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शुक्रवार, 25 मार्च 2011

हाँ, मैं मध्यमवर्गीय इन्सान हूँ

आज सुबह बिटिया का
मासूम सवाल
ह्रदय विदीर्ण कर गया
स्कूल जाती बिटिया बोली
पापा, तुम भी गाड़ी ले आओ
गाडी मे स्कूल छोड आओ
मैं बोला- पैसे नहीं है
वो बोली- पर्स में इत्ते सारे
है तो सही
मैं बोला -इससे काम नहीं चलेगा
ज्यादा पैसे लाने होंगे
वो बोली - तो क्या हुआ
"फिर मेरी गुल्लक फोड़ दो ना ........."
ये शब्द ह्रदय वि्दीर्ण कर गये
उसके शब्दों ने आईना दिखा दिया
मुझे मेरी मजबूरियों से मिला दिया
कैसा मजबूर बाप हूँ मैं
इसका अहसास करा दिया

बिटिया की मासूमियत ने
मुझको घायल कर दिया
आँखें मेरी नम कर गया
कैसे उसको समझाता
और समझा भी देता
मगर खुद को कैसे बहलाता
सच से कैसे नज़रें चुराता
खुद को लानत भेज रहा हूँ
जब से बिटिया ने कहा है
गुल्लक फोड़ दो मेरी
आह! कैसा मजबूर बाप हूँ
इक छोटी सी हसरत भी
पूरी ना कर सकता हूँ
वक्त ऐसा क्यूँ आता है
या खुदा !


सोचता था
जब आँगन में
उतरी थी मासूम कली
हर चाहत को उसकी
परवान चढ़ा दूंगा
हर हसरत पर उसकी
खुद को मिटा दूंगा
मेरे लिए आसमां  से
फ़रिश्ता उतरा था
मगर ये ना पता था
वक्त का बेरहम पंजा
ऐसे जकडेगा मुझे
एक छोटी सी हसरत
बिटिया की 

लहूलुहान कर जाएगी
आँख में आँसू भर जाएगी
वक्त ऐसा क्यूँ आता है
कभी मिला खुदा से
तो पूछुंगा जरूर!

अब बैठा सोचता हूँ
हर हसरत सबकी
कब पूरी होती है
ऐसा सच उसे भी
समझाना होगा
या फिर किस्मत से
लड़ जाना होगा
और बेटी की ख्वाहिश को
आकार देना होगा
मगर मासूम दिल
क्या ये सब समझ पायेगा
जब अब तक खुद को ही
ना समझा पाया हूँ
कभी खुदा पर तो कभी
किस्मत पर दोष लगाता हूँ
हकीकत से सामना
ना कर पाता हूँ
ज़िन्दगी को मुस्कुरा के
ना जी पाता हूँ
फिर कैसे उसे समझाऊंगा
या फिर कैसे किस्मत से
लड़ जाऊँगा
ये सोच सोच घबराता हूँ

एक ख्याल दिल में
जन्म लेता है
बच्चे कितने मासूम होते हैं
कैसी मासूमियत से
सब कह देते हैं
अपने पराये में भेद
नहीं करते हैं
आसानी से गुल्लक
फोड़ने की कही बात
क्या ऐसा तब हो सकता है
जब बच्चा बड़ा हो जाता है
शायद तब तक वो
पैसे का अर्थ समझ जाता है
हर चीज़ का मोल लगाना
सीख जाता है
काश ! सब बच्चे ही होते
निश्छल मासूम बच्चे
गुल्लक संभाले हसरतों की
फिर दिल ना ऐसे
चीत्कार करता
एक मध्यमवर्गीय इंसान का

हाँ, मैं मध्यमवर्गीय इन्सान हूँ
अपनी इच्छाओं को समेटे हुए
मगर बच्चों की हसरतों का क्या करूँ?


45 टिप्‍पणियां:

खबरों की दुनियाँ ने कहा…

मर्म को छेड़ती लकीरें …दर्द छोड़ती लकीरें … उफ़…।

Saiyed Faiz Hasnain ने कहा…

हाँ, मैं मध्यमवर्गीय इन्सान हूँ
अपनी इच्छाओं को समेटे हुए
मगर बच्चों की हसरतों का क्या करूँ?

