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सोमवार, 19 नवंबर 2012

"कन्यादान" ............एक सामाजिक कुरीति

"कन्यादान" ............एक सामाजिक कुरीति

 "कन्यादान" सुनने में तो बहुत अच्छा लगता है मगर यदि गौर से देखा जाये तो ये भी एक सामाजिक कुरीति है जिसने स्त्री की दशा को दयनीय  बनाने में अहम् भूमिका निभाई .  आज कन्यादान जैसी  कुरीतियों ने स्त्री को वस्तु बना दिया या कहिये गाय ,बकरी बना दिया जिसे जैसे चाहे प्रयोग किया जा सकता है , जिसे जब तक जरूरत हो प्रयोग करो और उसके बाद चाहो तो दूसरे  को दे दो या फेंक दो उसी तरह का व्यवहार चलन में आ गया जिसके लिए कुछ हद तक हमारे ऐतिहासिक पात्र  भी जिम्मेदार हैं जिन्होंने अपनी बेटी की विदाई के वक्त ये कह दिया कि  ये तुम्हारे घर की दासी है इसे अपने चरणों में जगह देना .........आखिर क्यों ? क्या विवाह दो इंसानों में नहीं होता ? क्या एक खरीदार होता है और दूसरा विक्रेता ? क्या सन्देश दे रहे हैं हमारे ऐतिहासिक पात्र  ? और जो परम्पराएं बड़े घरों से  चलती हैं वो ही समाज में गहरे जडें जमा लेती हैं जिनका  दूरगामी परिणाम बेहद दुष्कर होता है जिसका उदाहरण आज की स्त्री की दुर्दशा  है .

पहले के पात्रों में देखो सीता की विदाई में  यही दृश्य उपस्थित  हुआ तभी तो सीता का प्रयोग एक वस्तु की तरह हुआ . जिसने कदम कदम पर अपने पति का साथ देकर पत्नीधर्म निभाया उसे ही गर्भावस्था में एक धोबी के कहने पर त्यागना क्या उदाहरण पेश करता है समाज के सामने कि  वो एक वस्तु ही है जिसे जैसे चाहे प्रयोग करो और जरूरत न हो तो फेंक दो ,त्याग दो और उसे राजधर्म का नाम दे दो ............क्या वो उनकी प्रजा में नहीं आती थी ? राम को  भगवान की दृष्टि से न देखकर यदि साधारण इन्सान की दृष्टि से देखा जाये तो ये प्रश्न उठना लाजिमी है और देखिये इस कुप्रथा का दुष्परिणाम पांडवों ने भी तो यही किया अपनी पत्नी को वस्तु की तरह प्रयोग किया ,पहले तो माँ के कहने पर आपस में बाँट लिया और उसके बाद  द्युत क्रीडा में दांव पर लगा दिया , ये कहाँ का न्याय हुआ ? उसकी मर्ज़ी का कोई महत्त्व नहीं , उसे जो चाहे जीत ले और जैसे चाहे उपयोग करे , इन्ही कुप्रथाओं ने तो आज के मनुष्य को ये कहने का हक़ दे दिया कि  क्या हुआ अगर मैंने ऐसा किया पहले भी तो ऐसा होता था  .........और वो ही सब आज भी चला आ रहा है . आज भी हम कन्यादान करते हैं और गंगा नहाते हैं ...........आखिर क्यों?

क्या बिगाड़ा है कन्या ने जो उसे दान किया जाए और कौन सा खुदा होता है दामाद जो उसे पूजा जाये ?क्यों उसके पैर छुए जायें ? क्या वो हमसे बड़ा है या खुदा है ? अरे वो भी तो बच्चा ही है जैसे हमारी बेटी वैसे ही उसे भी बेटा माना  जाये तो क्या कुछ फर्क आ जायेगा ?

हम क्यों ये नहीं सोचते कि जैसे हमारे बेटा  है वैसे ही बेटी भी है . दोनों को हमने ही तो जन्म दिया है तो कैसे उनमे भेदभाव कर सकते हैं और कैसे अपनी बेटी को वस्तु के समान दान कर सकते हैं . अगर हम ऐसा करेंगे तो सामने वाले को तो मौका मिल जाता है कि तुम्हारे पिता ने तुम्हें दान किया है न कि विवाह . विवाह में तो बराबरी होती है दोनों पक्षों की .

