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बुधवार, 6 सितंबर 2017

विधवा विलाप की तरह ...

मत बोलना सच
सच बोलना गुनाह है
बना डालो इसे आज का स्लोगन

रावण हो या कंस
स्वनिर्मित भगवान
नहीं चाहते अपनी सत्ता से मोहभंग
और बचाए रहने को खुद का वर्चस्व
जरूरी है
आवाज़ घोंट देना

आवाज़ जो बन न जाए सामूहिक प्रलाप
आवाज़ जिसके शोर से न उखड जाएँ सत्ता के खूँटे
आवाज़ जिसका और कोई पर्याय नहीं
जानते हैं वो

तो जरूरी था दमन
दमन के लिए नहीं होती कोई नियमावली
दमन आज के युग का क्रांतिकारी कदम है
तो कैसे ढूंढते हो उसमें कोई मर्यादा?

सुनो
वो जो रोज करते हैं बड़े बड़े घोटाले
नहीं मारी जातीं उन्हें गोलियाँ
वो जो रोज करते हैं बलात्कार
नहीं खौला करता किसी का खून
वो जो रोज धोखे को बना लेते हैं धर्म का पर्याय
नहीं कसी जातीं उनकी मुश्कें
इस चुप्पे समय के प्रलाप पर मत बहाओ आँसू
कि तुम आ ही नहीं सकते किसी खाते में
जब तक नहीं मिला सकते उनकी हाँ में हाँ

ये वक्त का कमज़ोर पक्ष है
राहू, केतु और शनि का दुर्लभ संयोग है
नहीं सुने या सराहे जायेंगे तुम्हारे नज़रिए 
सुन लो
ओ कलबुर्गी, दाभोलकर,पानसारे, गौरी लंकेश
वो नहीं करते लिंग भेद 
गर करोगे विद्रोह या प्रतिरोध
देशद्रोह की श्रेणी तैयार है तुम्हारे लिए

सच तो बस एक कोने में सिसकने को बेबस है
आओ सत्य का अंतिम संस्कार करें
एक एक मुट्ठी मिटटी डाल अपने हिस्से की
विधवा विलाप की तरह ...

2 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (08-09-2017) को "सत्यमेव जयते" (चर्चा अंक 2721) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'