अब ना कोई चाहत ना कोई खोज
शायद यही होता है खुद को पाना
जहाँ पहुच कर हर चाह मिट जाये
जहाँ "मैं "का भास हो जाये
हर चिन्ह , हर परछायीं
फिर चाहे वो खुद
की ही क्यूँ ना हो
कोई ना डरा पाए
जहाँ "तू" और "मैं"
अभेद हो जाए
जहाँ सांसारिक चाह
हर सुख , हर इच्छा
विराम पा जाए
मुक्तिबोध हो जाये
और आत्ममंथन की
प्रक्रिया संपूर्ण हो जाए
ये सब कहना कितना आसान है ना…………बेशक इसमे से गुजरी भी हूँ मगर क्या ऐसा निर्लेप रहना सम्भव है?वो भी संसार मे रहकर्………बड़े बड़े ऋषि मुनि ज्ञानी ध्यानी जब ब्रह्मज्ञान के मर्मज्ञ हो गए तब भी पथ से डिग गए तो मेरे जैसी अदना सी इन्सान क्या इन सबसे खुद को विलग रख पायेगी.........क्या एक छोटा सा झोंका हवा का इसके तिनको को उडा ना ले जायेगा..........क्या एक हलकी सी वक्त की ठोकर सारे ज्ञान को धराशायी ना कर देगी ............समझ आना , खुद को जानना , आत्मतत्व पहचानना सब कितना आसान लगता है मगर वक्त की सिर्फ एक आँधी सारे ज्ञान को निर्मूल सिद्ध कर देती है ...........क्यों?शायद यही होता है खुद को पाना
जहाँ पहुच कर हर चाह मिट जाये
जहाँ "मैं "का भास हो जाये
हर चिन्ह , हर परछायीं
फिर चाहे वो खुद
की ही क्यूँ ना हो
कोई ना डरा पाए
जहाँ "तू" और "मैं"
अभेद हो जाए
जहाँ सांसारिक चाह
हर सुख , हर इच्छा
विराम पा जाए
मुक्तिबोध हो जाये
और आत्ममंथन की
प्रक्रिया संपूर्ण हो जाए
क्योकि रहना तो आखिर संसार में ही है ना ..........कैसे मोह के बंधनों से और कब तक मुक्त रख सकते हैं ? कब तक सिर्फ अपने लिए जी सकते हैं ...........कहना आसान है खुद के लिए जीने लगे मगर क्या जीना इतना आसान है .........जब भी खुद के लिए जिए ज़माने ने जीने ना दिया और जब ज़माने के लिए जिए तो भी जीने ना दिया...........अब सारा ज्ञान है मगर फिर भी कुछ संशय सिर उठा रहे हैं ............कर्म भी किये , फल भी मिले मगर फिर भी संतुष्ट ना हुए ...........कर्मफल की इच्छा भी नहीं रखी फिर भी कर्तव्यनिष्ठ ना कहलाये............ना जाने ऐसे कितने सवाल अभी भी अपनी दिशा खोज रहे हैं ...........सभी तो कृष्ण नहीं होते ना जो संसार में रहकर भी असंग रहें ..........पल में दामन छुड़ा लें ...........कैसे एक सांसारिक व्यक्ति सब कुछ जानकर , संसार को मिथ्या मानकर, अपने आप को पहचानकर , आत्मावलोकन करके भी संसार में रहते हुए खुद को नि:संग रख सकता है ? अब ये प्रश्न कुलबुला रहा है ............बेशक आत्ममंथन के बाद सारा गरल बह जाता है बचता है तो सिर्फ अमृत्तत्व .................मगर तब भी ये यक्ष प्रश्न एक आम व्यक्ति की दृष्टि से अपना मूँह उठाकर खड़ा है ............कैसे संसार में रहकर संसार से बचे? कहना आसान है जल में कमलवत रहना ऐसे ही संसार में रहना मगर क्या संसार रहने देता है ............क्या संसार में रहकर ऐसे रहा जा सकता है.............संसार के मन की भी करनी ही पड़ती है और कम से कम तब तक तो जरूर जब तक इस समाज में हम सामाजिक प्राणी बनकर रहते हैं वरना सब कुछ छोड़ देना और अपने कर्तव्यों से मुँह मोड़ लेना बहुत आसान होता है मगर एक नारी के लिए वो भी इतना सरल नहीं उसके ऊपर तो ना जाने कितनी जिम्मेदारियां होती हैं ...............उसी ने तो नव निर्माण करना होता है ............वो नींव रखनी होती है जिस पर एक ईमारत सिर उठाकर बुलंद होती है ...............उसे ही संस्कारों की फसल उगानी होती है ...........उसे ही समाज के सारे आचार -विचार सहेजने होते हैं ............आखिर वो ही तो हस्तांतरित करती है एक पीढ़ी से दूसरी में ................