जब भी चाहा तुमने
सिर्फ़ देह को चाहा
रूप के सौदागर बनेसिर्फ़ देह को चाहा
भोग सम्भोग के पार
ना जाना तुमने
एक नया आकाश
एक नई धरती
एक नयी दुनिया
तुम्हारे इंतजार में थी
मगर तुमने तो
दुनिया के तमाम
रास्ते ही बंद कर दिए
पता नहीं मिटटी में
तुम्हें कौन सा सुख मिला
जो तुम कभी
मूरत तक पहुँच ही नहीं सके
क्या जीने के लिए
सिर्फ देह ही जरूरी थी
या देह से इतर भी
कुछ होता है
ये ना जानना चाहा
तुम सिर्फ क्षणिक
सुख की खातिर
वक्त के लिबास
बदलते रहे
मगर कभी
अपना लिबास
ना बदल पाए
और मैं
तुममे
अपना एक
जहान खोजती रही
देह से परे
एक ऐसा आकाश
जिसका कोई
छोर ना हो
जहाँ कोई
रिश्ते की गंध
ना हो
जहाँ रिश्ता
बेनाम हो जाये
सिर्फ शख्सियत
काबिज़ हो
रूहों पर
और ज़िन्दगी
गुजर जाए
मगर सपने
कब सच हुए हैं
तुम भी
वैसे ही निकले
अनाम रिश्ते को
नाम देने वाले
दर्द को ना
समझने वाले
देह तक ही
सीमित रहने वाले
शायद
सबका अपना
आकाश होता है
और दूसरे के आकाश में
दखल देने वाला ही
गुमनाम होता है
जैसे आज तुमने
मुझे गुमनाम कर दिया
जिस रिश्ते को
कोई नाम नहीं दिया था
उसे तुमने आज
बदनाम कर दिया
आह ! ये क्या किया
क्यों गुलमोहर का
भरम तोड़ दिया?
37 टिप्पणियां:
क्या जीने के लिए
सिर्फ देह ही जरूरी थी
या देह से इतर भी
कुछ होता है
ये ना जानना चाहा
तुम सिर्फ क्षणिक
सुख की खातिर
वक्त के लिबास
बदलते रहे
इंसान की यही फितरत उसे कई अनुभवों से अपरिचित रखती है ..उसने नहीं समझा कभी किसी की भावनाओं को और भावनाओं को ना समझना खुद से दूर होना है .. वास्तविकता को ना समझना है ..आपने बहुत सुन्दरता से प्रकाश डाला है ..आपका आभार
@ एक नया आकाश,एक नई धरती
एक नयी दुनिया तुम्हारे इंतजार में थी
मगर तुमने तो दुनिया के तमाम
रास्ते ही बंद कर दिए ,पता नहीं मिटटी में
तुम्हें कौन सा सुख मिला ,जो तुम कभी
मूरत तक पहुँच ही नहीं सके '
- भावनाओं को दार्शनिक अंदाज़ में गहरी संवेदनशीलता के साथ प्रकट करती बहुत अच्छी कविता . आभार .
तुम सिर्फ क्षणिक
सुख की खातिर
वक्त के लिबास
बदलते रहे
बहुत ही गहन भावों के साथ बेहतरीन प्रस्तुति ।
बहुत ही सही और सच्ची बात कही आपने!
सादर
Bahut sundar.
सुंदर लगी..
eternal relation.
abhi..
जीवन की सच्चाई को बाखूबी चित्रित किया है आपने..
आज तुमने
मुझे गुमनाम कर दिया
जिस रिश्ते को
कोई नाम नहीं दिया था
उसे तुमने आज
बदनाम कर दिया
आह ! ये क्या किया
क्यों गुलमोहर का
भरम तोड़ दिया? .....
marmsparshi aur satik rachna.
भौतिक और आध्यात्मिक प्रेम के बीच के फर्क के बीच एक सुन्दर कविता.
@ एक नया आकाश,एक नई धरती
एक नयी दुनिया तुम्हारे इंतजार में थी
मगर तुमने तो दुनिया के तमाम
रास्ते ही बंद कर दिए ,पता नहीं मिटटी में
तुम्हें कौन सा सुख मिला ,जो तुम कभी
मूरत तक पहुँच ही नहीं सके '@
देह से परे प्रेम की व्याख्या बड़े सहज शब्दों में की गई है...
नया आकाश.. नई धरती... जैसे सरल शब्दों में प्रेम के नए संसार को रच दिया है कविता में...
कमाल लिखा है ...आपके ब्लॉग से पंक्तियाँ कॉपी नहीं हो रहीं. पर बीच की कुछ पंक्तियाँ बेहद अच्छी लगीं.
तुम भी
वैसे ही निकले
अनाम रिश्ते को
नाम देने वाले
दर्द को ना
समझने वाले
देह तक ही
सीमित रहने वाले...
जीवन के यथार्थ का बहुत सुन्दर चित्रण ...गहन चिंतन से परिपूर्ण बहुत मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति..उत्कृष्ट रचना..आभार
तुम सिर्फ क्षणिक
सुख की खातिर
वक्त के लिबास
बदलते रहे
सुन्दर रचना ... गहन भाव !
