पुरुष
तुम अब भी
कहाँ बदले हो?
अपने व्यंग्य बाणों
से कलेजा
बींध देते हो
उम्र के किसी
भी दौर में
तुम में ना
परिवर्तन आया
तुम्हारी कुंठित सोच
अवचेतन में बैठे
पौरुष के दंभ से
कभी ना बाहर
आ पायी है
हर बार ज़हर
बुझे नश्तर ही
चुभाते आये हो
अपने प्रगति पथ पर
नारी के त्याग ,
समर्पण ,सहयोग
को हमेशा
नकारते आये हो
उसके वजूद को
खिलौना समझ
खेलना ही तुमको
आता है
कहाँ नारी ह्रदय को
जीतना तुमको आता है
कल भी नारी को
दुत्कारा था
उसे त्याग, तपस्या
की मूरत बना
बलि वेदी पर
चढ़ाया था
आज भी नारी को
शोषित करते हो
कभी उसका
सौंदर्य भुनाते हो
कभी मानसिक
शोषण करते हो
प्रगति के नाम पर
हर बार
भावनाओं का
बलात्कार करते हो
कल भी तुम
नहीं बदलोगे
अपनी कुंठित
सोच से ना
उबरोगे
चाहे अन्तरिक्ष
भ्रमण कर आओ
चाहे प्रगति के
कितने सोपान
तुम चढ़ जाओ
पर अपनी पुरुषवादी
प्रवृत्ति से ना
मुक्त हो पाओगे
जब तक
अपने अंतस में
बैठे झूठे दंभ से
बाहर ना आओगे
45 टिप्पणियां:
क्या बात है .... सभी एकसे नहीं होते हैं .... आभार
वन्दे मातरम !!
नारी की पीडाओं को इस पोस्ट में आपने बेहद प्रभावी एवं शशक्त रूप से प्रस्तुत किया है, सुन्दर लेखनी के लिए अशेष शुभकामनायें !!
{आपको यह विश्वास भी दिलाना चाहूँगा की प्रत्येक पुरुष में ऐसे "गुण" नहीं होते}
puri tarah se asahmat hoon......
aaj purush kitna bebeas hai kitna lachaar hai yeh to aap bhi jaanti hongi hi......
waise bhi yeh samaj kab ka mahila pradhan ho gaya hai....
aur jahan tak kavita ka prashn hai, achhi rachna hai...
purush prakriti ka yahee rishta sanaatan
सफ़ल रचना
आधुनिक का हर रूप
जैसे पुरुषों पर प्रहार है
वो करे तो समर्पण
पुरुष करे तो व्यभिचार है
कोई शराबी , अत्याचारी, दहेज़ हत्यारा
यही अब पुरुषों का सामाजिक सार है
सब भूले इतिहास जहां
अभिमन्यु भी असहाय था
ये पुरुष ना जाने कब से
दोयम दर्जे का शिकार है
मैं जब भी लिखता हूँ
नारी विरोध में
मुझे है लगता है
मेरी सोच थोड़ी बीमार है
दुःख हो रहा लिखते हुए
इसी का नाम संस्कार है
वंदना जी,
शुभकामनाये ..........रचना बहुत अच्छी बन पड़ी है........जहाँ तक आपकी रचना का सवाल है , वो बेहद उम्दा है .........पर एक बात हाथ की पाँचो उँगलियाँ बराबर नहीं होती.......हमारा नज़रिया ही दुनिया को बनाता ...........अच्छे-बुरे हर जगह, हर समय और हर लिंग में होते हैं |
जो सही है , वो सही है और जो गलत है, वो गलत है.....इससे फर्क नहीं पड़ता की वो पुरुष है या महिला |
...उनमें बदलाव तो आ रहा है....लेकिन उसकी गति इतनी इतनी धीमी है कि हम मह्सूस भी नही कर पाते!...उकृष्ट मुद्दा!...बधाई!
Jab nari ka dabna band hoga tabhi purushka aham bhav kam hoga...naree kee aarthik swatantrata bahut zaroori hai.
Bahut hee achhee rachana.
वन्दना जी...तीन गर्ल फ्रेण्ड हैं हम्री..एगो सत्तर साल की, एगो चौदह साल की अऊर एगो हमरी हमउमर... ई तीनों के बिना त हम एको कदम नहीं चल सकते हैं... इसलिए नारि जाति के लिए बहुत सम्मान है हमरे दिल में..
लेकिन जरूरी है कि कोई रेखा को बड़ा करने के लिए दुसरा रेखा को काटकर छोटा किया जाए...उसके आगे एतना बड़ा रेखा खींच दीजिए कि दूसरा रेखा एकदम छोटा लगने लगे... इंदिरा गाँधी, गोल्डामेयर, प्रतिभा पाटिल, सुषमा स्वराज, कल्पना चावला, महादेवी वर्मा, महाश्वेता देवी..ई सब ऐसी रेखाएँ हैं जिनको बड़ा बताने के लिए दूसरा किसी भी रेखा को न तो काटने का जरूरत है न छोटा करने का..
