जब तक बुहारती रही आँगन
मिटाती रही सिलवटें
घर, बाज़ार
स्कूल ,डॉक्टर
से लेकर दुनियावी पहलुओं तक
उगाती रही कोशिशों के चिनार
खुद को मिटा सजाती रही तुम्हारी बज़्म
बा -अदब बा - मुलाहिजा होशियार की टंकार
और सिर झुकाने के अदबी रिवाजों के साथ
प्रिय थी शायद
या फिर स्वीकार था इतना होना भर उसका
समय समेट ही लेता है खुद में
धन रूप और यौवन को भी
ऐसे अंधेरों में घिरने पर
सूख जाती हैं शाखाएं
झरने लगते हैं पत्ते
शिथिल होने लगते हैं अंग
चूलों के हिलने से
हिलने लगती है जब इमारत
और फिर ऐसे नाज़ुक वक्त में
नकारा जाने लगता है अस्तित्व
आखिर बेजारियों की तीमारदारी कोई क्यूँ करे ?
पालने में झूलने के दिन तो
वैसे भी नसीब की क्यारियों में नहीं उगा करते
लेकिन तब भी
उम्मीद की क्यारी में जवां रहता है एक ख्वाब
शायद कभी खिल जाए ये जवाकुसुम
और हो जाये वो निहाल
ख्वाब ख्वाब ही होते हैं .......हकीकत नहीं
वाकफियत करा दी जाती है
जब हकीकत की तस्वीर उसे दिखाई जाती है
हाँ , अनुपयोगी हो अब तुम
खाना पीना और दंगडाना भर है तुम्हारा काम
जो नहीं है अब हमें स्वीकार
और रह जाती है वो हतप्रभ
हो जाती है सोचने को मजबूर
आखिर क्या है कारण
जो हो गयी यूं निष्कासित
क्या यही है एकमात्र कारण
उसके अस्तित्व को नकारे जाने का
कि ' हाउसवाइफ ' है वो
जिसका जिसकी उपयोगिता तक ही होता है , होना
अर्थ बिना अर्थहीन है वो .............
मिटाती रही सिलवटें
घर, बाज़ार
स्कूल ,डॉक्टर
से लेकर दुनियावी पहलुओं तक
उगाती रही कोशिशों के चिनार
खुद को मिटा सजाती रही तुम्हारी बज़्म
बा -अदब बा - मुलाहिजा होशियार की टंकार
और सिर झुकाने के अदबी रिवाजों के साथ
प्रिय थी शायद
या फिर स्वीकार था इतना होना भर उसका
समय समेट ही लेता है खुद में
धन रूप और यौवन को भी
ऐसे अंधेरों में घिरने पर
सूख जाती हैं शाखाएं
झरने लगते हैं पत्ते
शिथिल होने लगते हैं अंग
चूलों के हिलने से
हिलने लगती है जब इमारत
और फिर ऐसे नाज़ुक वक्त में
नकारा जाने लगता है अस्तित्व
आखिर बेजारियों की तीमारदारी कोई क्यूँ करे ?
पालने में झूलने के दिन तो
वैसे भी नसीब की क्यारियों में नहीं उगा करते
लेकिन तब भी
उम्मीद की क्यारी में जवां रहता है एक ख्वाब
शायद कभी खिल जाए ये जवाकुसुम
और हो जाये वो निहाल
ख्वाब ख्वाब ही होते हैं .......हकीकत नहीं
वाकफियत करा दी जाती है
जब हकीकत की तस्वीर उसे दिखाई जाती है
हाँ , अनुपयोगी हो अब तुम
खाना पीना और दंगडाना भर है तुम्हारा काम
जो नहीं है अब हमें स्वीकार
और रह जाती है वो हतप्रभ
हो जाती है सोचने को मजबूर
आखिर क्या है कारण
जो हो गयी यूं निष्कासित
क्या यही है एकमात्र कारण
उसके अस्तित्व को नकारे जाने का
कि ' हाउसवाइफ ' है वो
जिसका जिसकी उपयोगिता तक ही होता है , होना
अर्थ बिना अर्थहीन है वो .............
4 टिप्पणियां:
बेहद संवेदनशील रचना , यथार्थ का आईना दिखती
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (30-09-2015) को "हिंदी में लिखना हुआ आसान" (चर्चा अंक-2114) (चर्चा अंक-2109) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाकई..संवेदनशील रचना
उम्दा पंक्तियाँ ..
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