इन दिनों
अघटित भी देख लेता हूँ
मानव हूँ ना
एक रेखा खींच लेता हूँ
बेध्यानी की खाद में
अंकुर नए उगाता हूँ
और अपने बेपरवाह
ख्यालो को सींच लेता हूं
जब भी कुछ अघटित भी देख लेता हूँ
मानव हूँ ना
एक रेखा खींच लेता हूँ
बेध्यानी की खाद में
अंकुर नए उगाता हूँ
और अपने बेपरवाह
ख्यालो को सींच लेता हूं
अघटित देख लेता हूँ
मानव हूँ ना
एक रेखा खींच लेता हूँ
संवेदनाओ की गिरह
बाँध लेता हूँ
और खुद से ही जूझ जाता हूँ
मुखर नहीं हो पाता हूँ
मानव हूँ ना
आत्मयंत्रणा की
एक रेखा खींच लेता हूँ
विद्रोह के स्वर भींच लेता हूँ
चीख की चिंगारी को
हवा भी दे देता हूँ
मगर सच से मुँह
चुराता हूँ
मानव हूँ ना
सत्य असत्य के बीच
स्वंय के होम होने की
एक रेखा खींच लेता हूँ
27 टिप्पणियां:
विद्रोह के स्वर भींच लेता हूँ
चीख की चिंगारी को
हवा भी दे देता हूँ
मगर सच से मुँह
चुराता हूँ
सच बात है
---------
१९ तारीख को चाँद आ रहा है मिलने ...
विद्रोह के स्वर भींच लेता हूँ
एक रेखा खींच लेता हूँ
--
बहुत बढ़िया!
कवित्व तो आपके भीतर कूट-कूट कर भरा है!
यदि यह अभिव्यक्ति छन्दबद्ध होती तो मजा आ जाता!
फिर भी बहुत आननद दे गई आपकी रचना
और लिखने की प्रेरणा भी!
मानव हूँ ना
सत्य असत्य के बीच
स्वंय के होम होने की
जब मानव सत्य और असत्य के बीच खुद के होने का अहसास करता है तो द्वन्द के बीच उसे सत्य का बोध नहीं होता , और वह जीवन के मूल लक्ष्य से हट जाता है ...और उसे हटाने में उसका दंभ भी महतवपूर्ण भूमिका अदा करता है
बेहतरीन, भावों की स्पष्टवादिता की सुन्दर अभिव्यक्ति।
बहुत सुन्दर वंदना जी , लाजबाब शब्द रचना !
सच कहा वन्दना जी
अच्छे विचार लिये हुये है आपकी रचना
बहुत शानदार!
सत्य असत्य के बीच
स्वंय के होम होने की
एक रेखा खींच लेता हूँ
sach me aisa hi hota hai...!
par manav ke saath!
सच से मुँह
चुराता हूँ
मानव हूँ ना
सत्य असत्य के बीच
स्वंय के होम होने की
एक रेखा खींच लेता हूँ
bahut hi badhiyaa
good one visit my blog plz
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विद्रोह के स्वर भींच लेता हूँ
चीख की चिंगारी को
हवा भी दे देता हूँ
मगर सच से मुँह
चुराता हूँ
आज की परिस्थितियां देखते हुए करना पड़ता है ..नहीं तो हवन करते हुए हाथ जल जाते हैं ...अच्छी रचना... विचारोतेजक ..
बिलकुल सच कहा आपने, मानव हूँ ना परिस्थितियों के हाथ में एक कठपुतली के जैसे फिर भी ..
सत्य असत्य के बीच
स्वंय के होम होने की
एक रेखा खींच लेता हूँ....
बेहतरीन प्रस्तुति के लिये धन्यवाद..
वंदना जी,
बहुत खूबसूरत......
मानव हूँ ना.....
aur iski keemat to chukani hi padegi.bahut achcha likhi hain.
मानव हूँ ना
सत्य असत्य के बीच
स्वंय के होम होने की
एक रेखा खींच लेता हूँ ...
आज सभी अपने अपने स्वार्थों में फंसे हुए हैं..वर्तमान समाज के मनोविज्ञान का बहुत गहन विश्लेषण और चित्रण...बहुत सशक्त रचना..
दार्शनिक भावों की सुंदर अभिव्यक्ति.रेखा खींचना
व्यक्ति -व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह कहाँ पर किस प्रकार की रेखा खींचे.
चीख की चिंगारी को
हवा भी दे देता हूँ
मगर सच से मुँह
चुराता हूँ
sachchai h..
behatreen
badhai..
मानव हूँ ना
सत्य असत्य के बीच
स्वंय के होम होने की
एक रेखा खींच लेता हूँ ...
बहुत ही सुन्दर भावमय प्रस्तुति ।
काफी गहरी सोच में डूबी रचना । सुन्दर ।
बहुत लाजवाब.
रामराम.
बहुत सुन्दर लाजबाब शब्द रचना| धन्यवाद|
क्या बात कही है....
गहन अनुभूति, गहन अभिव्यक्ति...
आप ने अपनी रचना मे बहुत भाव पुर्ण बात कह दी,
बहुत ही सुंदर प्रस्तुति !! धन्यवाद
sach baat....
सत्य और असत्य के बीच
स्वयं के होम होने की
एक रेखा खींच लेता हूँ ...
मानव ठहरा आखिर , आत्मनियंत्रण जरुरी था ...
बेहद खूबसूरत !
सबसे पहले इस उत्तम अभिव्यक्ति के लिए आपको बधाई...
पहली पंक्ति पता नहीं क्यूँ पर अभी जापान में हुई प्रकृति विपदा की ओर इशारा करती हुई प्रतीत हुई...
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"इन दिनों
अघटित भी देख लेता हूँ
मानव हूँ ना
एक रेखा खींच लेता हूँ"
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सच में मैं इंसान हूँ इसीलिए तो अघटित घटना भी देख लेते हूँ....सचाई से मुह मोड़ लेता हूँ....
की मैं इस धरती माँ का सुपुत्र नहीं कुपुत्र हूँ...फिर भी जब माँ विक्राट रूप दिखाती है...तब भी मैं सच से मुह चुरा लेता हूँ....और खुद को सुधारने की जगह धरती माँ को ही दोष देता हूँ...
सच कहा आपने..
"विद्रोह के स्वर भींच लेता हूँ
चीख की चिंगारी को
हवा भी दे देता हूँ
मगर सच से मुँह
चुराता हूँ
मानव हूँ ना
सत्य असत्य के बीच
स्वंय के होम होने की
एक रेखा खींच लेता हूँ"
bahut khubsurat andaz vidroh to tha par bahut shant lehze me keh dala
bahut khub
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