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बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

कमरों वाला मकान

इस मकान के
कमरों में
बिखरा अस्तित्व
घर नही कहूँगी
घर में कोई
अपना होता है
मगर मकान में
सिर्फ कमरे होते हैं
और उन कमरों में
खुद को
खोजता अस्तित्व
टूट -टूट कर
बिखरता वजूद


कभी किसी
कमरे की
शोभा बनती
दिखावटी मुस्कान
यूँ एक कमरा
जिंदा लाश का था
तो किसी कमरे में
बिस्तर बन जाती
और मन पर
पड़ी सिलवटें
गहरा जाती
यूँ एक कमरा
सिसकती सिलवटों का था


किसी कमरे में
ममता का
सागर लहराता
मगर दामन में
सिर्फ बिखराव आता
यूँ एक कमरा
आँचल में सिसकते
दूध का था


किसी कमरे में
आकांक्षाओं , उम्मीदों
आशाओं की
बलि चढ़ता वजूद
यूँ एक कमरा
फ़र्ज़ की कब्रगाह का था


कभी रोटियों में ढलता
कभी बर्तनों में मंजता
कभी कपड़ों में सिमटता
तो कभी झाड़ू में बिखरता
कभी नेह के दिखावटी
मेह में भीगता
कभी अपशब्दों की
मार सहता
हर तरफ
हर कोने में
टुकड़े - टुकड़े
बिखरे अस्तित्व
को घर कब
मिला करते हैं
ऐसे अस्तित्व तो सिर्फ कमरों में ही सिमटा करते हैं.

30 टिप्‍पणियां:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

हर तरफ
हर कोने में
टुकड़े - टुकड़े
बिखरे अस्तित्व
को घर कब
मिला करते हैं
ऐसे अस्तित्व तो
सिर्फ कमरों में ही
सिमटा करते हैं...

बहुत भावूक रचना ... सच है घर तो गहरे एहसास से बनते हैं ... आपसी प्यार से बनते हैं ... वरना कुछ दर्द कमरों की चार दीवारी में घुट्टे रहते हैं ...

रचना दीक्षित ने कहा…

एक बहुत अच्छी पोस्ट दिल को छू गयी. एक एक दर्द सही ढंग से उकेरा है

rashmi ravija ने कहा…

बहुत सुन्दर कविता लिखी है...एक घर को मकान में बदलने की प्रक्रिया को बहुत अच्छी तरह दर्शाया है...कारुणिक है दृश्य पर सत्य है

प्रवीण शुक्ल (प्रार्थी) ने कहा…

वाह वंदना जी जिन्दगी की कशमकश और संवेदना को कितना सजीव रूप दिया है आप ने बहुत ही बेहतरीन कविता
सादर
प्रवीण पथिक
9971969084

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

टुकड़े - टुकड़े
बिखरे अस्तित्व
को घर कब
मिला करते हैं
ऐसे अस्तित्व तो
सिर्फ कमरों में ही
सिमटा करते हैं.

बहुत ही गहरे भाव लिए हुए है आपकी यह रचना!

प्रिया ने कहा…

bahut sahi chitran

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

आपने भावो में दर्द उड़ेल दिया ! बेहतरीन !

ρяєєтii ने कहा…

kis khaas line ki taarif karu ? har shabd jaise astitva khojta nazar aa raha hai... har shabd jaise kuch kahna chaah raha hai... astitva ki khoj, use simatne ka bahut hi accha varnan....

निर्मला कपिला ने कहा…

और उन कमरों में
खुद को
खोजता अस्तित्व
टूट -टूट कर
बिखरता वजूद
बहुत गहरे भाव लिये सुन्दर अभिव्यक्ति।\
बिखरे अस्तित्व
को घर कब
मिला करते हैं
ऐसे अस्तित्व तो
सिर्फ कमरों में ही
सिमटा करते हैं...
वन्दना जी लाजवाब कविता है शुभकामनायें

Narendra Vyas ने कहा…

दिल को अन्दर तक छू गई आपकी ये रचना। बहुत सुन्दर और नाजुक भावाभिव्यक्ति...आभार!!

kshama ने कहा…

ऐसे अस्तित्व तो
सिर्फ कमरों में ही
सिमटा करते हैं.
Kitna sahi kaha aapne!