आज फिर हार गया मै ,,,
तुम्हारी इस कुटिल प्रव्रति के आगे ,,,
इस दुधारी व्रत्ति के आगे ,,,,
और हो गया हूँ शामिल उस अंतहीन क्रम में ,,,,
जो मिला है पुरुष होने की सजा के रूप में ,,,,
ये तुम्हारी कुटिलता की विडंबना ही तो है ,,,
की लपेट रखा है अपने आप को ,,,
आबरणो की असंख्य तहों में ,,,
अबला भोग्या शोषिता ,त्यागिता ,,,
ना जाने कितने नामो से,,,
और वही से करती हो अपने अहम् की तुष्टि ,,,,
पुरुष और पुरुषत्व को बीथ कर,,,,
कोई अनामी सफलता होता है तुम्हारा महान पराक्रम,,
शोषण से निकल कर और पुरुषत्व को जीत कर ,,,,
और अपनी विफलता में खीच लेती हो ,,,,
पुरुषो की सारी जमात को दोषारोपण के लिए ,,,,
तुमने माँ पत्नी बहन और पुत्री को जिया तो है ,,,
मगर नारीत्व से नहीं उबर पायी ,,,
जो अर्थ में ही है बहुरूपता की मूर्ति ,,,
नीर्लज्ता और लम्पटता की हदे तब भी तोड़ी तुमने ,,,
जब चढ़ी हो उन्नति के सोपान खुद नारी को रौद कर ,,,
समाज में सुनाई देते तुम्हारे तीव्र रुदन और विलाप ,,
सच मायने में है तुम्हारे विजय उदघोष ,,,,
जो कर रही हो तुम पुरुषत्व की छाती पर बैठ कर ,,,
और जारी है तुम्हारा ये क्रम दीर्घकाल से दीर्घ काल के लिए
पुरुष की इति तक ,,,,,
आज फिर हार गया मै ,,,
तुम्हारी इस कुटिल प्रव्रति के आगे ,,,
इस दुधारी व्रत्ति के आगे ,,,,
और हो गया हूँ शामिल उस अंतहीन क्रम में ,,,,
जो मिला है पुरुष होने की सजा के रूप में ,,,,
ये तुम्हारी कुटिलता की विडंबना ही तो है ,,,
की लपेट रखा है अपने आप को ,,,
आबरणो की असंख्य तहों में ,,,
अबला भोग्या शोषिता ,त्यागिता ,,,
ना जाने कितने नामो से,,,
और वही से करती हो अपने अहम् की तुष्टि ,,,,
पुरुष और पुरुषत्व को बीथ कर,,,,
कोई अनामी सफलता होता है तुम्हारा महान पराक्रम,,
शोषण से निकल कर और पुरुषत्व को जीत कर ,,,,
और अपनी विफलता में खीच लेती हो ,,,,
पुरुषो की सारी जमात को दोषारोपण के लिए ,,,,
तुमने माँ पत्नी बहन और पुत्री को जिया तो है ,,,
मगर नारीत्व से नहीं उबर पायी ,,,
जो अर्थ में ही है बहुरूपता की मूर्ति ,,,
नीर्लज्ता और लम्पटता की हदे तब भी तोड़ी तुमने ,,,
जब चढ़ी हो उन्नति के सोपान खुद नारी को रौद कर ,,,
समाज में सुनाई देते तुम्हारे तीव्र रुदन और विलाप ,,
सच मायने में है तुम्हारे विजय उदघोष ,,,,
जो कर रही हो तुम पुरुषत्व की छाती पर बैठ कर ,,,
और जारी है तुम्हारा ये क्रम दीर्घकाल से दीर्घ काल के लिए
पुरुष की इति तक ,,,,,
बाहर आ जाएँ,तो फिर बात ही क्या......
वैसे बाहर आये बिना सुख की कामना दिवास्वप्न ही है...जो इससे बाहर आता है वही सुखी हो पाता है...
यदि बदल जाएँ तो पुरुषोचित गुण ही खत्म हो जायेंगे न ...:):) फिर नारियाँ कैसे इस विषय को सोच पाएंगी ...:):)
अच्छी प्रस्तुति
वंदना जी जिस दिन पुरुष बदल जाएगा वह महापुरुष हो जाएगा या फिर भगवान।
पुरुषों की तो अच्छी पिटाई कर डाली आपकी इस कविता ने!
..."चाहे अन्तरिक्ष
भ्रमण कर आओ
चाहे प्रगति के
कितने सोपान
तुम चढ़ जाओ
पर अपनी पुरुषवादी
प्रवृत्ति से ना
मुक्त हो पाओगे
जब तक
अपने अंतस में
बैठे झूठे दंभ से
बाहर ना आओगे"....achhi kavita hai.. antim panktiyaan kaafi achhi hain.. sateek hain.. lekin samay badal raha hai.. naariyan bhi badal rahi hain.. saaath hi purush ke soch me bhi fark aa raha hai..
प्यार के लिये दम्भ की परतें तो हटानी पड़ेंगी।
... sundar vyangyaatmak rachanaa !!!
