आज एक ख्याल ने जन्म लिया
स्त्री मुक्ति को नया अर्थ दिया
ना जाने ज़माना किन सोचो में भटक गया
और स्त्री देह तक ही सिमट गया
या फिर बराबरी के झांसे में फँस गया
मगर किसी ने ना असली अर्थ जाना
स्त्री मुक्ति के वास्तविक अर्थ को ना पहचाना
देह के स्तर पर तो कोई भेद नहीं
लैंगिग स्तर पर कैसे फर्क करें
जरूरतें दोनों की समान पायी गयीं
फिर कैसे उनमे भेद करें
दैहिक आवश्यकता ना पैमाना हुआ
ये तो सिर्फ पुरुष पर थोपने का
एक बहाना हुआ
जहाँ दोनों की जरूरत समान हो
फिर कैसे कह दें
स्त्री मुक्ति का वो ही एक कारण है
ये तो ना स्त्री मुक्ति का पर्याय हुआ
बराबरी करने वाली को स्त्री मुक्ति का दर्शन दिया
मगर ये भी ना सोच को सही दर्शाता है
"बराबरी करना" के भी अलग सन्दर्भ दीखते हैं
मगर मूलभूत अर्थ ना कोई समझता है
बदलो स्त्री मुक्ति के सन्दर्भों को
जानो उसमे छुपे उसके अर्थों को
तभी पूर्ण मुक्ति तुम पाओगी
सही अर्थ में तभी स्त्री तुम कहलाओगी
सिर्फ स्वतंत्रता या स्वच्छंदता ही
स्त्री मुक्ति का अवलंबन नहीं
ये तो मात्र स्त्री मुक्ति की एक इकाई है
जिसके भी भिन्न अर्थ हमने लगाये हैं
उठो जागो और समझो
ओ स्त्री ..........स्वाभिमानी बन कर जीना सीखो
अपनी सोच को अब तुम बदलो
स्वयं को इतना सक्षम कर लो
जो भी कहो वो इतना विश्वस्त हो
जिस पर ना कोई आक्षेप हो
और हर दृष्टि में तुम्हारे लिए आदर हो
तुम्हारी उत्कृष्ट सोच तुम्हारी पहचान का परिचायक हो
जिस दिन सोच में स्त्री में समानता आएगी
वो ही पूर्ण रूप में स्त्री मुक्ति कहलाएगी
जब स्वयं के निर्णय को सक्षम पायेगी
और बिना किसी दबाव के अपने निर्णय पर
अटल रह पायेगी
तभी उसकी मुक्ति वास्तव में मुक्ति कहलाएगी
बराबरी का अर्थ सिर्फ शारीरिक या आर्थिक ही नहीं होता
बराबरी का संपूर्ण अर्थ तो सोच से है निर्मित होता
43 टिप्पणियां:
अलग तेवर की कविता.. बहुत सुन्दर... बहुत प्रभावशाली
नारी ह्रदय में उठती सहज कामना को भावपूर्ण शब्दों में पिरोने के लिए हार्दिक बधाई..
सुंदर शब्दों में जज्बातोँ को उकेरा......बेहतरीन रचना
सुंदर प्रभाव छोडती रचना...!
यूरोप पर स्त्री चर्च के अधीन थी इसकारण पादरी लोग उनका मनमाना शोषण करते थे। शोषण नहीं कर पाने की स्थिति में उसे डायन कहकर मरवा दिया जाता था। इसीकारण चर्च से स्त्रीमुक्त हो, इसकी आवाज उठी। दुर्भाग्य से भारत में भी स्त्रीमुक्ति का नारा दे दिया गया। जबकि यहां स्त्री स्वतंत्र और स्वाभिमानी थी। यहां स्त्री को मां के रूप में परिभाषित किया गया था। इसलिए शोषण की बात ही नहीं थी।
बेहद सार्थक व सटीक बात कही है आपने ...