अब सोचने वाली बात है जैसे हमारे लिए बेटी वैसे ही तो दामाद होना चाहिए और जिस घर वो जाये उनके लिए बहू  का भी वो ही स्थान होना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं होता . दामाद को तो भगवान बना देते हैं और बहू को दासी ..........आखिर क्यों नहीं उसे भी उसी तरह का सम्मान दिया जाता अगर बराबरी का रिश्ता है तो ? अगर दामाद पूज्य है तो बहू को भी पूज्य माना जाये और अगर ऐसा नहीं है तो उन दोनों से  ही अपने बच्चों की तरह ही व्यवहार  किया जाये न कि  उन्हें पूजा जाये और अपने घर परिवार में बराबर का सम्मान दिया जाये तो क्या इससे समाज में कोई अंतर आ जायेगा या रिश्ते में अंतर आ जायेगा ? ऐसा कुछ नहीं होगा . होगा तो सिर्फ इतना कि  दोनों परिवारों में , उनमे रहने वालों की सोच में एक दूसरे  के लिए मान सम्मान पैदा होगा जिससे एक स्वस्थ समाज का निर्माण होगा और यदि हम पुरानी  परिपाटियों पर ही चलते रहे तो हमारी बेटियां यूँ ही कुचली मसली जाएँगी या जला दी जाएँगी मगर वो सम्मान नहीं पाएंगी जिसकी वो हक़दार हैं .

कभी उन्हें सामान्य इन्सान नहीं माना गया . या तो देवी बनाकर पूजा गया वो भी सिर्फ नौ दिन और या फिर दुत्कारा गया मगर कभी आम इन्सान की तरह नहीं देखा गया . एक जानकार कहते हैं मैं बेटियों से झूठे बर्तन नहीं उठवाता दूसरी तरफ बेटे बेटी को बराबर मानता हूँ तो ये कैसी बराबरी हुई पूछने पर कहने लगे अरे मर्यादा भी तो कोई चीज होती है और बेटी तो बेटी होती है . जब हमारे पढ़े लिखे समाज की ऐसी सोच होगी तो कैसे उसमे सुधार  संभव है जहाँ एक तरफ बराबरी की बात हो और दूसरी तरफ उसे देवी बना दो। बराबरी भी देनी है तो हर स्तर पर देनी चाहिए न की सिर्फ कथनी में बल्कि  करनी में भी .

हमें इसी जड़ता को बदलना है और इसे बदलने के लिए पहल तो हमें अपने घर से , अपनी बेटियों के जीवन से ही करनी होगी तभी समाज और देश में उनकी दशा में सुधार आएगा बेशक ये प्रथाएँ बदलने में वक्त लगे मगर फिर भी आज का समझदार युवा तो कम से कम इस बात को समझेगा और उसे अपने जीवन में स्थान देगा और शादी से पहले यदि ये कहेगा कि मैं कन्यादान जैसी रस्म का बहिष्कार करता हूँ/करती हूँ तो भी इस दिशा में ये एक क्रांतिकारी व आशान्वित कदम होगा .


आज क्या होता है कि कुछ सामाजिक संगठन गरीब कन्याओं के विवाह के नाम पर "कन्यादान" का लालच देते हैं और कन्यादान को मोहरे की तरह प्रयोग करते हैं जो कि  किसी भी तरह उचित नहीं है . यदि गरीब कन्याओं का विवाह ही कराना है तो उसे कन्यादान का नाम क्यों दिया जाए और उनकी भावनाओं से क्यों खेला जाये . करना क्या है सिर्फ इतना ही कन्यादान शब्द और इस रीती का प्रयोग बंद किया जाये बाकि सारे कार्य किये जायें तो इससे गरीब कन्याओं के विवाह में या उनके लिए सहयोग  देने वालों में तो फर्क नहीं आएगा और साथ ही समाज में भी स्वस्थ सन्देश जायेगा ऊंचे तबसे से लेकर निचले तबके तक कि  कन्या दान की वस्तु नहीं है . वो भी एक जीती जागती इंसान है और उसे भी समाज में बराबरी से रहने का हक़ है और उसे भी समाज में एक इन्सान की तरह स्थान मिले .

