रोता है मेरा रब बुक्का फाड़ कर
आह ! ये किस तराजू में तुल गया
जहाँ अन्याय ठहाकें लगाता मिला
बेबस न्याय ही कसमसाता मिला
ये किन शरीफों की बस्ती में आ गया
हर चेहरे पर लटकता वहशियत का
चमचमाता फानूस मिला
हर गर्दन तलवार के साए में सिर झुकाए
ताबेदार सी बेबस निष्प्राण मिली
बस एक शैतान के चेहरे पर ही
खिलखिलाती मुस्कान मिली
ऐसे तो जहान की न कल्पना की थी मैंने
जहाँ हैवानियत के जूतों में लगी
इंसानियत की कील हर चेहरे पर चुभती मिली
कहीं गुरुद्वार पर ही अस्मिता बिलबिलाती मिली
कहीं जिंदा लाशों के चेहरों पर बेबसी की मजार मिली
कहीं कोई हीर वक्त के तेज़ाब में खौलती मिली
देह तो क्या आत्मा भी तेजाबी ताप से गलती मिली
कहीं खरीद फरोख्त के साझीदारों में
अपनों के हाथों के फिंगरप्रिंट मिले
कहीं शीश महलों में भी कुचली मसली
रूहों के अवशेष मिले
कहीं पिंजरबद्ध सोन चिरैया के
हाथ में तलवार मगर
पैरों में पड़ी बेड़ियाँ मिलीं
अपने ही दांतों से अपने ही मांस को नोंचते
गिद्धों के बाज़ार मिले
मौकापरस्ती , स्वार्थपरता के खोटे सिक्कों का
महकता चलता बाज़ार मिला
स्वार्थ की वेदी पर निस्वार्थता की बलि देती
सारी कायनात मिली
कहीं अन्याय के बिस्तर पर
सिसकती न्याय की जिंदा लाश मिली
कर्त्तव्य अकर्तव्य के दायरे में जकड़ी
मानुष की ना कोई जात मिली
बस खुदपरस्ती की जकड़नों में जकड़ी
हैवानियत की ही सांस मिली
ये कौन सी बस्ती में आ गया
देख खुदा भी घबरा गया
आदम और हव्वा के रचनात्मक संसार में
आदम को ढूँढने खुदा भी चल दिया
अपने मन के इकतारे पर बिना सुरों को साजे
मेरा रब रोता है बुक्का फाड़ कर
कहता है बिलबिलाकर
कोई मेरा भी क़त्ल कर दो यारों
कोई मुझे भी मुक्त कर दो यारों
तुम्हारी जड़वादी सोच से
भयग्रस्त कुंठाओं से
भय के अखंड साम्राज्य से
जहाँ मेरे नाम की तख्ती लगा
मनमाना व्यभिचार करते हो
और मेरे नाम के दीप में
अपनी तुच्छ वासनाओं के घृत भरते हो
और फिर कभी सामाजिक तो कभी
धार्मिक डर की आँधियाँ चलाते हो
मेरे नाम पर मानव द्वारा मानवता को ही छलवाते हो
अपनी कामनाओं की पूर्ती के लिए
मेरे कंधे पर बन्दूक रख चलाते हो
बस करो अब बस करो
खुद को बेबस लाचार महसूसता हूँ
जब तुम्हारी स्वार्थपरता में घिरता हूँ
मेरा अंतःकरण भी रोता है
और यही प्रश्न करता है
तुम्हारे बोये भय और उन्माद की आँधी में आखिर कब तक मेरा क़त्ल होता रहेगा ?
2 टिप्पणियां:
मानुष की ना कोई जात मिली
बस खुदपरस्ती की जकड़नों में जकड़ी
हैवानियत की ही सांस मिली
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (02.10.2015) को "दूसरों की खुशी में खुश होना "(चर्चा अंक-2116) पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ, सादर...!
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