स्त्री मुक्ति की व्यथा सच में एक अलग ही अंदाज़ में.....
अजित जी बात कहीं से भी चली हो मगर सोच से तो आज भी स्त्री मुक्त नही है ………आज भी वो प्रोडक्ट के रूप मे इस्तेमाल हो रही है अपने स्वाभिमान को ताक पर रखकर ………उसने सिर्फ़ स्वतंत्रता को ही स्त्री मुक्ति के संदर्भ मे लिया है और उसका गलत उपयोग ज्यादा हो रहा है सार्थक नही…………जिस दिन स्त्री इस बात को समझेगी कि उसके निर्णय पर दूसरे की विचारधारा हावी ना हो और वो खुद अपने निर्णय इतनी दृढता से ले सके कि कोई उसे बदलने को मजबूर ना कर सके…………तभी सही मायनो मे स्त्री मुक्ति होगी और आज भी स्त्री कही की भी हो कहीं ना कहीं पुरुष के साये के नीचे ही दबी है ……एक मानसिक अवलंबन की तरह वो पुरुष पर ही निर्भर है जिससे उसे खुद को मुक्त करना पडेगा तभी वास्तविक स्त्री मुक्ति होगी ………अपने लिये नये पायदान बनाये ना कि पुरुष के ही दिखाये मार्ग पर चलती जाये और सोचे कि मै मुक्त हो गयी स्वतंत्र हो गयी फिर चाहे वो इस रूप मे भी उसका इस्तेमाल ही क्यों ना कर रहा हो…………कृपया अन्यथा ना लीजियेगा जो आज देख रही हूँ उसी संदर्भ मे ही लिखा है और हमारे देश की स्त्रियां आज भी ऐसीही दयनीय हालत मे हैं।
Bilkul theek kaha....stree muktee to aatmic aur mansik hotee hai!
kya gajab ki soch hai ... sau pratishat sahi , kharee
वंदना
हमारे समाज में बोलने और सोचने का अधिकार स्त्री का है ही नहीं . जो भी स्त्री बिना किसी पुरुष के सहारे के कुछ करती हैं लोग उसका तिरस्कार करते हैं उसको नारीवादी , चरित्रहीन , फॉरवर्ड , पुरुष विरोधी इत्यादि नाम देते हैं
इसी ब्लॉग जगत में ये ५ साल से मेरे साथ हो रहा हैं क्युकी मै खुल कर नारी पुरुष समानता के विषय में लिखती हूँ .
मेरा मानना हैं की नारी है ही बराबर फिर क्यों बार बार ये कहा जाता हैं की वो बराबरी कर रही हैं . ये बात किसी को हज़म नहीं होती इस समाज में . सदियों से भारतीये समाज में नारी को देवी देवी कहा जाता हैं लेकिन उसकी स्थिति बहुत खराब हैं . गृहणी को तो नॉन प्रोडक्टिव वोर्केर माना जाता हैं . और जो गृहणी नहीं हैं वो समाज की विरोधी हैं
आप ने मुझे मेरी एक पोस्ट याद दिला दी http://indianwomanhasarrived.blogspot.com/2008/04/blog-post_24.html
कविता दम दार हैं नारी कविता ब्लॉग पर जोड़ दे
बहुत ही सार्थक सटीक और भावपूर्ण अभिव्यक्ति...
Nice post .
अपने प्रेम को पवित्र कैसे बनाएं ?
चरम सुख के शीर्ष पर औरत का प्राकृतिक अधिकार है और उसे यह उपलब्ध कराना
उसके पति की नैतिक और धार्मिक ज़िम्मेदारी है.
प्रेम को पवित्र होना चाहिए और प्रेम त्याग भी चाहता है.
धर्म-मतों की दूरियां अब ख़त्म होनी चाहिएं. जो बेहतर हो उसे सब करें और जो ग़लत हो उसे कोई भी न करे और नफ़रत फैलाने की बात तो कोई भी न करे. सब आपस में प्यार करें. बुराई को मिटाना सबसे बड़ा जिहाद है.
