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सोमवार, 9 जुलाई 2018

तुम्हारी नज़र में दिल्ली क्या है ?



उसने कहा
तुम्हारी नज़र में दिल्ली क्या है ?

वो नज़र कहाँ से लाऊँ
जो आत्मा में झाँक सके
जो धड़कन को सुन सके
जो साँसों का संगीत हो
कौन कर सका है उसे व्याख्यायित

दिल्ली कोई शहर नहीं , राजधानी नहीं
ये दिल है
न केवल मेरा बल्कि सारे देश का
जहाँ धडकता है सुगम संगीत
'मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा'
फिर भी बाँट दी गयी है आज जाने कितने खेमों में
अपनी अपनी राजनीति
अपनी अपनी सहूलियत की मीनार
ऐसे में कैसे संभव है
दिल में पलती मोहब्बत की लहरों को गिनना

अपने पराये से परे है
हाशिये को भी जो सहेज ले और अट्टालिकाओं को भी
गंगा हो या जमुना
दोनों गलबहियाँ डाले
गुजरती हैं गली कूचों से खिलखिलाती हुई
अजान और ओंकार साथ साथ कुहुकती हों कोयल सी
नहीं लगाए गए जहाँ ताले घरों में
खुले रहते थे किवाड़
भरोसा था जिसका आधार
बदल दिया है उसे आज अविश्वास ने
उग आई हैं शक की खरपतवारें
संदेह के कब्जों से हिलने लगी हैं विश्वास की चूलें
रात के खौफ पर भारी है दिन के पहर
तांडव करती है जहाँ भूख, बेईमानी और बदहाली
वहाँ आज उगने लगा है कंक्रीट का जंगल धीरे धीरे
सोख ली है जिसने सारी नमी
वाष्पित होने लगी हैं संवेदनाएं
बदलता मौसम बन गया है सूचक एक अंतहीन विलाप का

मेरे शहर में मेरा ही बाशिंदा नहीं कोई आज
गिने चुने ही मिलेंगे सहेजे अपनी विरासत
फिर भी हर आगत का किया स्वागत
निष्कासित करना सीखा ही नहीं
दिल से लगा लिया अपना बना लिया
बस यही तो दिल्ली का फलसफा रहा
फिर खुद चाहे क्यों न अक्सर तोहमतों का शिकार हुई
दिल्ली ऐसी, दिल्ली वैसी
मगर विचारना जरा
दिल्ली को ऐसा वैसा बनाया किसने?

तुम आये - क्या लाये अपने साथ ?
जो लाये वो ही दिया तुमने दिल्ली को
खुद सा बना लिया
तो आज संवेदनहीनता की पराकाष्ठा पर विधवा विलाप क्यों?

दिल्ली तुम्हारे सपनों का वो ब्रह्माण्ड है
जिसमे दाखिल तो हो गए तुम
लेकिन उसकी जड़ों में ही मट्ठा देते रहे, गरियाते रहे
लेकिन फिर भी न कर सके पलायन
सहूलियतों के पायों ने जकड़े रखा
फिर वो रेहड़ी वाला हो, रिक्शा वाला या मजदूर
या फिर हो कोई अफसर या इंजीनियर
कवि हो, लेखक या साहित्यकार
पत्रकार या व्यापारी
तुम्हारी अपेक्षाओं पर खरी उतरती रही
फिर भी तुम्हारी ही बदजुबानी की शिकार होती रही
तो सोचो जरा
कैसी है दिल्ली ?
और आज जैसी है तो वैसी क्यों है दिल्ली ?

एक बार आकलन के लिए खुद को कटघरे में खड़ा करके देखना
फिर किसी जवाब के मोहताज नहीं रहोगे

बार बार उजड़ना और बसना बेशक इसकी फितरत ही रही
बाहरी हमलों का हमेशा शिकार होती रही
जाने कितनी बार नेस्तनाबूद होकर भी
फिनिक्स सी अपना अस्तित्व बचाती रही
वक्त के उतार चढ़ावों से चाहे जितना बोझिल रही
इसकी जिजीविषा ही इसकी पहचान रही
तभी तो हमेशा ये कहा गया
दिल्ली तो दिलवालों की ही रही ...

क्या कर सकता है कोई परिभाषित दिल्ली होने की विडंबना
दिल्ली सुकूं का महल भी है
तो बेचैनी की आतिश भी
सोचो, विचारो और फिर बताओ
दिल्ली होना आखिर है क्या?

दिल्ली वो संग्रहालय है
जिसने संजोयी हैं स्मृतियाँ
कटु, रुखी, तीक्ष्ण, दाहक भी
तो मधुर, मधुर और मधुर भी
अब अपने चश्मे का नंबर बदलो
शायद तब देख पाओ
अपनायियत की मिसाल है
दिल्ली खूबियों का जिंदा ताजमहल है 

जिसके सिर पर सदा काँटों का ताज रहा 
मगर फिर भी न दिल्ली का दिल डोला 


दिल्ली का दर्द जिस दिन जान जाओगे

चैन की नींद न इक पल सो पाओगे
हमने देखी है दिल्ली की आँखों में पलती मोहब्बत 
ज़रा रुक के इक बार दीदार तो करो 
अपने सपनों के शहर से बाहर निकल 
तो शायद जान पाओ क्या है दिल्ली ?

इक सफ़र है दिल्ली 
तो इक मंजिल भी है दिल्ली 
इक आग है दिल्ली 
तो ख़्वाबों की ताबीर भी है दिल्ली 
दिल्ली यूँ ही नहीं दिलवालों की बनी जनाब 
झुलसाते तेज़ाब से नहाकर निकली है 
तब जाकर सबको गले लगाने की इसे आदत पड़ी है 

अब कैसे बताएं तुम्हें 
हमारी नज़र में क्या है दिल्ली 
अपनी तो दिल , जिगर और जां है दिल्ली ...

2 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (10-07-2018) को "अब तो जम करके बरसो" (चर्चा अंक-3028) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

शिवम् मिश्रा ने कहा…

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, सिने जगत के दो दिग्गजों को समर्पित ९ जुलाई “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !