ये मोहब्बत की
शिकस्त नही तो क्या है
तुम्हारी परछाइयाँ भी
साथ छोड रही हैं
और नगर मे
कोलाहल मचा है
कुछ सुनाई नही देता
क्या तुम तक
मेरी आवाज़ पहुंचती है
क्या तुम अब भी
मोहब्बत की राख मे
भीगते हो
अगर हाँ ……।
तो बताओ छूकर मुझे
क्या मेरा स्पर्श
महसूस कर रहे हो
और जो राख बची है मुझमे
क्या मिली उसमे कोई चिंगारी
नही बता सकते ……जानती हूँ
मोहब्बत कब स्पर्श की मोहताज़ रही है
शायद तभी बर्तन खडक रहे हैं
और शोर मच रहा है
मगर इकतरफ़ा…………
उधर तो चीन की दीवार खिंची है
अब दीवारों मे कान नही होते………।
शिकस्त नही तो क्या है
तुम्हारी परछाइयाँ भी
साथ छोड रही हैं
और नगर मे
कोलाहल मचा है
कुछ सुनाई नही देता
क्या तुम तक
मेरी आवाज़ पहुंचती है
क्या तुम अब भी
मोहब्बत की राख मे
भीगते हो
अगर हाँ ……।
तो बताओ छूकर मुझे
क्या मेरा स्पर्श
महसूस कर रहे हो
और जो राख बची है मुझमे
क्या मिली उसमे कोई चिंगारी
नही बता सकते ……जानती हूँ
मोहब्बत कब स्पर्श की मोहताज़ रही है
शायद तभी बर्तन खडक रहे हैं
और शोर मच रहा है
मगर इकतरफ़ा…………
उधर तो चीन की दीवार खिंची है
अब दीवारों मे कान नही होते………।
23 टिप्पणियां:
उधर तो चीन की दीवार खिंची है,
अब दीवारों में कान नही होते
वाह ...बहुत ही बढि़या ।
bhaut hi khubsurat rachna...
बहुत अच्छी रचना...
खुबसूरत रचना....
मोहब्बत कब स्पर्श की मोहताज़ रही है............बहुत खुबसूरत अहसास |
cheen ki deevar ka udaharan bahut achchha laga are deevar to chhote se dil men khinch jati hain aur phir kisi ko kuchh sunai nahin deta.
:)अब तो दीवारों के कान ही नहीं जुबां भी होती है :)
बहुत भाव प्रवण रचना
behad prabhawshali.......
उधर तो चीन की दीवार खिंची है,
अब दीवारों में कान नही होते .
बहुत अच्छी रचना...
संवाद बना रहे, जीवन छोटा है।
"मोहब्बत कब स्पर्श की मोहताज़ रही है............"..बड़ी प्यारी बात कही है आपने... साथ ही अत्यन्त भावनात्मक कृति ...
बहुत अच्छी रचना.
मोहब्बत कब स्पर्श की मोहताज़ रही है
शायद तभी बर्तन खडक रहे हैं
और शोर मच रहा है
gehan abhivyakti bhaavnaon ki
क्या तुम अब भी
मोहब्बत की राख मे
भीगते हो
ab sab shiv to nahee hote , behtareen khoj
यह चीन की दीवार .......!
सार्थक रचना....बधाई...
बहुत ही उम्दा रचना.
रामराम.
हर जगह संवेदना का लोप हो रहा है।
और शोर मच रहा है
मगर इकतरफ़ा…………
उधर तो चीन की दीवार खिंची है
अब दीवारों मे कान नही होते………।
Khoob..... Umda rachna...
काफी कशिश है कविता में...
"और जो राख बची है मुझमे
क्या मिली उसमे कोई चिंगारी"
उम्दा प्रस्तुति.
दीवारों के ही तो कान होते हैं , आप भी ना ...
"मोहब्बत कब स्पर्श की मोहताज़ रही है..........."
सही कहा है...
जहाँ बिना छुए ही किसी को महसूस किया जा सके...
जहाँ बिना बोले ही किसी को सुना जा सके...
वहीं प्रेम है,प्यार है,मोहब्बत है...
या फिर कुछ और जिसे शब्दों में बयाँ नहीं किया जा सकता है...
वर्ना तो दीवार खिंची ही रहती है सबके दरमियाँ...
और दीवार खींचने वाले भी हम ही होते हैं !!
....बहुत खुबसूरत अहसास !!
राख के ढेर में शोला है ना चिंगारी.....बहुत सुंदर कविता है
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