जिहाद करना ही है तो सब मिलकर ऐसी बुराईयों के खि़लाफ़ जिहाद करें जिनके चलते बहुत सी लड़कियां और बहुत सी विधवाएं आज भी निकाह और विवाह से रह जाती हैं।
हम सब मिलकर ऐसी बुराईयों के खि़लाफ़ मिलकर संघर्ष करें.
आनंद बांटें और आनंद पाएं.
पवित्र प्रेम ही सारी समस्याओं का एकमात्र हल है.
Read entire article on this blog
http://ahsaskiparten.blogspot.com/2012/01/love-jihad.html
बहुत सटीक सोच दर्शाती है कविता स्वयं को मजबूत बनाकर ही नारी का उत्तान हो सकता है......सिर्फ रोने से काम नहीं चलने का|
sahee kaha,sunder rachna.
अन्ततः सब बराबर है..आत्मा के स्तर पर..
यह सही है कि पश्चिम में स्त्रियों की समस्या अलग थी भारत से.पर शोषण भारत में भी होता है.रूप बेशक अलग है.
सुन्दर प्रस्तुति.
रचना जी हमे पहल तो करनी ही होगी अपनी अपनी तरह क्योंकि इसका बीडा जब तक एक नारी नही उठायेगी तब तक उसके हालात सुधरने वाले नही………अब सोच को तोबदलना ही होगा और ये काम स्वंय नारी को ही करना होगा ………जब तक संपूर्ण नारी जाति की सोच मे बदलाव नही आ जाता तब तक कैसे कह दें स्त्री मुक्त हुई………अपनी मुक्ति अपने आप ही करनी पडती है……………नारी ब्लोग की तो मै सदस्या नही हूँ तो वहाँ कैसे जोडूँ ?
वंदना जी बहुत ही सटीक बात लिखी है...... हमारे समाज में अपने आत्मविश्वास की बोली लगाकर बेबस बनने की होड लगी है|
ऐसा ख्याल हर नारी के मन में जन्म ले तो क्या बात हो..
बहुत सार्थक प्रस्तुति...
बधाई वंदना जी.
सटीक बात, आन्दोलन की परिभाषा बदलती कविता है ये. स्त्री मुक्ति जैसे आन्दोलन बेमानी है जब तक स्वयं स्त्री अपने बारे में नहीं सोचती.
आपसे सहमत हूँ ... वंदना जी ...
यही सोच बेहतर है....
बधाई आपको..
Aapkee kavita vichaarniy hai lekin prashn paida
hotaa hai ki stree mukti kee aad mein aaj stree
khule aam apne aese -aese ang pradarshan karne
lagee hai jinhen dekh kar sabhya logon ke sar
sharm ke maare jhuk jaate hain . Ek baat aur .
Main maantaa hun ki hamaaraa aachaar dogla hai .
Ek taraf to purush stree ko devi kahtaa hai aur
doosre taraf use peedit kartaa hai lekin stree
bhee to stree ko peedit kartee hai . Bhartiy
samaaj mein jo bahu apnee saas se dukhee hai ,
saas bante vah bhee apnee bahu ko dukhee karne
lagtee hai . kitnee saasen hain jo bahuon ko
" beti ` samajhtee yaa maantee hain ? kitnee
bahuyen hain jo saas ko " maa " samajtee yaa
maantee hain ? Badee gambheer samasya hai , sab
deshon mein yahee shochniy stithi hai . Ek
sarvekshan hai ki ab pashchamee deshon mein
purush streeyon se peedit hain .