हमेशा की तरह एक उम्दा पोस्ट .......

Atul Shrivastava ने कहा…

दिल को छू लेने वाली पोस्‍ट।
ऐसा लगा कि यह रचना मेरे ही इर्द गिर्द है।
बहुत गहरे भावों के साथ आपने प्रस्‍तुत किया।
शुभकामनाएं आपको

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

मध्यवर्गीय इंसान की मजबूरी को बखूबी उभारा है.


सादर

बाबुषा ने कहा…

oh !

बाबुषा ने कहा…

I believe a middle class father is richer than any Ambani or Mittal...as he has time to spend with his child. he has time to laugh with her, play with her, can sit n listen to her patiently. A middle class father must know what asset he has got..

Kailash Sharma ने कहा…

काश ! सब बच्चे ही होते
निश्छल मासूम बच्चे
गुल्लक संभाले हसरतों की
फिर दिल ना ऐसे
चीत्कार करता
एक मध्यमवर्गीय इंसान का


मध्यमवर्गीय परिवार के दर्द को चित्रित करती बहुत मार्मिक और मर्मस्पर्शी प्रस्तुति...बहुत उत्कृष्ट रचना..

Unknown ने कहा…

DIL ko chu kiya MadayamBrgire Insaan ke is dukha ne..

ज्ञानचंद मर्मज्ञ ने कहा…

हृदय को चीर गयी आपकी कविता !
काश! कोई मज़बूर नहीं होता !

संध्या शर्मा ने कहा…

काश ! सब बच्चे ही होते
निश्छल मासूम बच्चे
गुल्लक संभाले हसरतों की
फिर दिल ना ऐसे
चीत्कार करता
एक मध्यमवर्गीय इंसान का...

बहुत सुन्दर भावपूर्ण अभिव्यक्ति..
एक मध्यमवर्गीय पिता की भावनाओ का सजीव चित्रण ..

mridula pradhan ने कहा…

हाँ, मैं मध्यमवर्गीय इन्सान हूँ
अपनी इच्छाओं को समेटे हुए
मगर बच्चों की हसरतों का क्या करूँ?
karuna ki bahut sundar abhivyakti.....

shikha varshney ने कहा…

एक सच्चाई का मार्मिक वर्णन.

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा ने कहा…

ध्यवर्गीय इंसान की मजबूरी को बखूबी उभारा है.

anshumala ने कहा…

आप की इस कविता ने तो मेरे मित्र के साथ हुई घटना याद दिला दी | उनका टूर जॉब था अक्सर घर से दूर रहते थे और उनकी भी बच्ची ऐसे ही परेशां रहती की पापा से मिले उसे कितने दिन हो जाते है एक दिन उसने भी फोन कर अपने पापा से यही कहा की पापा आप पैसे के लिए काम करते है ना तो काम करना छोड़ दीजिये और पैसे के लिए मेरा पिगी बैंक ले लीजिये | बेचारे भरे मीटिंग में अपने आंसू नहीं रोक सके |

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

मध्यमवर्गीय परिवार की आकांक्षाओं को लेकर आपने बहुत ही मार्मिक रचना लिखी है!

Sunil Kumar ने कहा…

मध्यवर्गीय इंसान की मजबूरी, एक उम्दा पोस्ट ...

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

दिल को छू लेने वाली पोस्‍ट।
ऐसा लगा कि यह रचना मेरे ही इर्द गिर्द है।

दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

steek chitran
backdoor entry-laghu katha

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

न जाने क्यों,ये छोटे छोटे प्रश्न बड़े गहरे भेद देते हैं।

Deepak Saini ने कहा…

मेरी ही स्थिति को कविता मे शब्दबद्ध की आपने,
आभार

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

बेहतरीन भावाभिव्यक्ति..... सच में माध्यम वर्गीय जीवन की वेदन उकेरी है आपने......

