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गुरुवार, 7 मार्च 2013

कर्त्तव्य च्युत दस्तावेज इतिहास की धरोहर नहीं होते


रश्मि प्रभा जी के संपादन में " नारी विमर्श के अर्थ " पुस्तक में छपा मेरा आलेख और कविता 


स्त्री विमर्श

स्त्री विमर्श ने असली जामा तभी से पहना जब से महिला दिवस और स्त्री सशक्तिकरण जैसे मुद्दों और दिनों की शुरुआत हुई और स्त्री को सोचने पर विवश किया कि  वो क्या थी और क्या है और आगे क्या हो सकती है . उससे पहले स्त्री जागृति  के लिए बेशक प्रयास होते रहे मगर उसकी पहुँच हर नारी तक नहीं हो पा  रही थी लेकिन जब से स्त्री के लिए खास दिवस आदि को इंगित किया गया तो उन्हें लगा शायद हम भी कुछ खास हैं या कहिये किसी गिनती में आती हैं वर्ना तो स्त्री ने अपने को सिर्फ घर परिवार के दायरे में ही सीमित  कर रखा था बस कुछ स्त्रियाँ ही थीं जो पुरानी परिपाटियों से लड़ने का जज्बा रखती थीं . बेशक स्त्री कभी कमज़ोर नहीं रही लेकिन उसे हमेशा अहसास यही कराया गया कि  उसमे कितनी कमियां हैं और वो खुद को उसी दायरे में कैद करके रखने लगी .
कितना सुन्दर लगता है ना जब हम सुनते हैं आज महिला दिवस है , स्त्री सशक्तिकरण का ज़माना है , एक शीतल हवा के झोंके सा अहसास करा जाते हैं ये चंद  लफ्ज़ . यूँ लगता है जैसे सारी कायनात को अपनी मुट्ठी में कर लिया हो और स्त्री को उसका सम्मान और स्वाभिमान वापस मिल गया हो और सबने उसके वर्चस्व को स्वीकार कर लिया हो एक नए जहान का निर्माण हो गया हो ...............कितना सुखद और प्यारा सा अहसास !

पर क्या वास्तव में दृश्य ऐसा ही है ? कहीं परदे के पीछे की सच्चाई इससे इतर तो नहीं ?