Yogesh Verma Swapn ने कहा…

हर तरफ
हर कोने में
टुकड़े - टुकड़े
बिखरे अस्तित्व
को घर कब
मिला करते हैं
ऐसे अस्तित्व तो
सिर्फ कमरों में ही
सिमटा करते हैं...

bahut nayaab abhivyakti/prastuti.

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

यथार्थ लिख दिया है...भावुक कर गयी तुम्हारी ये रचना....सुन्दर अभिव्यक्ति

Dev ने कहा…

बहेतरीन प्रस्तुति ......

अनिल कान्त ने कहा…

आपकी बेहतरीन कविताओं में से एक

Dr.R.Ramkumar ने कहा…

मगर मकान में
सिर्फ कमरे होते हैं
और उन कमरों में
खुद को
खोजता अस्तित्व
टूट -टूट कर
बिखरता वजूद
कभी किसी
कमरे की
शोभा बनती
दिखावटी मुस्कान
यूँ एक कमरा
जिंदा लाश का था
तो किसी कमरे में
बिस्तर बन जाती
और मन पर
पड़ी सिलवटें
गहरा जाती

बहुत गहरी पंक्तियां गहरे तक उतर जानवाली

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

हर तरफ
हर कोने में
टुकड़े - टुकड़े
बिखरे अस्तित्व
को घर कब
मिला करते हैं
ऐसे अस्तित्व तो
सिर्फ कमरों में ही
सिमटा करते हैं...


अत्यंत भावुक रचना.

रामराम.

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) ने कहा…

सत्य को दर्शाती..... बहुत ही भावुक.... और सुंदर रचना...

मनोज कुमार ने कहा…

कविता इतनी मार्मिक है कि सीधे दिल तक उतर आती है ।

आनन्द वर्धन ओझा ने कहा…

वंदनाजी,
जीवन की विद्रूपताओ को, मन के द्वंद्व को, आंसुओं को और पीडाओं को तथा विसंगतियों को प्रवाहपूर्ण रचना में साकार कर दिया है आपने !
ज़रा देर से आया, कविता पढ़ी तो आत्मा पर सीधा असर हुआ... थोड़ी देर ख्यालों में गुम रहा, फिर टिपण्णी पर आ सका! आपकी ये रचना एक माहौल खड़ा कर देती है, जिससे गुजरना एक तकलीफदेह यात्रा जैसा है !
हृदय-स्पर्शी रचना ! आभार !!
साभिवादन--आ.

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत गहरे उतरी..उम्दा रचना!

Parul kanani ने कहा…

vandna ji ..bahut sundar aur aapki prem ki 'paridhi' ke ird-gird main hamesha rehi hu...ab is se jyada kuch kehna jaruri nahi :)

सुशील छौक्कर ने कहा…

वाकई आपकी लेखनी दिनों दिन निखरती जा रही है। इस रचना को पढकर तो हमें ऐसा ही लग रहा है।

Aparajita ने कहा…

waah vandana bahut khub.....ekdam sahi kaha .....ye aaj ke daur ki kadwi sachhai hai....
ghar insan ke apsi prem..samarpan.or wishwas se banta hai.......shabd nahi mil rahe mujhe ki kaise tarif karu...par ise mahsus kar pa rahi hu... sundar rachna ke liye badhayee...

रश्मि प्रभा... ने कहा…

अस्तित्व की खोज जारी है, कहीं वह आँगन ज़रूर होगा

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत ही गहरे भाव लिए हुए है आपकी यह रचना!

Pushpendra Singh "Pushp" ने कहा…

सुन्दर रचना
आभार

Mithilesh dubey ने कहा…

बहुत ही उम्दा कविता लगी , आपने कविता के माध्यम से यतार्थ का वर्णन कर दिया , बहुत खूब ।

अनामिका की सदायें ...... ने कहा…

vandana ji aapki ye rachna mano mere kisi azeez ki aapbiti suna gayi..ek ek shabd mano kisi ki kahani keh raha hai...bahut aachhe se her ehsaas ko ek kamra de diya aapne...bahut acchhi rachna jo bheetar tak smritiya chhodti he.

Anamika7577.blogspot.com

girish pankaj ने कहा…

theek baat hai. kavitaa ki disha bilkul sahi hai. fir bhi... ek gunjaaish bhi bani rahe hansane ki...muskaraane ki......
dard me bhi muskaraan chahiye.
hausalo ko aajmaanaa chahiye.

badhai...shubhkaamnaye holi ki....