आह! दर्द आज बहुत रुला रहा है ..........क्यूँ? क्या कारण है नहीं जान पा रही मगर कुछ तो है जो कहीं तो घटित हो रहा है मगर ह्रदय इतना व्याकुल क्यूँ हो रहा है ? कौन सा इसका सामान छीन रहा है जो इसका आसमां इसे छोटा पड़ रहा हो ..........क्या आत्ममंथन की प्रक्रिया में यथार्थ का धरातल भी कम पड़ने लगता है या उस पर पैर नहीं टिक पाते हैं ...........कौन सी फाँस है जो निकल नहीं पा रही या कौन सा ऐसा चूल्हा है जिसमे आँच नहीं रही और मंथन की प्रक्रिया में विष का असर बढ़ता ही जा रहा है शायद अमृत से पहले का आखिरी विष है ये तभी इतना मथ रहा है कि विचार एकत्र नहीं हो पा रहे .............सब छिन्न भिन्न हो रहा है .............सब ओर सिर्फ भटकन ही भटकन .................सिर्फ घोर अन्धकार के सिवा और कुछ नहीं ............सुबह से पहले गहराते अंधियारे का अंदेशा लग रहा है शायद .............ओह! ये क्या हो रहा है ..............इतना विचलन ? इतनी अस्थिरता तो पहले कभी नहीं हुई ? उफ़ ! नहीं सहन हो रहा ! कैसे विषवमन करूँ कि खुद को सार्थक कर सकूँ?
हर क्रिया की
प्रतिक्रिया होती है
हर सुबह की
शाम होती है
हर रात का
दिन होता है
सुना करती थी
मगर ये क्या
यहाँ तो
घटाटोप अंधियारे
घन छा रहे हैं
बिजलियाँ कड़क रही हैं
तूफानी हवाएं
अपने साथ सारे
विचारों को
उडा ले जा रही हैं
कहीं कहीं तो
भयावह चक्रवात
अपने साथ
हर छोटी बड़ी
अडिग, धीर -गंभीर
उम्मीदों , आशाओं
संवेदनाओं की
चट्टानों को भी
धराशायी कर रहे हैं
सब हो रहा है
मगर सागर
ऊपर से शांत है
और उसके अन्दर
ये कैसी कैसी
सूनामियां आ रही हैं
क्या आत्ममंथन में
ऐसे विषबुझे बाण लगते हैं
कि हर ओर
सिर्फ शिव तांडव
ही दिखाई देता है
प्रकृति का उपसंहार
ही नज़र आता है
शायद यही होता है
शांति की ओर
अग्रसित पहला कदम
शायद यही होता है
अमृतत्व की प्राप्ति
की ओर पहला कदम
शायद यही होता है
आत्ममंथन से
आत्मदर्शन की
ओर पहला कदम
शायद यही होता है
आत्ममंथन के बाद प्राप्त
वो अमूल्य धन
जिसे पाने के बाद
और कोई चाह नही रहती
और आत्ममंथन की
प्रक्रिया पूर्णता
प्राप्त कर लेती है………
क्रमशः ...........
24 टिप्पणियां:
aatm-manthan kee prakriyaa kaa sajeev chitran.... badhiya kavita.
आत्म मंथन में ही तमाम समस्याओं का निदान है
वंदना जी........हलाहल....का भी तो मजा है. .....अगर हम अपने स्वयं.....को पा ले तो आत्ममंथन का ये हलाहल....अमृत बन जाएगा......आशा करता हूँ....की इस मंथन के बाद एक नयी-नवेली वंदना से मुलाक़ात हो.
अन्तर द्वंद्व की अभिव्यक्ति, जानदार
शान्त चित सभी समस्याओं का हल है।
... behatreen ... prasanshaneey !!
तारीफ़ के लिए शब्द नहीं है, बेहतरीन अभिव्यक्ति!
अशांत मन का सुन्दर चित्रण ।
मथते रहिये मन को, अमृत निकलेगा।
आत्म - मंथन, कष्टकारी तो है! परन्तु इसका परिणाम "एक नई सुबह है " जिसमें जिंदगी ताजगी के साथ-साथ नई कहानियाँ भी लिखती है .आपकी समस्या का समाधान इसी नई जिंदगी में छुपा हुआ है . शुभकामनाएं
वंदना के मंथन को वंदन। उम्मीद यही है कि इसके बाद जो अमृत निकलेगा वह हमें भी मिलेगा।
वंदना जी आपको जितना भी अब तक पढ़ा है ये सीरीज सबसे अच्छी लग रही है .बहुत अच्छा लगता है पढ़ना.
अरे ...!
ये सब क्या??
और आत्ममंथन की प्रक्रिया को क्रमशः क्यों ... अबाध गति से चलने दीजिए ...बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
फ़ुरसत में आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री के साथ
आपने अंतरद्वंद को सार्थक शब्दों में उकेरा ....
बेहतरीन प्रस्तुति.
wah.taareef ke shabd hi nahin hain.
आत्ममंथन से
आत्मदर्शन की
ओर पहला कदम
....शुभकामनायें।
वंदना जी... इस आत्ममंथन द्वारा इतनी सुंदर और भाव पूर्ण कविता से साक़क्षातकार हुआ ........ऐसे ही बस जारी रहे ये आत्ममंथन.
.
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अब कितने क्रमश: हैं?
बिलकुल मथ देने वाला आत्ममंथन।
प्रभावशाली अभिव्यक्ति !
हर क्रिया की
प्रतिक्रिया होती है
और फिर इसी क्रिया और प्रतिक्रिया के फलस्वरूप तो मंथन सम्भव है
अंतर्द्वन्दात्मक यह श्रृंखला अत्यंत प्रभावशाली है
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
प्रभावशाली आत्ममंथन।
बहुत घर द्वंद्व चित्रण .मन को गहरे तक छूनेवाली रचनाएं..नव वर्ष की शुभकामनाएं.
bahut sunder rachna.
nav varsh ki hardik shubh kamnaye..........
हार्दिक शुभकामनायें ! !
Bahut khoob
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