ये प्रश्न उठना स्वाभाविक है क्योंकि हम सभी जानते हैं वास्तविकता के धरातल पर कटु सत्य ही अग्निपरीक्षा देता है और आज भी दे रहा है . स्त्री विमर्श ,स्त्री मुक्ति, स्त्री दिवस , महिला सशक्तिकरण सिर्फ नारे बनकर रह गए हैं . वास्तव में देखा जाये तो सिर्फ चंद गिनी चुनी महिलाओं को छोड़कर आम महिला की दशा और दिशा में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है फिर चाहे वो देशी हो या विदेशी . विश्व पटल पर महिला कल भी भोग्या थी आज भी भोग्या ही है सिर्फ उसकी सजावट का , उसे पेश करने का तरीका बदला है . पहले उसे सिर्फ और सिर्फ बिस्तर की और घर की शोभा ही माना जाता था और आज उसकी सोच में थोडा बदलाव देकर उसका उपभोग किया जा रहा है , आज भी उसका बलात्कार हो रहा है मगर शारीरिक से ज्यादा मानसिक . शारीरिक तौर पर तो उसे विज्ञापनों की गुडिया बना दिया गया है तो कहीं देह उघाडू प्रदर्शन की वस्तु और मानसिक तौर पर उसे इसके लिए ख़ुशी से सहमत किया गया है तो हुआ ना मानसिक बलात्कार जिसे आज भी नारी नहीं जान पायी है और चंद बौद्धिक दोहन करने वालों  की तश्तरी में परोसा स्वादिष्ट पकवान बन गयी है जिसका आज भी मानसिक तौर पर शोषण हो रहा है और उसे पता भी नहीं चल रहा . 
 सोच से तो आज भी स्त्री मुक्त नही है ………आज भी वो प्रोडक्ट के रूप मे इस्तेमाल हो रही है अपने स्वाभिमान को ताक पर रखकर ………उसने सिर्फ़ स्वतंत्रता को ही स्त्री मुक्ति के संदर्भ मे लिया है और उसका गलत उपयोग ज्यादा हो रहा है सार्थक नही.जिस दिन स्त्री इस बात को समझेगी कि उसके निर्णय पर दूसरे की विचारधारा हावी ना हो और वो खुद अपने निर्णय इतनी दृढता से ले सके कि कोई उसे बदलने को मजबूर ना कर सके…तभी सही मायनो मे स्त्री मुक्ति होगी और आज भी स्त्री कही की भी हो कहीं ना कहीं पुरुष के साये के नीचे ही दबी है ……एक मानसिक अवलंबन की तरह वो पुरुष पर ही निर्भर है जिससे उसे खुद को मुक्त करना पडेगा तभी वास्तविक स्त्री मुक्ति होगी ………अपने लिये नये पायदान बनाये ना कि पुरुष के ही दिखाये मार्ग पर चलती जाये और सोचे कि मै मुक्त हो गयी स्वतंत्र हो गयी फिर चाहे वो इस रूप मे भी उसका इस्तेमाल ही क्यों ना कर रहा हो…………उसे पहल तो करनी ही होगी अपनी तरह क्योंकि इसका बीडा जब तक एक नारी नही उठायेगी तब तक उसके हालात सुधरने वाले नही………अब सोच को तो बदलना ही होगा और ये काम स्वंय नारी को ही करना होगा ………जब तक संपूर्ण नारी जाति की सोच मे बदलाव नही आ जाता तब तक कैसे कह दें स्त्री मुक्त हुई………अपनी मुक्ति अपने आप ही करनी पडती है………  उसे सिर्फ़ विज्ञापन नही बनना है , अपना दोहन नही होने देना है आज ये बात स्त्री को समझनी होगी , अपनी सोच विकसित करनी होगी और एक उचित और विवेकपूर्ण निर्णय लेने मे खुद को सक्षम बनाना होगा ना कि कोई भी स्त्री मुक्ति के नाम पर कुछ कहे उसके पीछे चलना होगा…………जहाँ तक स्त्री का एक दूसरे के प्रति व्यवहार है उसके लिये यही कहा जा सकता है जब सोच मे इस हद तक बदलाव आ जायेगा तो व्यवहार मे अपने आप बदलाव आयेगा………जब तक सोच ही रूढिवादी रहेगी तब तक स्त्री स्त्री की दुश्मन रहेगी .