आदरणीय प्राण शर्मा जी ………मैने भी इसी संदर्भ मे ये बात कही है कि सिर्फ़ विज्ञापन नही बनना है , अपना दोहन नही होने देना है आज ये बात स्त्री को समझनी होगी , अपनी सोच विकसित करनी होगी और एक उचित और विवेकपूर्ण निर्णय लेने मे खुद को सक्षम बनाना होगा ना कि कोई भी स्त्री मुक्ति के नाम पर कुछ कहे उसके पीछे चलना होगा…………जहाँ तक स्त्री का एक दूसरे के प्रति व्यवहार है उसके लिये यही कह सकती हूँ जब सोच मे इस हद तक बदलाव आ जायेगा तो व्यवहार मे अपने आप बदलाव आयेगा………जब तक सोच ही रूढिवादी रहेगी तब तक स्त्री स्त्री की दुश्मन रहेगी
@pransharma
kitnae damad haen jo sasur ko pita maantaey haen aur kitnae sasur haen jo damad ko betaa
yae jab bhi naari kae liyae koi bhi baat hoti haen kisi naa kisi naari ko ek dusrae kae khilaaf dikhaa kar vishyantar hotaa haen
kyun
स्त्री अगर खुद को स्वयं पहचान ले तो ही उसकी मुक्ति संभव है सार्थक रचना ...
क्या बात है वंदना जी। बहुत ही बढ़िया और विचार-पूर्ण कविता। बधाई आपको।
sateek aur gehri baat kahti lajawab prastuti.
तारीफ़ के लिए कुछ भी लिखूं तो वह स्वयं सूर्य को चिराग दिखाने सामान होगा ..
समय मिले तो मेरे ब्लॉग पर भी पधारियेगा ..
स्वागतोत्सुक
kalamdaan.blogspot.com
बहुत अच्छी सार्थक प्रस्तुति, सुंदर रचना,बेहतरीन अभिव्यक्ति...
new post...वाह रे मंहगाई...
बहुत बढ़िया और सार्थक .. सोच का बदलाव ज़रुरी है ..
अर्थपूर्ण , सशक्त रचना
stri bhi ek insaan hi hai ek svatantr vyati bas itna samjane ki aavshyakta khud stri ko hai ...aur vakt aane par nirbhik hokar samjaane ki bhi .....
स्वाभिमानी बनकर जीना सीखो.....बहुत सुंदर प्रस्तुति, वाह !!!
हर स्त्री -पुरुष को हमेशा एक दुसरे की काबिलियत, सोच,
और निर्णय का सम्मान करना होगा !
अगर ये बदलाव हो जाये तो सारी समस्या ही ख़त्म !
बहुत सुन्दर एवं चिंतनीय रचना !
ह्रदय की बात कह दिया है |
वंदना जी की कविता और उसमे उठाया गया मुद्दा बिलकुल सही है. स्त्री मुक्ति एक नारे या नारे से आये भटकाव से ज्यादा नहीं बन सका है.. महिला सशक्तिकरण की और महिला जागरण की बहुत जरूरत है जो भी महिला या पुरुष इस दिशा मई गंभीर प्रयास कर रहे हैं वो देश और समाज की सच्ची सेवा कर रहे हैं. आदरणीय प्राण शर्मा जी मेरे आदर्श कवियों में से है उनके विचारो का सम्मान करते हुए कहना चाहूँगा की सास एक अच्छी सास बने और बहू एक अच्छी बहू बने तो शायद ज्यादा ठीक हो ऐसे ही दामाद अच्चा दामाद बने और श्वसुर अच्छा स्वसुर बने तो ठीक है.
स्वयं की पहचान जरूरी है. दिल से लिखी है कविता वंदनाजी. बधाई.
आपकी कविता अच्छी लगी । मेरे नए पोस्ट धर्मवीर भारती पर आपका सादर आमंत्रण है । धन्यवाद ।
बराबरी का सही अर्थ सोच में निहित होता है।
बहुत सुंदर।
very nice.
bahot achchi tarah se bhawon ko likha hai.....wah.
very true......barabari ka arth to soch se nirmit hota hai aur jab tak soch nahi badlegi tab tak barabari ........
very true lines and effective :)
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