अब ये हम पर है कि हम अपनी बेटियों को क्या देना चाहते हैं . बेशक किसी समाजसुधारक का ध्यान आज तक इस तरफ नहीं गया मगर कन्यादान भी किसी कुरीति से कम नहीं जिसने समाज में स्त्री के दर्जे को दोयम बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी . यदि नयी पीढ़ी और हम सब मिलकर ऐसी कुरीतियों का प्रतिकार करें और फिर चाहे बेटे की शादी हो या बेटी की इस कुप्रथा का बहिष्कार करें तो जरूर समाज की सोच में बदलाव आएगा और ऐसी कुप्रथाएं जड़ से समाप्त हो जाएँगी और बेटियों को उनका सम्मान व उचित स्थान मिल जायेगा।



अंत में एक बार फिर से यही कहूँगी………



कन्यादान या अभिशाप


दान करने के नाम पर
रहन रखने की
ये अजब रस्म देखी
बेटी ना हुई
कोई जमीन हुई
जिस पर जो चाहे 
जैसे चाहे हल चलाये
या मकान बनाए
या कूड़े का ढेर लगाये
मगर वो सिर्फ 
बेटी होने की कीमत चुकाए
उफ़ भी ना कर सके
दहलीज भी पार कर ना सके 
ना इस दर को
ना उस दर को
अपना कह सके 
जब दुत्कारी जाये
जब जीवन उसका
नरक बन जाये
जब साथ रहना दूभर हो जाये
कहो तो .........ओ ठेकेदारों
किस दर पर जाए
कहाँ जाकर गुहार लगाये?

अब बदलना होगा 
ऐसी रस्मों को
समझना होगा
बेटी कोई वस्तु नहीं
जो दान दे दी जाये
बेटियां तो जान होती हैं
दो घरों की आन होती हैं
फिर कैसे कर देते हो 
कन्यादान के नाम पर दान
क्या कभी नहीं 
तुम्हारे अंतस ने 
ये सवाल उठाया ?
क्या कभी नहीं 
तुम्हारा जमीर जागा?
जिसे इतने नाजों से पाला पोसा
और एक ही पल में
उसे सारे हकों से 
महरूम कर दिया
ब्याह के बाद 
ना वो घर अपना बना
और ना मायका अपना रहा
दोनों ही घरों से
उसका हक़ तोड़ दिया
कन्यादान प्रथा ने 
समाज को अभिशापित किया
कन्या का जीवन दूभर किया
सब जानते हैं
अब उस घर से इसके 
सभी हक़ ख़त्म हुए
और मायके वाले भी
बाद में बोझ समझते हैं
फिर अत्याचारों का सिलसिला 
कहर ढाता है
कभी दहेज़ के नाम पर 
तो कभी लड़की जन्मने के नाम पर
उसी का शोषण किया जाता है
कभी  ज़िन्दा जलाया जाता है
तो कभी बच्चा जनते जनते ही
उसका दम निकल जाता है
बेटी को हर अधिकार से वंचित कर दिया
दान दी जाने वाली चीज  से
कोई हक़ ना रखना
इस प्रथा ने ही ऐसी 
कुरीतियाँ फैलाई हैं 
ज़रा सोचो
अगर ऐसा तुम्हारे साथ होने लगे
पुरुष का दान होने लगे
और किसी भी घर में
उसका कोई स्थान ना हो
कहीं कोई मान ना हो
अपनी कोई पहचान ना हो
कैसे तुम जी पाओगे?


ओ समाज के ठेकेदारों
जागो .........समझो
मत लकीर के फकीर बनो
जो रस्मे जज्बातों  से खेलती हों
जिनसे कोई सही शिक्षा ना मिलती हो
जो विकास में बाधक बनती हों
उन रस्मों को , उन परिपाटियों को 
बदलना बेहतर होगा
एक नए समाज का 
निर्माण करना होगा
कन्यादान की रस्म को 
बदलना होगा
लिंग भेद ना करना होगा
बल्कि कन्या को भी 
सम स्तर का समझना होगा
कन्यादान को अभिशाप ना बनने देना होगा

25 टिप्‍पणियां:

kshama ने कहा…

"kanyadaan' is shabd se hee mujhe chiddh hai.

विभा रानी श्रीवास्तव ने कहा…

आज कन्यादान जैसी कुरीतियों ने स्त्री को वस्तु बना दिया या कहिये गाय ,बकरी बना दिया जिसे जैसे चाहे प्रयोग किया जा सकता है , जिसे जब तक जरूरत हो प्रयोग करो और उसके बाद चाहो तो दूसरे को दे दो या फेंक दो उसी तरह का व्यवहार चलन में आ गया जिसके लिए कुछ हद तक हमारे ऐतिहासिक पात्र भी जिम्मेदार हैं जिन्होंने अपनी बेटी की विदाई के वक्त ये कह दिया कि ये तुम्हारे घर की दासी है इसे अपने चरणों में जगह देना

बिलकुल सच !! सहमत हूँ !!

