद यही खोज कवि को पुराणों तक घसीट लायी क्योंकि परम्पराएं कोई अकेला नहीं बना सकता. ये तो इतिहास की धरोहर होती हैं जिन्हें वक्त के साथ और कड़ा कर दिया जाता है ताकि जो उपेक्षित है वो उपेक्षित ही रहे. कभी सिर न उठा सके. जो आदिकाल से होता रहा वो ही परंपरा बन दीमक की तरह पीढ़ियों को काटता रहा बस मानो यही कवि कहना चाहता है :

दासी होना स्त्री होना नहीं/ बस दासी होना है, जिस तरह देवी होना/ बस देवी होना है, स्त्री होना नहीं / मैं दासी थी तो मेरे साथ/ संसर्ग अपवित्र था, अजामिल के लिए/ मैं देवी होती तो मेरे साथ सहवास/ पवित्र होता उसके लिए 

ऐसे अनेक पात्रों से भरा पड़ा है संग्रह जो किसी ने कभी न पढ़े न सुने लेकिन जिनकी मर्मभेदी आवाज़ शायद कवि के कर्णरंध्रों तक पहुँची और कवि की कलम ने रच दिया एक नया इतिहास. यूँ पूरा संग्रह यदि देखा जाए तो स्त्री मन का आईना है. मगर कहीं कहीं कवि कुछ पात्रों के भावों को यदि थोडा और विस्तार देता तो सन्दर्भ और साफ़ हो जाते क्योंकि सबको नहीं पता कौन पात्र कहाँ से आया है और उसका वहां क्या रोल था. बेशक सन्दर्भ के रूप में कविता के नीचे दिया गया है कौन क्या था लेकिन फिर भी कहीं कहीं एक कमी सी खलती है जहाँ कवि ने कुछ एक पात्रों को उनके अधूरेपन के साथ छोड़ दिया है, वो पात्र विस्तार चाहते थे. लेकिन फिर भी इन कुछ एक पात्रों को यदि छोड़ दिया जाए तो पूरे संग्रह में हर पात्र के साथ न्याय करता नज़र आया है कवि. वहीँ शिव हों या पार्वती या विष्णु किसी पर भी आक्षेप लगाने से नहीं चूका कवि. यही कविकर्म है जहाँ भी विसंगति देखे करे प्रहार. ऐसा ही संग्रह में जगह जगह दिखाई देता है. संग्रह बेशक पठनीय और संग्रहणीय है. छोटी मगर मारक कविताओं का दस्तावेज है स्त्रीशतक. कवि की बरसों की मेहनत साफ़ परिलक्षित हो रही है. उम्मीद है आगे भी उनके पाठकों को उनकी लेखनी के माध्यम से ऐसे ही नए सन्दर्भों का पता चलता रहेगा.