ये रात का पीलापन
जब तेरी देहरी पर उतरता है
मेरी रूह का ज़र्रा ज़र्रा
सज़दे में रुका रहता है
खामोश परछाइयों के खामोश शहरों पर
सोये पहरेदारों से गुफ्तगू
बता तो ज़रा , ये इश्क नहीं तो क्या है ?
चल बुल्लेशाह से बोल
अब करे गल(बात)खुदा से
नूर के परछावों में अटकी रूहें इबादतों की मोहताज नहीं होतीं