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बुधवार, 31 अगस्त 2016

ये इश्क नहीं तो क्या है ?

ये रात का पीलापन
जब तेरी देहरी पर उतरता है
मेरी रूह का ज़र्रा ज़र्रा
सज़दे में रुका रहता है

खामोश परछाइयों के खामोश शहरों पर
सोये पहरेदारों से गुफ्तगू
बता तो ज़रा , ये इश्क नहीं तो क्या है ?

चल बुल्लेशाह से बोल
अब करे गल(बात)खुदा से

नूर के परछावों में अटकी रूहें इबादतों की मोहताज नहीं होतीं

शनिवार, 20 अगस्त 2016

खरोंचों के इतिहास

ज़िन्दगी की बालकनी से देखती हूँ अक्सर
हर चेहरे पर ठहरा अतीत का चक्कर

ये चेहरे पर खिंची गहरी रेखाएं गवाह हैं
एक सिमटे दुबके भयभीत जीवन की

ज़िन्दगी के पार ये सब कुछ है
मगर नहीं है तो बस 'ज़िन्दगी' ही

मज़ा तब था जब याद रहता
एक खुशगवार मौसम आखिरी साँस पर भी
होती तसल्ली
जी लिए ज़िन्दगी जी भर के

खरोंचों के कोई इतिहास नहीं हुआ करते
रुदाली का तमगा यूँ ही नहीं मिला तुझे ... ए ज़िन्दगी 

गुरुवार, 4 अगस्त 2016

मंतव्य ...मेरी नज़र से




मंतव्य पत्रिका का दूसरा विशेषांक पाँच लम्बी कहानियों का संकलन है . मंतव्य का क्या मंतव्य है ये जानने के लिए उन कहानियों से गुजरना जरूरी है . पहली कहानी ‘ललिता मैडम’ लेखक सूरज प्रकाश जी द्वारा लिखित है . ललिता मैडम की शख्सियत ही कहानी का मूल है . आज के वक्त में जब कोई स्त्री यदि पुरुषोचित रवैया अपना लेती है तो कटघरे में खड़ी हो जाती है और ऐसा ही इस कहानी में हुआ है . यहाँ किसी पात्र से कोई सहानुभूति नहीं क्योंकि सब एक दूसरे से अपने मतलब से जुड़े हैं . लेखक ने सिर्फ हर पात्र को रखा भर है और सोचने का काम पाठक पर छोड़ दिया है . तीन स्त्री पात्र ललिता मैडम , जूही और मंजू . तीनो की अपनी जरूरतें . जब आप अपनी जरूरत से किसी से जुड़ोगे तो जरूरी नहीं जैसा आप चाहते हैं सब वैसा ही मिले . चकाचौंध कई बार आँख बंद कर देती है ऐसा ही जूही के साथ हुआ . बेशक बाद में उसे पछतावा होता है और वो खुद को अलग कर लेती है लेकिन दोष सिर्फ मैडम पर नहीं मढ़ा जा सकता क्योंकि वो खुद जुडी थी न कि मैडम ने उसे फ़ोर्स किया तो कैसे दोष दिया जा सकता है . आखिर मैडम का एक लाइफ स्टाइल है वो उसे फॉलो करती है और चाहती है जैसा वो चाहे सब उसके मन के अनुसार हो तो बुराई क्या है . आज के वक्त में एक बिज़नस वीमेन वो सब कर सकती है जो पुरुष करता है तो भला उसके लिए दोष कैसे दिया जा सकता है फिर वो उसका दिखावा हो या शारीरिक जरूरत या फिर बिज़नस से सम्बंधित कोई महत्त्वपूर्ण निर्णय . ललिता मैडम के रहने का एक अपना तरीका है जिसमे यदि आप फिट हों तो उनके साथ चल सकते हो और यदि नहीं तो बाहर का रास्ता आपके सामने हैं और ऐसा ही जूही के साथ होता है . वो खुद को उस माहौल में फिट नहीं पाती और बाहर आ जाती है . बेशक कहानी में फेसबुक के माध्यम से मिले हैं करैक्टर फिर वो जूही हो या ललिता मैडम या फिर सतीश जो कि ललिता मैडम के शौक का माध्यम बना . बेशक वो भी अपनी जरूरत से ही जुड़ा उससे और फिर अलग भी हुआ तो क्या हुआ . कल तक यही सब कुछ एक पुरुष करता था तो कभी किसी को नहीं अखरा क्योंकि अक्सर कहा जाता रहा ये तो पुरुष की आदत होती है लेकिन यदि वो ही कार्य एक सक्सेसफुल स्त्री करे तो प्रश्नचिन्ह के घेरे में खड़ी हो जाती है . यहाँ ललिता मैडम बहुत प्रैक्टिकल लेडी है जो आने वाले का स्वागत तो करती ही है तो जाने वाले को रोकती भी नहीं लेकिन उससे रिलेशन पूरी तरह ख़त्म न करके वापस आने का आप्शन भी रखती है जो यही दर्शाता है वो यूं ही नहीं एक सक्सेसफुल बिज़नेस वूमेन है . यही होती है वक्त की मांग किसी से भी सम्बन्ध एकदम ख़त्म मत करो क्योंकि यदि ख़त्म कर दिए तो हमेशा के लिए रास्ता बंद हो जाता है और वो उसे पूरी तरह जीती है . समझौता उसकी डिक्शनरी में नहीं है . अपनी शर्तों पर जीवन जीना ही उसका ध्येय है और वो जानती है उसे कैसे पाना है . बाकि जूही का किरदार तो आम किरदार ही है जो अक्सर स्त्रियों का होता है .जो अपनी अस्मिता और स्वाभिमान की कीमत पर कोई भी समझौता नहीं करती हैं .और मंजू एक अपोरचुनिस्ट है वो जानती है कैसे अपना काम निकालना है फिर उसके लिए समझौते ही क्यों न करने पड़ें . तीन स्त्री किरदार लेकिन तीनो का अपना जीवन जीने का अपना दर्शन है . 

