कितनी उठापटक है
फिर वो साहित्य हो , समाज , राजनीति या रिश्ते
कितने विषय बिखरे पड़े हैं
एक अराजकता सिर उठाये खड़ी है
मगर मेरी साँसों में
मेरे दिल में
मेरे दिमाग में
मेरी सोच में
मेरे विचार में
निष्क्रियता के परमाणु बिखरे पड़े हैं
आहत हैं इतने कि
प्रतिकार भी नहीं करते और स्वीकार भी नहीं
विस्फोटक समय है ये
जहाँ आंतरिक उथल पुथल शब्दहीन है
फिर मर्यादाओं के शिखरों का ढहना कोई आश्चर्य नहीं
' मुँह काला होना ' श्रृंगार है आज के समय का ..........
2 टिप्पणियां:
"मर्यादाओं के शिखरों का ढहना कोई आश्चर्य नहीं"
दुरुस्त
सीधी बात भी... सटीक भी बधाई
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