अब इस सन्दर्भ के एक बात कहनी जरूरी है की स्त्री विमर्श के माध्यम से हमने स्त्री के सिर्फ एक ही पहलू पर ध्यान दिया जबकि स्त्री विमर्श का संपूर्ण अर्थ तभी मायने रखता है जब हम उसके न केवल सकारात्मक बल्कि नकारात्मक पहलू पर भी ध्यान दें . अच्छाई और बुरे का तो चोली दमन का साथ रहा है तो इससे इंसान कैसे दूर रह सकता है और यदि दूर नहीं रह सकता तो उसमे उनके गुण आने स्वाभाविक हैं और ऐसा ही स्त्री  के साथ भी है . वो भी अच्छाई और बुराई  का पुतला है . अगर देखा जाये तो इतिहास को देखो चाहे आज के सन्दर्भ में पहले भी स्त्री और उसका स्वभाव दोनों तरह का ही पाया जाता था कहीं तो दया , करुना और त्याग की मूर्ती तो कहीं सरे संसार को जलाकर रख कर देने की क्षमता रखने वाली . इसी कड़ी में सीता भी थी , कौशल्या भी और सुमित्रा भी तो दूसरी तरफ मंत्र भी थी , ककैयी भी थी और शूर्पनखा भी ............जिन्होंने एक इतिहास को अंजाम दिया . एक तरफ त्याग और समर्पण था तो दूसरी तरफ सिर्फ स्वार्थ .........तो ऐसे गुणों और अवगुणों से दूर तो कोई भी नहीं हो सकता लेकिन हमें चाहिए की हम इन पात्रों  की अच्छाइयों को जीवन में उतारें  और बुराइयों से स्वयं को अलग करते चलें तब है स्त्री की सोच में बदलाव जो अगर इतिहास में कुछ गलत हुआ तो उसे बदलने की सामर्थ्य रख सके न की आँख मीचकर उसका अनुसरण करती रहे . हम आज उदहारण तो इतिहास से देते हैं और स्त्री  ही स्त्री को वो सब करने को प्रेरित करती है यदि हम अपनी सोच को व्यापक करें और लकीर के फ़क़ीर न बनकर आज के सन्दर्भ के जो उचित है और मान्य है उसे ही मने और समाज को भी मानने पर मजबूर कर दें तो तभी हम खुद को स्त्री विमर्श का हिस्सा कहने के अधिकारी हैं . जब तक खुद चरितार्थ न करें और सिर्फ भाषण दे कर इतिश्री कर दें तो ये कोई स्त्री विमर्श न हुआ . स्त्री विमर्श का वास्तविक अर्थ तो यही है की स्त्री पहले किसी भी पहल को, किसी भी सुधर को , किसी भी नयी योजना हो पाने जीवन में लागू करे उसके बाद औरों को अपनाने को प्रेरित करे तभी स्त्री विमर्श सार्थक है .
स्त्री विमर्श का एक पहलू ये भी है जिस पर हम ध्यान नहीं दे पाते . बेशक आज हम कितने भी आधुनिक हो गए हों मगर कहीं न कहीं एक कमजोरी नारी को औरों से अलग करती है और उसे पुरुष की आधीनता स्वीकारने को प्रेरित करती है।