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

कन्यादान .... इस विषय पर सरिता पत्रिका में बहुत समय पहले एक लेख आया था .... जिसे पढ़ कर मेरे पापा ने मेरी छोटी बहन के विवाह पर कन्यादान रस्म का बहिष्कार किया था ....

बहुत सशक्त लेख और कविता दोनों ही । .... विचारणीय

vandana gupta ने कहा…

@संगीता स्वरुप ( गीत )जी वाह !बहुत बढिया बताया आपने तो ये जानकारी तो सब तक पहुँचनी चाहिये …………और हमें भी ऐसा ही करना चाहिये ………इसके लिये अब हम सबको सम्मिलित रूप से प्रयास करना होगा और अपने अपने स्तर पर अपने अपने घर से ही तभी दशा में सुधार संभव होगा …………मैं तो ठान चुकी हूँ इस कुरीति का बहिष्कार करने का अपने घर से ही …………अब देखना है कौन कौन अपने अपने घर से पहल करता है क्योंकि हमें सिर्फ़ कहना ही नही है करना भी है………इस कुरीति को बदलने के लिये हमें ही पहल करनी होगी अपने अपने बच्चों की शादियों मे इस प्रथा का बहिष्कार करके जिससे समाज मे स्वस्थ संदेश जाये और बाकि लोग भी प्रेरित हों और समाज मे स्त्री की दशा सुधरे सिर्फ़ एक दूसरे के लिये को सराहना ही काफ़ी नही होगा अब कुछ करने के लिये कदम हमें ही आगे बढाना होगा

Madan Mohan Saxena ने कहा…

बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी ...बेह्तरीन अभिव्यक्ति ...!!शुभकामनायें.

रविकर ने कहा…

विचारणीय आलेख |
--और अब तो दान करने का प्रश्न ही कहाँ शेष रह गया-
कन्या का पैत्रिक संपत्ति पर अधिकार सुनिश्चित है वैधानिक है |
साधुवाद -

vandana gupta ने कहा…

@रविकर जी संपत्ति मे अधिकार मिलने का बावजूद भी इस कुप्रथा का अंत नही हुआ है और बहुत से लोग इसका अनुचित उपयोग करते हैं ये भी किसी से छुपा नही है ……… आज भी लोग जोर शोर से कन्यादान की रस्म निभाते हैं और गर्व महसूस करते हैं ………जबकि इसमे गर्व वाली तो कोई बात ही नही है आज भी होता है और पूरे जोर शोर से कन्यादान …………यहाँ तक कि गरीब कन्याओं के विवाह को तो कन्यादान के नाम से ही भुनाया जाता है

इमरान अंसारी ने कहा…

बेहतरीन और शानदार।

रचना ने कहा…

" कन्यादान "
देखा है विरोध
सती प्रथा का
बाल विवाह का
दहेज़ प्रथा का
कन्या अशिक्षा का
कन्या भूर्ण ह्त्या का
यौन शोशर्ण का
बलात्कार का
पर कभी नहीं देखा
कोई विरोध
" कन्यादान " का
क्यो कोई स्त्री
कभी विवाह मंडप मे
नहीं कहती
"नहीं हूँ मै दान की वस्तु
मुझे दान ना करे "
क्यो कोई पुरुष
कभी विवाह मंडप मे
नहीं कहता
" नहीं ही हूँ मै भिखारी
दान नहीं लूँगा " http://mypoemsmyemotions.blogspot.in/2008/11/blog-post.html



विरोध उस समय जरुरी हैं जब स्वयं का विवाह हो , कितने करते हैं ? उस समय सब "रीती रिवाज , परम्परा के नाम पर " सब कुछ मानते हैं क्युकी विवाह उनके लिये सबसे जरुरी हैं . आज लडकियां 25 वर्ष से ऊपर होती हैं शादी के समय लेकिन सबके मुह में उस समय दही जमा होता हैं , विरोध का कोई औचित्य तब नहीं होता हैं जब आप अपने समय में विरोध ना करे और अगर आप की बात ना मानी जाये तो शादी ही ना करे .