और इन सब जिम्मेदारियों के बीच अपने लिए जीने की जद्दोजहद भी करनी होती है ............ऐसे में कैसे वो विमुख हो सकती है अपने कर्तव्यों से ..............सबमे तालमेल स्थापित करना होता है ..............तभी कहा कि सभी कृष्ण नहीं बन सकते ............प्रेम भी करो मगर लिप्त मत हो किसी में .............यही है ना कृष्ण भाव ..............कोशिश करुँगी ऐसे भी जीने की ................हाँ इतना अवश्य है इस आत्ममंथन के बाद कि थोडा सा जीवन का ढंग बदल लिया जाए ............कर्त्तव्य पालन भी किया जाए मगर उसमे डूबा ना जाए , अपने अहम् को आड़े ना आने दिया जाये , मैं को ख़त्म कर दिया जाए ................समाज में रहकर समाज से निर्लिप्त रहने का अभ्यास किया जाये ..........शायद ये इतने बड़े आत्ममंथन के बाद बचे कुछ ज्वारों के अवशेष हैं जो धीरे धीरे वक्त के साथ शांत हो जाएँ कभी कभी ऐसा लगता है ...........चलो जो भी हुआ ............मगर ये पता चला कि मैं हूँ सिर्फ मेरे लिए किसी के लिए नहीं ............मेरे होने ना होने से किसी को फर्क नहीं पड़ेगा इसलिए लगता है ये आत्ममंथन की प्रक्रिया जीवन पर्यंत चलानी पड़ेगी ताकि कभी कोई कलुषता, कोई विषमता, कोई भी तूफ़ान मिले आत्मज्ञान को मिटा ना सके ...........अपने चक्रव्यूह में फिर से ना फँसा सके ............आत्ममंथन एक सतत प्रक्रिया है निरंतर बहने वाला झरना जिसमे डूबे रहने पर फिर किसी अवलंबन की जरूरत नहीं पड़ती ............दृष्टि स्थिर हो जाती है .............एक्य भाव समाहित हो जाता है .
मगर फिर भी यही निचोड़ निकल कर आया ...........सांसारिक व्यक्ति के जीवन में आत्ममंथन की प्रक्रिया निरंतर चलती रहनी चाहिए तभी वो संसार में रहकर भी संसार से विलग रह सकेगा ..............
32 टिप्पणियां:
आत्ममंथन अनवरत प्रक्रिया है। परिस्थितियाँ कभी यह गति बढ़ा देती हैं।
इस संसार से विलग कोई कैसे हो सकता है?
वंदना जी आपने तो जिन्दगी का फलसफा ही रख दिया सामने. बहुत ही सही लिखा है सब कुछ इतना आसान होता तो क्या बात थी. बधाई इस सार्थक लेखन के लिए.
सार्थक सांसारिक सत्य निरुपण हुआ।
आत्म-मंथन की प्रक्रिया सतत चलनी चाहिए।
कर्तव्य और मोह की भेद रेखा तलाशना भी आत्म-मंथन है।
शानदार अभिव्यक्ति!! आभार
वन्दना जी, एक टिप्पणी की थी लेकिन वह नेट की गड़बड़ी से उड़ गयी। अब दोबारा वैसे ज्ञान वाली बातें लिखने का मन नहीं है। बस मस्त रहें।
तू है तो ये जंमी है
,ये आसमान है
तू है तो ये विहान है,ये जहान है
वरना क्या है, सबको आना-जाना है
तू ही लघु है और तू ही महान है।
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...
सांसारिक व्यक्ति के जीवन में आत्म मंथन की प्रक्रिया निरंतर होती रहनी चाहिये। बिल्कुल सच बहुत खूब ।
you are very right .i am agree with you .self -analyses is must for every one but one thing i just want to mention here ''a person like you 'can never ever forgetten by any one .
with regards .
आध्यात्मिकता में रंगी रचना! वन्दना जी , आत्म मंथन तो ज़रूरी है, हम संसार कि हर चीज को जानना चाहते हैं लेकिन खुद को ही ठीक से नहीं जान पाते, कुछ प्रश्नों के उत्तर ढूंढने जरुरी होते हैं जैसे मैं कौन हूँ? क्यों आया हूँ
? कब तक रहना है? और क्या करना है? ये मुश्किल जरुर है लेकिन सांसारिक व्यक्ति अपने कर्तव्यों को पूरा करते हुए भी आध्यात्म के जरिये ये कर सकता है, जरुरत है कुछ समय खुद के लिए निकालने की ! मैंने भी महसूस किया है कि ये बहुत कठिन है! धन्यवाद और शुभकामना!