संग्रह की दूसरी कहानी ‘स्टील कंपनी’ लेखक विशम्भर मिश्रा द्वारा लिखित है . स्टील कंपनी के माध्यम से लेखक ने राजनीति और कंपनियों की सांठ गाँठ से कैसे जमीनों के सौदे किए जाते हैं उसका कच्चा चिटठा उपलब्ध है . वैसे इस कहानी को यदि उपन्यास के रूप में लाया जाता तो ज्यादा बेहतर था जैसे अकाल में उत्सव उपन्यास के माध्यम से पंकज सुबीर ने न केवल किसानों की समस्या को उकेरा है बल्कि साथ साथ प्रशासन और राजनीति के मुंह पर भी तमाचा जड़ा है . यदि इस तरह इसकी प्रस्तुति होती तो ज्यादा असरकारक होती . कुछ ऐसा ही चित्रा मुद्गल के उपन्यास ‘आवां’ का परिदृश्य है तो जहाँ इतना विस्तार देना हो वहां वो कहानी नहीं रहती बल्कि उसे उपन्यास की श्रेणी में ही लेकर आना चाहिए . बाकि तो कैसे ठेके लिए जाते हैं , कैसे जमीन हडपी जाती हैं और कैसे एक दूसरे के प्रति भोले लोगों को भड़काया जाता है , कैसे पुलिस और प्रशासन की मिली भगत से निर्दोषों पर अत्याचार होता है सबका कच्चा चिटठा है ये कहानी जो एक मुकम्मल कहानी तो नहीं बन पायी क्योंकि जिसका कोई अंत नहीं वो मुकम्मल कहानी तो नहीं हो सकती . लेकिन इस कहानी के माध्यम से बहुत से गहरे राजों से पर्दा उठता है वहीँ कोयला घोटाले पर भी प्रकाश डालती चलती है ये कहानी , जो कि पिछले सालों राजनीति का मुख्य केंद्र रहा . बात किरदारों की नहीं है क्योंकि ये किरदार हर जगह पाए जाते हैं बस नाम और चेहरे दूसरे होते हैं , बात है कैसे एक पूरा तंत्र सक्रिय किया जाता है तब जाकर कोई प्लांट लगता है या कहिये कोई उद्देश्य पूरा होता है , खरीद फरोख्त का एक पूरा ताना बाना बनाया जाता है मानो यही लेखक के कहने का प्रयास रहा हो . 

