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मंगलवार, 29 अप्रैल 2014

बालार्क की बारहवीं किरण



बालार्क की बारहवीं किरण है नीता पोरवाल जो अपने दामन में संजो कर लायी हैं अपने अनुभवों का खजाना जहाँ सादगी के साथ सोच का स्तर जब दस्तक देता है तो पाठक वहीँ ठहर जाता है खुद का अवलोकन करने लगता है एक ख्याल उसकी सोच की बेल पर चढ़ने लगता है , आह , यही , बिलकुल यही तो है मेरे मन की भाषा जो मैं कभी कह नहीं पाया , जिसे कभी व्यक्त नहीं कर पाया और यही किसी भी लेखक का सबसे बड़ा पुरस्कार होता है जब पाठक खुद को लेखक के लेखन से जुड़ा महसूसता है।  

" क्या होते हैं प्रेम में हम " जीवन का वो सत्य है जिसे जानते हुए भी अनभिज्ञ रहना चाहते हैं हम , एक परत ओढ़े प्रेम का स्वांग रचते हम कभी खुद से भी सच नहीं कह पाते तभी तो कवयित्री कहती है :

" क्योंकि सोच में जी लेना 
सच में जीने से कहीं ज्यादा होता है आसान " 

एक हकीकत से पर्दा उठाते हुए अंत में :

" दरअसल , अपना ख्यालों के सिवाय 
हम कभी नहीं होते किसी के प्रेम में " 

शायद ही किसी ने प्रेम की ऐसी सटीक व्याख्या की हो। 

" सजा " आज के इंसान की बदलती फितरत पर गहरा कटाक्ष है जहाँ शैतान भी सर झुका  दे इस हद तक मानव की फितरत बदल चुकी है फिर ऐसे में शैतानी ताकतों की जरूरत ही क्या रह गयी जब हर इंसान कहे जाने वाली शख्सियत में शैतानियत भर गयी। 

": दे दी है पटखनी 
कुछ सीधे पैरों वाले इंसानों ने 
इस आखिरी मुकाबले में भी उसे "

" ओढ़ी गयी चुप्पियाँ " एक यथार्थ को शब्दों में पिरो दिया हो जैसे , बिना सजा दिए भी मुजरिम करार कर दिया गया हो जैसे , चुप्पियों के यथार्थ का मानो आईना हो जहाँ चुप्पियाँ अपने होने का जश्न मनाती सी दिखीं , जहाँ चुप्पियों ने राजतिलक किया हो और एक नया इतिहास लिखा हो , यूं भी प्रतिकार  किये जाते हैं , यूं भी जीवन जिए जाते हैं और खुद पर रश्क किया जाता है जहाँ वेदना भी खिलखिला उठे और एक नया इतिहास जिवंत हो उठे कुछ ऐसे भावों को संजोये ओढ़ी हुयी चुप्पियाँ धीमे से पाठक के मन मस्तिष्क पर प्रहार करती हैं और चुपके से निकल लेती हैं पाठक को स्तब्ध छोड़ और यही कवयित्री के लेखन की पराकाष्ठा है जो चुप्पियों में भी मुखर हो उठती है :

" ओढ़ी गयी चुप्पियाँ 
न्याय पुस्तिका में नहीं लिखे जा सके एक गंभीर अपराध सी 
गवाह के आभाव में 
मुजरिम करार दिया जाने के भय से मुक्त 
औरों को ताउम्र कैद की सजा सुना जाती हैं चुप्पियाँ "

" दूरियां " जीवन की आपाधापी के साथ जीवन से आँख मिलाने और किसी समय खुद से ही दूर हो जाने का ऐसा ख्याल है जहाँ इंसान कब खुद के नज़दीक होता है और कब दूर उसे पता ही नहीं चलता और जब एक दिन सारे निष्कर्ष निकालने बैठता है तो हाथ खाली ही दिखते हैं क्योंकि खुद से खुद का फासला तब भी उतना ही कायम रहता है अब चाहे वो फासला रिश्तों का हो या खुद का खुद से महज कोरा  भ्रम भर साबित होता है। 

" ठहराव भी मौली धागे सा नहीं " जीवन एक ऐसी धारा जिसमे सिर्फ बहना ही है , बेशक कितने मोड़ आये , ऊबड़ खाबड़ रस्ते बने मगर चलना नियति है अब उसके लिए की गई जद्दोजहद कोई विशेष परिशिष्ट नहीं बनाती क्योंकि ठहरना संभव ही नहीं फिर क्यों किसी से कोई अपेक्षा की जाए क्योंकि जीवन में खुशियाँ किसी प्रतिस्थापन की मोहताज नहीं होतीं उन्हें आना है आएँगी और उन्हें जाना है जाएँगी बिना किसी आडम्बर को ओढ़े या हाथ में शगुन की मौली बांधने भर से ही नही आतीं : 

" एक उसके ही ठहराव से 
मुकम्मल हैं कई ज़िंदगियाँ " 

" हाँ , खुशियों का प्रतिस्थापन 
किसी विशेष अपेक्षा के बगैर भी संभव " 

नीता पोरवाल की कवितायेँ संवाद करती हैं , मन के कोने को छूती हैं और फिर पाठक को यथार्थ से परिचित कराती हैं।  कवयित्री का चिंतन उसके लेखन में परिलक्षित होता है जो दर्शाता है संभावनाओं की जमीन बहुत उर्वर है , भविष्य सुखद है , पाठक को पाठन  का एक नया आकाश हर बार मिलता रहेगा।  कवयित्री को उनके उज्जवल भविष्य की शुभकामनाएं देते हुए मिलती हूँ अगली बार। 

2 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (30-04-2014) को ""सत्ता की बागडोर भी तो उस्तरा ही है " (चर्चा मंच-1598) पर भी होगी!
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

सदा ने कहा…

आपका यह प्रयास सराहनीय है .....
बेहतरीन प्रस्‍तुति