विचारों की अभिव्यक्ति बहुत सशक्त है, लेकिन सभी पुरुष एक से नहीं होते...वैसे बहुत सुन्दर कविता....
http://sharmakailashc.blogspot.com/
पर अपनी पुरुषवादी
प्रवृत्ति से ना
मुक्त हो पाओगे
जब तक
अपने अंतस में
बैठे झूठे दंभ से
बाहर ना आओगे
सही कहा आपने, अपनी खोल से बाहर निकलना आसान नही होता.
रामराम.
आशा करते हैं कि इसके निशाने पर हम जैसे कुछ लोग नहीं भी होंगे !
अच्छी कविता !
पुरूष के बदलने की उम्मीद ?
जब तक समाज में बालक-बालिका में भेद रहेगा तब तक तो पुरुषों के बदलने की आशा नजर नही आती है!
--
इसमें काफी हद तक समाज के साथ-साथ स्वयं महिलाएँ भी दोषी हैं!
laikin aaj kaa purush is stithi ko samjhta hai aur koshish karta hai ki yogon se chale aa rahe taur tareeko ko badlne kee..... aur vah karegaa.....aapki rachnaa apni baat bahut bakhubi keh gayi... dhanyvaad
यह तो एक ही पक्ष है वंदना जी ।
अनुभूत अभिव्यक्ति ।
बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
फ़ुरसत में … हिन्दी दिवस कुछ तू-तू मैं-मैं, कुछ मन की बातें और दो क्षणिकाएं, मनोज कुमार, द्वारा “मनोज” पर, पढिए!
सही कहा है...उम्दा रचना
http://veenakesur.blogspot.com/
---------------------------------
मेरे ब्लॉग पर इस मौसम में भी पतझड़ ..
जरूर आएँ...
सच कहा ... पुरुष समाज को इस मानसिकता से बाहर आना पढ़ेगा ....
नारी वेदना को बहुत अच्छे ढंग से शब्दों मे उतारा है
अच्छी लगी् रचना, शुभकामनायें \
पर अपनी पुरुषवादी
प्रवृत्ति से ना
मुक्त हो पाओगे
जब तक
अपने अंतस में
बैठे झूठे दंभ से
बाहर ना आओगे
अच्छी पंक्तिया ........
इसे भी पढ़कर कुछ कहे :-
आपने भी कभी तो जीवन में बनाये होंगे नियम ??
बेहद सुन्दर................
bahut achhi rachna hai aapki
badhaye
वंदना जी एक अच्छी विश्लेषणात्मक पोस्ट.पर हर कोई एक जैसा नहीं होता
अगर पुरुष सुधर जाएँ तो नारी लेखन आधा कम हो जाये..:)
सच है. पर पूर्ण सत्य भी नहीं होगा शायद .
वंदना जी, सही बात कही आपने।
वैसे बदलना उसक वश में भी कहाँ है, बेचारा जींस का गुलाम जो ठहरा।
................
खूबसरत वादियों का जीव है ये....?
जय श्री कृष्णा....
हे प्रभु आप परम पुरुष हैं, आपने तो अपने अंश रूप सभी पुरुष ही भेजे थे, इन पुरुषों ने मूर्खतावश से भेद उत्पन्न कर दिया।
जिसे आपने धोती रूपी वस्त्र पहनाया है वह स्वयं को पुरुष समझ वैठा और जिसे आपने साड़ी रूपी वस्त्र पहनाया है वह स्वयं को स्त्री समझ वैठा।
जिसे आपने सलवार सूट नाम का वस्त्र पहनाया है वह स्वयं को स्त्री समझने लगा और जिसे आपने कुर्ता-पाजामा नाम का पहनाया है वह स्वयं को पुरुष समझने लगा है।
यह मूर्ख यह नहीं जानते कि सलवार सूट भी कुर्ता-पाजामा ही होता है।
अजी जरुरत ही क्या बदलने की ..काम चल रहा है बढ़िया उनका.
बहुत अच्छा लिखा है आपने.
तीव्र कटाक्ष
सुन्दर
सच कहा आपने
बहुत ही खूबसूरत रचना ...दिल को छू गयी
पर एक बात हाथ की पाँचो उँगलियाँ बराबर नहीं होती.....
चाहे अन्तरिक्ष
भ्रमण कर आओ
चाहे प्रगति के
कितने सोपान
तुम चढ़ जाओ
पर अपनी पुरुषवादी
प्रवृत्ति से ना
मुक्त हो पाओगे
जब तक
अपने अंतस में
बैठे झूठे दंभ से
बाहर ना आओगे
इतनी लानत के बाद कोई एकाध पुरुष सुधर जाए तो क्या बात है। ।
vandna ji ..kavita ke madhayam se kya hoonkaar bhari hai aapne..badhai!
बहुत अच्छी कविता है. सच में जब तक पुरुष अपने पौरुष के दंभ से नहीं उबर जाता, तब तक ना वो बदल सकता है और ना ही समाज.
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