संग्रह की तीसरी कहानी ‘अपना खून’ विक्रम सिंह द्वारा लिखित है . एक छोटे से मुद्दे को कैसे घुमा कर कहा गया है ये इस कहानी को पढ़कर पता चलता है जिसमे जरूरत ही नहीं थी अनावश्यक चीजों को जोड़ने की . कहानी इतनी भर कि पहली पत्नी को बच्चा नहीं हो सकता तो पहाड़ की लड़की से शादी की जाती है और उससे भी एक के बाद एक दो लड़की होती हैं और तीसरा लड़का होते ही मर जाता है और उसके बाद वो माँ भी नहीं बन सकती तो उसके द्वारा दिया सुझाव कि वंश चलाने को एक लड़का गोद ले लेते हैं वो सोचने को मजबूर करता है जब उसकी पहली पत्नी ने भी यही आप्शन रखा था . आदमी के लिए अपना खून ही अपना होता है . कहानी इतनी सी लेकिन एक तरफ तो पहाड़ का सौन्दर्य और वहां के जीवन की दास्तान बताते बताते लेखक ईजा के जीवन तक पहुँच जाता है कैसे उसे सब कुछ मिला उसके लिए अंग्रेज राज भी शामिल हो जाता है जो कहानी को कहानी नहीं रहने देता क्योंकि यहाँ भी बात आती है यदि इतने किरदार और उनमें से सबकी यदि जीवन दास्तान कहनी है तो उसे उपन्यास की शक्ल दीजिये . लम्बी कहानी हो लेकिन विषय पर केन्द्रित हो वही पाठक मन तक पहुँचती है . 

चौथी कहानी ‘कूकर’ बलराज सिंह सिद्धू जी की है जो पंजाबी में लिखी गयी है और जिसका अनुवाद सुभाष नीरव जी ने किया है . ये कहानी वास्तव में कहानी के ढाँचे में फिट बैठती है . पूरे संग्रह में यदि कहानी कही जाए तो यही मुकम्मल कहानी है . कच्ची उम्र का राजू और जीती कहानी के मुख्य किरदार हैं . राजू एक युवावस्था की ओर अग्रसित लड़का है जो हाई सोसाइटी को बिलोंग करता है तो उसकी सोच भी वैसी ही होती है . लड़की उसके लिए हाथ के मैल की तरह ही है लेकिन साथ में कहीं न कहीं कुछ संस्कार बचे हैं उसमे जो अंत में जागृत हो उठते हैं. लेखक ने कहानी में पंजाब की समस्याओं आतंकवाद के बाद नशे की समस्या आदि पर प्रकाश तो डाला ही है साथ में वहां के गाँव , रहन सहन आदि का भी यथोचित वर्णन किया है . यहाँ बेशक राजू के माध्यम से उसकी उम्र के लड़के में लड़की के प्रति उठने वाले भावों को लेखक ने दर्शाया है मगर साथ ही जीती के माध्यम से मानो ये बताया है एक लड़की चाहे तो किसी के भी मन के भावों को परिवर्तित कर देती है . कहानी के अंत में जीती को उसके घर छोड़ने के दृश्य में कुत्तों के आतंक से बचने के लिए हॉकी स्टिक काम आती है लेकिन इंसान के अन्दर के कूकर के लिए रिश्ते की सोटी जब पड़ती है तभी वो अपने वहशीपन से बाहर आ पाता है . मानो कहानी के माध्यम से लेखक ने रिश्तों की गरिमा को न केवल बनाए रखा बल्कि बचाए भी रखा जब जीती उसे राजू वीरे के नाम से संबोधित करती है तो उसके अन्दर का कूकर निष्प्राण हो उठता है और मानवीयता इंसानियत जाग उठती है तो मन कहता है तूने ये वीरे शब्द की सोंटी पहले मारी होती तो ये हवस के कूकर जागृत ही नहीं होते मानो यहाँ लेखक ने एक उदाहरण रखा कि एक शब्द ही काफी होता है कभी कभी इंसानियत को जगाने के लिए , रिश्तों की मर्यादा को बनाये रखने के लिए . वहीँ मानो लेखक कहना चाहता है कितना ही उच्छ्रंखल लड़का क्यों न हो यदि उसे भी ऐसा कुछ कह दिया जाए तो वो भी रिश्ते की गरिमा समझता है और उसे तोडना उसके लिए संभव नहीं होता जैसा राजू के साथ होता है . शुरू से आखिर तक उसके मन में चलता कल्पनाओं का स्वप्न अंत में धराशायी हो उठता है लेकिन कल्पना में वो हर हद पार करने की जुर्रत करना चाहता है मानो इस माध्यम से हर मानव मन की कमजोरी पर लेखक ने प्रहार किया है . मानो लेखक कहना चाहता है शायद इसीलिए समाज में रिश्तों का निर्माण हुआ क्योंकि रिश्तों की मर्यादा ही इंसान को इंसान बनाए रखती है वर्ना तो वो स्वभावगत अन्दर से किसी कूकर से कम नहीं . 

