इक गमगीन सुबह के पहरुए
करते हैं सावधान की मुद्रा में
साष्टांग दंडवत
कि
वक्त की चाबी है उनके हाथों में
तो अकेली लकीरें भला किस दम पर भरें श्वांस
ये अनारकली को एक बार फिर दीवार में चिने जाने का वक्त है
करते हैं सावधान की मुद्रा में
साष्टांग दंडवत
कि
वक्त की चाबी है उनके हाथों में
तो अकेली लकीरें भला किस दम पर भरें श्वांस
ये अनारकली को एक बार फिर दीवार में चिने जाने का वक्त है
3 टिप्पणियां:
सटीक रचना
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल jbfवार (27-08-2017) को "सच्चा सौदा कि झूठा सौदा" (चर्चा अंक 2709) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
गहरी बात
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