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

म०प्र०में तो मुख्यमंत्रीजी द्वारा गरीब कन्याओं के विवाह को तो कन्यादान के नाम से ही भुनाया जाता है,,,

recent post...: अपने साये में जीने दो.

नीलिमा शर्मा Neelima Sharma ने कहा…

बेह्तरीन सशक्त लेखन

डॉ टी एस दराल ने कहा…

हमारे समाज में बेशक बहुत सी कुरीतियाँ व्याप्त हैं , विशेषकर विवाह से सम्बंधित.
लेकिन कन्यादान के शाब्दिक अर्थ पर न जाएँ . एक पिता के लिए बेटी को अलग करना वास्तव में बड़ा कष्टदायक होता है.
यह पुत्री के प्रति पिता की संवेदनाओं और भावनाओं को दर्शाता है.

Pallavi saxena ने कहा…

बहुत ही बढ़िया प्रश्न उठाया है आपने सशक्त एवं
सारगर्भित आलेख जाने कब समझेगा यह समझ नारी मन की व्यथा कि नारी को सिर्फ और सिर्फ समानता का अधिकार चाहिए भगवान नहीं बनाना उसे उसे तो केवल खुद को इंसान समझे यह समाज बस इतना ही अधिकार चाहिए विचारणीय आलेख...

सदा ने कहा…

सार्थकता लिये बेहद सशक्‍त लेखन ... आभार

वाणी गीत ने कहा…

किसी राज्य में (नाम कन्फर्म नहीं है , शायद मध्य प्रदेश ) कन्या की शादी में एक लाख रूपये देने की स्कीम लागू की गयी थी . बहुत कोफ़्त हुई थी , मदद करनी है तो पढने में या आजीविका प्राप्त करने में करो , शादी में मदद की क्या आवश्यकता है ! जरुरी होने पर लड़के लड़कियां खुद ही कर लेंगे विवाह , और जो पैसे के कारण विवाह कर रहे हों , उनकी नीयत पर तो यूँ भी प्रश्न उठता है .
समाज सेवक भी बड़े गर्व से बताते हैं की हमने इतनी लड़कियों का विवाह करवाया , सिर्फ विवाह करवाने में आर्थिक मदद करना गर्व की बात कैसे है , यह मुझे समझ नहीं आता !!
सार्थक आलेख!

Vinay ने कहा…

बहुत सुंदर रचना

आखिर क्यों नहीं पहुँचती हमारी पोस्ट गूगल सर्च तक?

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

समय के अनुरूप शब्‍द भी बदलते हैं। यह भी बदल जाएगा।

prigya ने कहा…

ek achchhi rachna,badhai

Unknown ने कहा…

आप कन्यादान का गलत अर्थ निकाल रहे हैँ कन्यादान का मतलब कन्या को वस्तु समझकर दान देना नही होता हैँ बल्कि पिता के द्वारा अपनी पुत्री के विवाह के स्वीकृती स्वरुप अपने दमाद को अपना पुत्री देना हैँ क्योकि जबतक पिता का हक ही सबसे ज्यादा होता हैँ जबतक पिता आज्ञा नही देँगेँ तबतक एक घर को छोड दुसरेँ घर जाना उचित नही रहेगा ।समझे या दुबारा समझाउँ।

vandana gupta ने कहा…

@varun kumar ji गलत अर्थ मैने नही इस समाज ने और इस दुनिया ने निकाले हैं जो स्त्री को वस्तु की तरह प्रयोग करने लगा और क्यों एक पिता अपनी पुत्री को दूसरे हाथ मे देने को कन्यादान कहे ………एक पिता अपने बेटे के लिये तो ऐसा नही कहता…………और आप क्या समझायेंगे पहले खुद समझिये गहराई मे उतरिये …………शायद समझ पायें इस रीति ने ना जाने कितनी स्त्रियों का जीवन दूभर किया है , कितनी मर मर के जीती रही हैं ………अगर एक चीज़ के गलत अर्थ निकाले जा रहे हों और उसका दुरुपयोग किया जा रहा हो तो उसे छोडना ही बेहतर होता है ताकि स्वस्थ समाज का निर्माण हो और सोच भी स्वस्थ बने जरूरी नही है कि जो गलत होता आया उसे यूँ ही स्वीकार करते रहें ……… आज सती प्रथा बन्द हुई ना लेकिन पहले ये स्वीकार्य थी और उसका दुरुपयोग होने लगा तो बन्द किया गया उसे भी तो ऐसे ही कन्यादान है जिसका लोगों ने गलत अर्थ निकाला और दुरुपयोग शुरु कर दिया।