अंतिम कहानी ‘बालकनी’ बांगला कहानीकार शिर्शेंदु मुखोपाध्याय जी द्वारा लिखित और शेष अमित द्वारा अनुवाद की गयी है . इस कहानी को पढ़कर याद आ जाता है वो ज़माना जब गुलशन नंदा और रानू के उपन्यास पढ़े जाते थे और वहां प्रेम की एक उच्चतम स्थिति दर्शायी जाती थी , दर्द होता था विरह होता था . ऐसा ही कुछ तो इस कहानी में भी है . इस कहानी में एक उपन्यास की पूरी संभावनाएं हैं . बेशक अन्य कहानियों की तुलना में काफी छोटी है ये कहानी लेकिन अपने कथ्य में पाठक मन तक पहुँचने की सामर्थ्य रखती है . किरदारों के माध्यम से मानो लेखक इंसान के मन में घुसपैठ करता है . हम कुछ भी करें उसे कोई जाने न जाने लेकिन हम जानते हैं हमने क्या किया है और अनचाहे ही एक अपराधबोध से ग्रस्त हो उठाते हैं खासतौर से तब जब हमने वो पा लिया जो चाहते थे और हमें लगे हमने ये किसी से छीना है क्योंकि वो किरदार हमेशा आपकी आँख के आगे रहे लेकिन एक शब्द भी न कहे . कोई गिला शिकवा नहीं बस एक बार उसे देखते रहने की चाहत भर में खुद को भी भुला बैठे . यही तो सच्चे प्रेम की परिणति होती है . मगर आपके अन्दर का अपराधबोध आपको जीने नहीं देता ऐसा ही तो तुषार के साथ होता है जो कल्याणी से प्यार करता है और दोनों शादी कर लेते हैं लेकिन तब भी एक चैन का जीवन नहीं जी पाते क्योंकि खुद को अरुण का दोषी मानते हैं . शायद यही मानव मन की वो बालकनी है जहाँ से वो , वो सब देख पाता है जो उससे हमेशा अदृश्य रहता है . अरुण जिसने चाहत में खुद को भुला दिया और पागल की श्रेणी में पहुँच गया . आह ! कहाँ मिलता है आज ऐसा प्यार और कहाँ लिखते हैं आज के लेखक ऐसी प्रेम कहानी . यहाँ लेखक ने मानो तुषार के मन के अन्दर उठे झंझावात को इंगित किया है क्योंकि वो समझ ही नहीं पाता आखिर कैसे कोई इंसान किसी के लिए पागल हो सकता है कि खुद की सुध ही खो बैठे और ढूंढता है वो कल्याणी के शरीर में जबकि प्रेम में शरीर तो गौण होता है वहां तक आत्माओं का मिलन होता है और अरुण एक ऐसा ही प्रेमी तो था जबकि प्यार तो तुषार और कल्याणी ने भी किया था लेकिन उनका प्यार सतही ही रहा सिर्फ शरीर तक सीमित वो प्रेम की उच्चतम स्थिति को कभी समझ ही नहीं सके फिर उसके प्रायश्चित स्वरुप कहो या खुद को तसल्ली देने के लिए वो अरुण को खाना इत्यादि देते रहे मगर कभी तुषार जान ही नहीं पाया वास्तव में प्रेम होता है क्या . प्रेम का अविरल रूप प्रस्तुत करने में कहानीकार सफल हुए हैं तो वहीँ मानव मन की कमजोरियों को भी बखूबी उजागर किया है उन्होंने . यही होता है एक सफल लेखक जो कम शब्दों में काफी कुछ कह दे और झकझोर दे पाठक मन को . पाठक तो उद्वेलित होगा ही जब प्रेम का ऐसा स्वरूप देखेगा और सोचेगा यही कहते हुए कभी किसी को मुकम्मल जहान नहीं मिलता जैसा कि कहानी के तीनो किरदारों के साथ होता है . सभी किरदार अधूरे , एक फीके कैनवस पर जैसे हर रंग धुंधला सा ही दिखता है . सोचने पर विवश करती प्रेम कहानी . यहाँ बेशक अरुण बल्कि उन दोनों के मध्य ही आया था फिर भी प्रेम क्या होता है और उसे कैसे जीया जाता है शायद वो ही जान पाया था तभी कहते हैं जो प्रेम करते हैं और शादी कर लेते हैं जरूरी नहीं उन्होंने प्रेम के वास्तविक अर्थ को समझा ही हो .