क्यों है आज भी नारी को एक सुरक्षित जमीन की तलाश ? एक शाश्वत प्रश्न मुँह बाए खड़ा है आज हमारे सामने ............आखिर कब तक ऐसा होगा ? क्या नारी सच में कमजोर है या कमजोर बना दी गयी है जब तक इन प्रश्नों का हल नहीं मिलेगा तब तक नारी अपने लिए जमीन तलाशती ही रहेगी.माना सदियों से नारी को कभी पिता तो कभी भाई तो कभी पति तो कभी बेटे के आश्रित बनाया गया है . कभी स्वावलंबन की जमीन पर पाँव रखने ही नहीं दिए तो क्यूँ नहीं तलाशेगी अपने लिए सुरक्षित जमीन ?
पहले इसके कारण ढूँढने होंगे . क्या हमने ही तो नहीं उनके पाँव में दासता की जंजीर नहीं डाली? क्यूँ उसे हमेशा ये अहसास कराया जाता रहा कि वो पुरुष से कम है या कमजोर है जबकि कमजोरी हमारी थी हमने उसकी शक्ति को जाना ही नही . जो नारी आज एक देश चला सकती है , बड़े- बड़े ओहदों पर बड़े- बड़े डिसीजन ले सकती है , किसी भी कंपनी की सी इ ओ बन सकती है , जॉब के साथ- साथ घर- बार बच्चों की देखभाल सही ढंग से कर सकती है तो कैसे कह सकते हैं कि नारी किसी भी मायने में पुरुष से कम है लेकिन हमारी पीढ़ियों ने कभी उसे इस दासता से आज़ाद होने ही नहीं दिया . माना शारीरिक रूप से थोड़ी कमजोर हो मगर तब भी उसके बुलंद हौसले आज उसे अन्तरिक्ष तक ले गए फिर चाहे विमान उड़ाना हो या अन्तरिक्ष में जाना हो ..........जब ये सब का कर सकती है तो कैसे कह सकते है कि वो अक्षम है . किसी से कम है . फिर क्यूँ तलाशती है वो अपने लिए सुरक्षा की जमीन ? क्या आकाश को मापने वाली में इतनी सामर्थ्य नहीं कि वो अपनी सुरक्षा खुद कर सके ?
ये सब सिर्फ उसकी जड़ सोच के कारण होता है और वो पीढ़ियों की रूढ़ियों में दबी अपने को तिल- तिल कर मरती रहती है मगर हौसला नहीं कर पाती आगे बढ़ने का , लड़ने का .जिन्होंने ऐसा हौसला किया आज उन्होंने एक मुकाम पाया है और दुनिया को दिखा दिया है कि वो किसी से किसी बात में कम नहीं हैं .आज यदि हम उसे सही तरीके से जीने का ढंग सिखाएं तो कोई कारण नहीं कि वो अपने लिए किसी जमीन की तलाश में भटकती फिरे .जरूरत है तो सिर्फ सही दिशा देने की .........उसको उड़ान भरने देने की ............और सबसे ऊपर अपने पर विश्वास करने की और अपने निर्णय खुद लेने की ..............फिर कोई कारण नहीं कि वो आज भी सुरक्षित जमीन के लिए भटके बल्कि दूसरों को सुरक्षित जमीन मुहैया करवाने का दम रखे.
जब तक सोच में बदलाव नहीं आएगा फिर चाहे स्त्री हो या पुरुष या समाज या देश तब तक किसी भी स्त्री विमर्श का कोई औचित्य नहीं . आज जरूरत है एक स्वस्थ समाज के निर्माण की , एक सही दिशा देने की और स्त्री को उसका स्वरुप वापस प्रदान करने की  और इसके लिए उसे खुद एक पहल करनी होगी अपनी सोच को सही आकार और दिशा देना होगा . किसी के कहने पर ही नहीं चलना बल्कि अपने दिमाग के सभी तंतुओं को खोलकर खुद दिमाग से विचार करके अपने आप निर्णय लेने की अपनी क्षमता को सक्षम करना होगा .  