Roshi ने कहा…

dil ko choo liya

Rakesh Kumar ने कहा…

ऊपर देखें तो आसमां और नीचे देखें तो जमीन.
चलना तो जमीन पर ही पड़ेगा.कहा गया है 'उतने ही पाँव पसारिये,जितनी लंबी चादर हो',यही समझना है और यही बच्चों को समझाना है.वर्ना जीवन मुश्किल हो जायेगा. सच कड़वा लग सकता है.धीरज रखने से सही समय भी आता ही है.'हारिये न हिम्मत बिसारिये न हरि नाम.'

***Punam*** ने कहा…

मध्यवर्गीय इंसान की मजबूरी को बहुत गहरे भावों के साथ प्रस्‍तुत किया।
मार्मिक रचना.....!!

Shikha Kaushik ने कहा…

dil ko chhoo lene vali bhavabhivyakti ..aabhar

Dr Varsha Singh ने कहा…

बहुत मार्मिक...यथार्थपरक रचना...

मध्यमवर्गीय परिवार की पीड़ा का अक्षरशः चित्रण करने के लिए आभार...

शुभकामनाएं.

सदा ने कहा…

एक सच है ...बहुत ही गहरे भाव ...।

rashmi ravija ने कहा…

ओह!! दर्द दे गयी ये रचना
सच में मुसीबतों का मारा हसरतों का दम घोंटता ये मध्यमवर्गीय इंसान

Sushil Bakliwal ने कहा…

बेहद खूबसुरती से मन की वेदनाओं को स्वर दिये हैं । उत्तम प्रस्तुति...

बेनामी ने कहा…

वंदना जी,

अछूता सा कुछ.....अलग.....प्रशंसनीय |

Kajal Kumar ने कहा…

मध्यमवर्गीय समाज में हज़ार बातें अच्छी भी हैं :)

Patali-The-Village ने कहा…

मध्यवर्गीय इंसान की मजबूरी को बहुत गहरे भावों के साथ प्रस्‍तुत किया। धन्यवाद|

रचना दीक्षित ने कहा…

मध्यमवर्ग के सरोकारों और मजबूरियों का सुंदर चित्रण बेहतरीन कविता के माध्यम से.

amit kumar srivastava ने कहा…

innocence is inversely proportional to maturity,that is irony actually.

महेन्‍द्र वर्मा ने कहा…

बच्चे तो बच्चे होते हैं। वे किसी भी वर्ग के हों, उनकी हसरतें एक जैसी होती हैं।
बच्चों और बड़ों के मनोविज्ञान को रेखांकित करती श्रेष्ठ कविता।

Manav Mehta 'मन' ने कहा…

bahut sundar...sajeev chitran

ज्योति सिंह ने कहा…

हाँ, मैं मध्यमवर्गीय इन्सान हूँ
अपनी इच्छाओं को समेटे हुए
मगर बच्चों की हसरतों का क्या करूँ?
bahut gahri aur sachchi baat hai ,ise hi majboori kahte hai jab chah kar bhi hum kuchh nahi kar paate hai .ati sundar rachna .

मदन शर्मा ने कहा…

दिल को छू लेने वाली पोस्‍ट।

hamarivani ने कहा…

nice

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

मध्यमवर्ग यानि कि आम इंसान के लिए सजीव वर्णन ..

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 29 -03 - 2011
को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..

http://charchamanch.blogspot.com/

विशाल ने कहा…

माध्यम वर्ग की मजबूरी का सुन्दर चित्रण.

थोड़ा है,थोड़े की जरूरत है

शोभना चौरे ने कहा…

ak aam admi ki dastan ka sundar chitran

धीरेन्द्र सिंह ने कहा…

काव्य,कथा,कश्मकश ज़िंदगी देती है कब सरबस।

रजनीश तिवारी ने कहा…

मध्यमवर्गीय ज़िंदगी बस हसरतों और हैसियत के बीच झूलती रहती है । बड़ी हसीन है ये । ढेर सारे सपने और वही कश्मकश इनको सच करने की, कभी हार कभी जीत , कहीं आशा कहीं निराशा । पूरा दर्द उतारा है आपने एक मध्यंवर्गीय का इस रचना में । शुभकामनाएं ।