मंतव्य का ये कहानी विशेषांक आज के समय की सभी जटिलताओं और संभावनाओं को समेटे है . बेशक इसे एक बेहतरीन अंक की श्रेणी में न रखा जा सके लेकिन संपादक ने अपने समय की विभिन्न समस्याओं को इस संग्रह के माध्यम से सहेजने की कोशिश की है . फिर वो मानवीय समस्याएं हों , राजनीतिक या सामाजिक . यदि संपादक औपन्यासिक परिवेश की कहानियाँ न चुनकर कूकर जैसे विषय से न्याय करती कहानी चुनते तो मंतव्य का ये अंक एक बेहतरीन अंक की श्रेणी में आ जाता . अब क्योंकि ये एक नया प्रयोग किया है संपादक ने तो कुछ सोच कर ही किया होगा और वैसे भी जरूरी नहीं जो पाठक का दृष्टिकोण हो वो ही संपादक का भी हो . हो सकता है मेरी इतनी मुखरता थोड़ी नागवार गुजरे लेकिन मेरी नजर में अच्छा पाठक वो ही होता है जो कमियों पर भी ध्यान आकर्षित करे ताकि अगले अंकों में पाठक को उसकी पूरी खुराक मिल सके . बाकी कोई कहे वाह वाही करो तो वो सबसे आसान काम होता है जो अक्सर हम सभी करते रहे हैं . ये मेरे निजी विचार हैं जरूरी नहीं सभी इससे इत्तफाक रखें . 

संपादन का कार्य सबसे मुश्किल कार्य की श्रेणी में आता है . सभी कहानियों को पढना और उसमे से श्रेष्ठ चुनना कोई आसान कार्य नहीं होता . संपादक बधाई के पात्र हैं जो उन्होंने इतनी मेहनत की और एक ऐसा अंक निकाला जो आज के समय में सब निकालने की हिम्मत नहीं कर पाते .