 आज जो भी शोषण हो रहा है काफी हद तक तो महिलाएं खुद भी जिम्मेदार हैं क्योंकि वो दिल से ज्यादा और दिमाग से कम सोचती हैं मगर आज उन्हें भी प्रैक्टिकल  बनना होगा . सिर्फ एक दिन उनके नाम कर दिया गया इसी सोच पर खुश नहीं होना बल्कि हर दिन महिला दिवस के रूप में मने, उन्हें अपने सम्मान और स्वाभिमान से कभी समझौता ना करना पड़े और समाज और देश के उत्थान में बराबर का सहयोग दे सकें तब होगा वास्तव में सही अर्थों में महिला सशक्तिकरण , स्त्री की परम्परावादी सोच से मुक्ति और तब मनेगा वास्तविक महिला दिवस और वो होगा स्त्री विमर्श का सशक्त रूप .



गांधारी
एक युगचरित्र
पति परायणा का ख़िताब पा
स्वयं को सिद्ध किया 
बस बन सकी सिर्फ 
पति परायणा 
मगर संपूर्ण स्त्री नहीं 
नहीं बन सकी 
आत्मनिर्भर कर्तव्यशील माँ
नहीं बन सकी नारी के दर्प का सूचक
बेशक तपशक्ति से पाया था अद्भुत तेज
मगर उसको भी तुमने किया निस्तेज
अधर्म का साथ देकर 
नहीं पा सकीं कभी इतिहास में स्वर्णिम स्थान
जानती हो क्यों
कर्त्तव्य च्युत दस्तावेज इतिहास की धरोहर नहीं होते
मगर तुम्हारी दर्शायी राह ने
ना जाने कितनी आँखों पर पट्टी बंधवा दी
देखो तो जरा 
हर गांधारी ने आँख पर पट्टी बाँध
सिर्फ तुम्हारा अनुसरण किया
मगर खुद को ना सिद्ध किया
दोषी हो तुम .......स्त्री की संपूर्ण जाति की 
तुम्हारी बहायी गंगा में स्नान करती 
स्त्रियों की पीठ पर देखना कभी 
छटपटाहट के लाल पीले निशानों से 
मुक्त करने को आतुर आज की नारी 
अपनी पीठ तक अपने हाथ नहीं पहुँचा पा रही
कोई दूसरा ही सहला जाता है 
कुछ मरहम लगा जाता है
जिसमे आँसुओं का नमक मिला होता है 
तभी व्याकुलता से मुक्ति नहीं मिल रही 
जानती हो क्यों
क्योंकि उसकी सोच की जड़ को 
तुमने आँख की पट्टी के मट्ठे से सींच दिया है
और जिन जड़ों में मट्ठा पड़ा होता है 
वहाँ नवांकुर कब होता है 
बंजर अहातों में नागफनियाँ ही उगा करती हैं
इतिहास गवाह है
तुम्हारी आँख की पट्टी ने 
ना केवल तुम्हारा वंश 
बल्कि पीढियां तबाह कर दीं
तभी तो देखो आज तक वो ही पौध उग रही है 
जिसके बीज तुमने रोपित किये थे
कहाँ से लायीं थीं जड़ सोच के बीज
गर थोडा साहस का परिचय दिया होता
ना ही इतना रक्तपात हुआ होता 
तो आज इतिहास कुछ और ही होता 
तुम्हारा नाम भी स्त्रियों के इतिहास में स्वर्णिम होता 
जीवन के कुरुक्षेत्र में
कितनी ही नारियां होम हो गयीं
तुम्हारा नाम लेकर
क्या उठा पाओगी उन सबके क़त्ल का बोझ 
इतिहास चरित्र बनना अलग बात होती है
और इतिहास बदलना अलग
मैं इक्कीसवीं सदी की नारी भी
नकारना चाहती हूँ तुम्हें
तुम्हारे अस्तित्व को 
देना चाहती हूँ तुम्हें श्राप 
फिर कभी ना हो तुम्हारा जन्म 
फिर किसी राजगृह में 
जो फैले अवसाद की तरह 
जंगल में आग की तरह 
मगर तुम्हारी बिछायी नागफनियाँ
आज भी वजूद में चुभती हैं
क्योंकि गांधारी बनना आसान था और है 
मगर नारी बनना ही सबसे मुश्किल है 
एक संपूर्ण नारी ..........
अपने तेज के साथ
अपने दर्प के साथ 
अपने ओज के साथ 


9 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर आलेख और रचना!

Amrita Tanmay ने कहा…

हार्दिक शुभकामनाएं ..

दिगम्बर नासवा ने कहा…

इतिहास को गहरे जा के उसका विश्लेषण करना हमेशा ही अच्छा लगता है पढ़ना ...
हार्दिक बधाई ...

Unknown ने कहा…

बेहतरीन दस्तावेज .. ये तो धरोहर होनी चहिये . बधाई वंदना जी

Rajendra kumar ने कहा…

बहुत ही सुन्दर एवं सार्थक आलेख.

Dinesh pareek ने कहा…

वहा बहुत खूब बेहतरीन

आज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में

तुम मुझ पर ऐतबार करो ।

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

मेहनत कर लिखा गया आलेख

डॉ. जेन्नी शबनम ने कहा…

बहुत अच्छा विश्लेषण. भावपूर्ण कविता. शुभकामनाएँ.

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

जब शेरों की बहुतायत थी तो कोई नहीं कहता था कि सेव टाइगर। इसी प्रकार शक्तिहीन के लिए ये दिवस मनाए जाते हैं जिस दिन ये दिवस मनाने समाप्‍त हो जाएंगे,
समझ लेना कि अब महिला शक्तिशाली हो गयी है। मैंने एक आलेख में लिखा था कि हमे सातवीं शताब्‍दी की उभय भारती बनना होगा। यदि वह काल हम वापस ले आए तो हम महिषासुर मर्दिनी भी होंगी और राधा भी। बस स्‍वयं में आत्‍मविश्‍वास जगाने की आवश्‍यकता है। भारत में यह सबसे अच्‍छा है कि हम कानूनी रूप से सशक्‍त है, बस हमारे आत्‍मविश्‍वास को जगाने की ही आवश्‍यकता है। यूरोप में महिला चर्च के अधीन थी इसलिए नारी-मुक्ति की बात आयी लेकिन हमारे यहाँ ऐसा कभी नहीं रहा। इसलिए हम तो यही कहेंगे कि उत्तिष्‍ट जागृत।