Unknown ने कहा…

एक पिता अपने बेटे के
लिए ऐसा कैसे कहेँगे क्योकि उसका बेटा तो उसके घर पर ही रहेगा जबकि बेटी को दुसरे घर जाना होता हैँ अतः बटी के पिता अपनी बेटी को पालन पोशन देखभाल और अन्य जिमेदारियाँ अपने दमाद को सोँपते हैँ तभी तो घर के बाहर पति और अन्दर का कार्य पत्नी सँभालती हैँ यही दाम्पत्य जीवन हैँ जिसके बिना हर कोई अधुरा हैँ ।अगर बेटा को बेटी के घर रहने का नियम रहता तो अवश्य बेटा को भी पुत्रदान दिया जाता क्योकि बेटा का घर हमेँशा के लिए छुट जाता
आपके इस लेख मेँ जो आक्रोश हैँ वो कन्यादान के नही हैँ ये पति के निचे जबरन झुकने या उसके अत्याचार करने के आक्रोश हैँ समानतर मानयता ना देने का आक्रोश हैँ इसे आप कन्यादान जैसे अच्छे शब्दोँ पर ना थोपेँ इसमेँ शुरुआत कि गलतियाँ पत्नी ही करती हैँ जब शुरुआत मेँ पति दबाब बनाता हैँ तो चुप रहती हैँ बाद मेँ आक्रोश अपने कन्यादान करने बाले पिता पर जताती हैं जबकि ऐसा ना करके शुरुआत से ही बराबर दर्जा के लिए संर्घस करे तो ऐसा वक्त का मुँह ना देखना पडेँगा।

Unknown ने कहा…

वन्दना जी यहाँ कमेँट मेँ मैँ अपनी पुरी बात नही कह सकता मैँ इस विसय को अपने ब्लाँग उँमंगे और तरंगे पर ले जाना चाहता हुँ ये ब्लाँग मैँने भी समाजिक कुरीती का खण्डण करके सही राह व प्यार मोहब्बत के असली मायने समझाने के लिए ही बनाया हैँ इसका लिँक varun kumar (GOOGLE PROFAIL NAME)पर क्लिक करके देख सकती हैँ आपके ब्लाँग पर कापीराईट विक्लप देखा तो पुछना मुनासिब समझा ।

Unknown ने कहा…

वन्दना जी यहाँ कमेँट मेँ मैँ अपनी पुरी बात नही कह सकता मैँ इस विसय को अपने ब्लाँग उँमंगे और तरंगे पर ले जाना चाहता हुँ ये ब्लाँग मैँने भी समाजिक कुरीती का खण्डण करके सही राह व प्यार मोहब्बत के असली मायने समझाने के लिए ही बनाया हैँ आपके ब्लाँग पर कापीराईट विक्लप देखा तो पुछना मुनासिब समझा ।

Unknown ने कहा…

Kanya Dan samajik kuruti nhi ....samaj mai aurat ko ek man samaan dene ki reat hai....pita aagya de ..tbhi putri 2ghr jati hai...par jb pati aagya de bhar nhi Jana...aurat jati hai ...aur vinash ka Karan banti hai kyo ki woh apne aap ko jda smjdar banti hai..phr khte hai kanyadan kiya ...paap nhi...paap nhi..aurat karti hai ...pita ghr maryada mai rehti hai....pati ghr aate hi ...maryada par krti hai...galat aurat hai...kanyadan reat jo ye khti...jaise tmne mera ghr janam me kr ghr ko roshan kiya hai..waise apne pati me kul ko bhi rodhan karna...na ki maryada ko lgna....

Unknown ने कहा…

Kanya Dan samajik kuruti nhi ....samaj mai aurat ko ek man samaan dene ki reat hai....pita aagya de ..tbhi putri 2ghr jati hai...par jb pati aagya de bhar nhi Jana...aurat jati hai ...aur vinash ka Karan banti hai kyo ki woh apne aap ko jda smjdar banti hai..phr khte hai kanyadan kiya ...paap nhi...paap nhi..aurat karti hai ...pita ghr maryada mai rehti hai....pati ghr aate hi ...maryada par krti hai...galat aurat hai...kanyadan reat jo ye khti...jaise tmne mera ghr janam me kr ghr ko roshan kiya hai..waise apne pati me kul ko bhi rodhan karna...na ki maryada ko lgna....