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शनिवार, 30 जून 2007

कैसे कहूं

दिल की बात कैसे कहूं ,किससे कहूं ,यहाँ कौन है सुनने वाला,
इक छोटी सी आरजू है ,इक छोटी सी तमन्ना है ,
बरसों से दबी ख्वाहिश है , कोई हो इक ऐसा जो समझे इस दिल को,
जाने इस के दर्द को , और कोशिश करे समझने की
यह दिल क्या चाहता है , गर कोई जान ले तो
जीने की आरजू पूरी हो जाये , मरने का कोई मलाल ना रहे
लेकिन किससे कहूं और कैसे कहूं ?

शुक्रवार, 29 जून 2007

वक़्त और जिन्दगी

वक़्त ने कब जिन्दगी का साथ दिया हमेशा आगे ही चलता जाता है और जिन्दगी वक़्त की  परछाईं
सी नज़र आती है। वक़्त बहुत बेरहम है , अपनी परछाईं का साथ भी छोड़ देता है। वक़्त का हर सितम जिन्दगी सहती जाती है मगर उफ़ भी नहीं कर सकती। किसी के पास इतना वक़्त होता है कि काटना मुश्किल हो जाता है और किसी को इतना भी वक़्त नहीं होता कि अपने लिए भी कुछ वक़्त निकाल सके। वाह! रे वक़्त के सितम।

वक़्त जिन्दगी को बहुत उलझाता है।
यह कैसा वक़्त आ गया जब जिन्दगी भी कुछ कह नहीं पाती
और वक़्त के खामोश सितम भी सह नहीं पाती
गर कुछ कहना भी चाहे तो सुनने वाला कोई नहीं
यह कैसी बेबसी है , यह कैसी आरजू है,
वक़्त के सितम हँस के सहने को मजबूर
जिन्दगी उदास राहों पर चलती जाती है
काश!कोई दिखाये दिशा इस  जिन्दगी को
वक़्त के साथ चलना सिखाये कोई जिन्दगी को
खामोश राहें हैं खामोश डगर है जिन्दगी की
वक़्त का साथ गर मिल जाये तो जिन्दगी के मायने बदल जाएँ