जहाँ 'तू' और 'मैं' अभेद हो जाए
बहुत ही सटीक और सार्थक विचार, बधाई वंदना गुप्ता जी|
सांसारिक जीवन में रहकर भी इंसान सात्विक विचारों का पालन करते हुए सांसारिक कष्टों से बचा रह सकता है । लेकिन इसके लिए अहम को ख़त्म करना होगा । अपनी सोच को बदलना होगा ।
सही कहा है , आत्ममंथन जिंदगी भर चलता है ।
आत्म-मंथन एक स्वत होने वाली प्रक्रिया है और सतत चलती रहती है सृजन शील व्यक्ति के मन में .... यही इस प्रक्रिया में ले जाती है और निकलती भी है ..
चाहे जो भी हो हम सांसारिक मोह को त्याग नहीं सकते और ये आत्म मंथन भी हमेशा चलता रहता है ...
आपको और आपके परिवार को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं ...
आत्ममंथन तो चलता ही रहना चाहिए,
समय भी बहुत बलवान है जाने क्या क्या करा दे
lekh sarahniya hai '
बहुत सुंदर रचना, ओर बहुत सुंदर ढंग से आप ने आत्ममंथन की बात कही,सहमत हे आप की बात से. धन्यवाद
आत्म मंथन बहुत जरुरी है .
बेहद सटीक और सार्थक अभिव्यक्ति .
आत्ममंथन से बहुत सी समस्या का निदान निकल आता है।
आत्म मंथन की प्रक्रिया निरंतर होती रहनी चाहिये।
ek grahasth ke jeewan ki sari kashmokash aapne apne is lekhan me utaar di...han sach kaha ek nari jo apne grahasth jeewan ki sabhi jimmedariyon ko poorn karne ke liye aabadh hai to vo virakti ke maarg par kaise chal sakti hai. lekin ant me jo aapne nichod nikala ki is aatm-manthan ko nirantar sakriye karna hi padega tabhi sansar me rahkar sansar se vilag ho kar us parmeshwar ke dwar tak pahuncha ja sakta hai. vo kahte hain na ek grahsth naari ko apna jeewan yaapan is tarah se karna chaahiye jaise vo nari jo sir par matki liye pathreeli rah par chal rahi hai arthaarth matki ki taraf jo uska dhyan hai use vo apne jeewan ka lakshay ishwar me dhyan ke roop me le kar chale aur jo vo pathreeli dagar par chal rahi hai vo uske grahasth ke utar-chadhaav hain. so nari ka jeewan aisa hi hai, use in utar chadaav me apni jindgi ke lakshay ko khona nahi apitu ishwar ke dwar tak ki manzil tak sahi salamat pahunchne ka hai.
yahi ek safal zindgi ka saar hai.
... bhaavpoorn lekhan ... badhaai !!
आत्ममंथन निरंतरता मांगती है. शायद यह सम्पूर्ण नहीं हो सकती.
आत्म मंथन ही जीवन का सार्थक विस्तार है !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
अंत की लाइने बिलकुल ठीक हैं , आत्ममंथन ही रास्ता दीखता है ...शुभकामनायें !
ज़िन्दगी एक खामोश सफ़र वाकई लाजवाब है. वाह
ज़िदगी की सच्चाइयों का सुंदर चित्रण करती कविता और उसकी व्याख्या करता सार्थक आलेख पढ़कर अच्छा लगा।
आत्ममंथन-आत्मचिंतन की प्रक्रिया जीवन भर चलनी चाहिए...अच्छा संदेश।
वंदना जी,
आपने जो शुरू में लिखा है उससे मैं पूरी तरह सहमत हूँ.......मैं को मिटाकर ही कोई सम्पूर्ण से जुड़ता है.....बहुत शानदार.......अब आपकी रचनाओं में कुछ आध्यात्मिकता देखने को मिल रही है......ऐसे ही लिखती रहें ....मेरी शुभकामनायें आपके साथ हैं.....
वन्दना जी जिंदगी का तात्पर्य बता दिया
बहुत बहुत धन्यवाद
At the outset apologies for commenting in English on a Hindi blog. I remember one of my seniors always used to say, "Stagnant water always smells. Be like a river who always moves." The same is the case with life. The moment you stop the process of introspection, you're dead as no-one is perfect and there always is a room for improvement.
Nice blog and nice thoughts with careful selection of words:)
Just like that...
aatm manthan ka ye anupam dhan ......jis per awlambit yah jeevan ......aapki bhawnaaon ka yah upwan ....jaise raag sunaye madhuwan vandana ji shat shat abhinandan
aatm manthan ka ye anupam dhan ......jis per awlambit yah jeevan ......aapki bhawnaaon ka yah upwan ....jaise raag sunaye madhuwan vandana ji shat shat abhinandan
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