या देह से इतर भी
कुछ होता है
ये ना जानना चाहा
koi ise janna nhin chahta yhi to durbhagy hai
umda rachna
kavita-kaarn
वंदना जी,
नमस्कार,
बड़े दिनों बाद आज ब्लॉग पर आना हुआ...कुछ निजी कारणों से आज कल वक़्त नहीं मिल पाता...आप की ये रचना बहुत ही अच्छी लगी...एक - एक पंक्ति किसी और ही दुनिया में ले जाती है...
शायद
सबका अपना
आकाश होता है
और दूसरे के आकाश में
दखल देने वाला ही
गुमनाम होता है
जैसे आज तुमने
मुझे गुमनाम कर दिया
जिस रिश्ते को
कोई नाम नहीं दिया था
उसे तुमने आज
बदनाम कर दिया
आह ! ये क्या किया
क्यों गुलमोहर का
भरम तोड़ दिया?
क्या बात है...बहुत ही गहरी सोच वाली एक बेहद सुन्दर रचना...आपको बधाई.
वाह बहुत सुन्दर लिखा है... बेहद सुन्दर चित्रण ..मिट्टी से मूरत तक, रूह तक... रिश्तों के नाम से अनाम और बदनाम सभी बिम्बो को दिखाती भावना से ओट प्रोत एक दर्द को ले कर चलती आपकी कविता दिल छू गयी ...
कल आपकी यह पोस्ट चर्चामंच पर होगी... आप वह आ कर अपने विचारों से अनुग्रहित करियेगा ... सादर
चर्चामंच
मेरे ब्लॉग में भी आपका स्वागत है - अमृतरस ब्लॉग
बहुत ही गहन भावों के साथ बेहतरीन प्रस्तुति । धन्यवाद|
बहुत सुन्दर प्रस्तुति. वाकई...
अच्छा विश्लेषण!
--
रचना जीवन के धरातल पर खरी उतरती है!
यथार्थपरक भावों का बेहतरीन संयोजन......
क्या जीने के लिए
सिर्फ देह ही जरूरी थी
या देह से इतर भी
कुछ होता है
ये ना जानना चाहा
तुम सिर्फ क्षणिक
सुख की खातिर
वक्त के लिबास
बदलते रहे
bhavna badal jaati ,aese mod par khadi hoti hai ki sahi faisla nahi le pati ,ati sundar racha hai ..........
क्या जीने के लिए
सिर्फ देह ही जरूरी थी
या देह से इतर भी
कुछ होता है
ये ना जानना चाहा
तुम सिर्फ क्षणिक
सुख की खातिर
वक्त के लिबास
बदलते रहे
bhavna badal jaati ,aese mod par khadi hoti hai ki sahi faisla nahi le pati ,ati sundar racha hai ..........
मन का सागर बड़ा गहरा है, कोई उतरे तो सही।
काश! देहासक्ति से बाहर निकल अपने असली स्वरुप को पहचान पायें हम लोग 'भोग सम्भोग के पार'
बहुत नेक ख्याल और गहन सोच -
भावनाओं को समझ पाना -
उस पवित्र गहराई तक पहुच पाना -
बहुत सुंदर रचना -
और मैं
तुममें
अपना एक जहाँ खोजती रही
देह से परे
एक आकाश
जिसका कोई ओर छोर न हो
ये हैं हमारी वन्दनीय वंदना जी .....जिनकी भावनाओं कि गहराई का कोई छोर नही ..
नारी के प्यार का सहज और स्वाभाविक चित्रण ......बधाई हो !
bahut accha vandna g
वंदना जी,
सुभानाल्लाह.....बहुत खूबसूरत .शानदार, बेहतरीन, लाजवाब लगी ये पोस्ट.....बहुत गहरी बात उठाई है आपने.........आजकल आप हमारी दहलीज़ पर नहीं आती .....कोई खता हुई क्या हमसे...
bahot subdar !
बेहद भावपूर्ण !
"how to love body to love soul or how to love soul to love body" this is an eternal question and still unanswered....
bahut sundar...
आह !
यही टीस कुछ और दिलों में भी उठी होगी !
आह! क्यांे गुलमोहर का भरम तोड़ दिया।
‘‘आह’’ दिल से निकल कर ब्लॉग जगत पर छा गई।
तार-तार कर दिया।
शर्मसार कर दिया।
पर सच को आइने के
सामने लाकर धर दिया।
आभार, इतनी सशक्त रचना के लिए। यही तो ब्लॉग जगत की खासियत है जिसमें आदमी के अंदर की आग, दर्द और प्रेम सब कुछ निकल कर बाहर आ जाता है।
जैसे ही किसी अनाम रिश्ते को नाम दिया जाता है , उसमें से प्रेम की खुशबू निकल जाती है।
आह ! ये क्या किया
क्यों गुलमोहर का
भरम तोड़ दिया?
kya dard bhara hai in pangtiyon men aapne aaj....jabab nahin.
umda!!! mubarakbad lijiye dil se!!
आह ! ये क्या किया
क्यों गुलमोहर का
भरम तोड़ दिया?
पीड़ा झलकती है इन पंक्तियों में..
एक स्त्री के दर्द को बखूबी उकेरा है आपने..
बधाई..
एक टिप्पणी भेजें