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मंगलवार, 1 अप्रैल 2014

बालार्क की ग्यारहवीं किरण




बालार्क की ग्यारहवीं किरण तो खुद किरण है तो कैसे ने उसकी आभा प्रस्फुटित होगी , कैसे न अपनी रश्मि से आलोकित करेगी पाठकों के मन का कोना कोना।  जी हाँ मैं बात कर रही हूँ किरण आर्य की जिनकी सात रचनाओं को संग्रह में स्थान मिला।  

" गिरगिट " के माध्यम से आज के इंसान की रंग बदलती प्रवृत्ति पर करारा प्रहार किया है कैसे सारे मूल्यों को एक तरफ कर इंसान आज सिर्फ स्वार्थ की वेदी पर सिर्फ अपनी आकांक्षाओं के फूल खिलाने को आतुर है कि सही और गलत का फर्क भी भूल गया है. 

" स्वछन्द विचरते भाव " तो कविता के उद्देश्य को स्वयं ही प्रस्तुत कर रहे हैं कि भाव रुपी पंछी जब मन के धरातल पर उतरता है तो कैसे अठखेलियां करता है , कभी सपनो को तो कभी हकीकत को बयां करता है और कवि को कर देता है मुक्त सृजन की पीड़ा से जब स्वयं प्रस्फुटित होता है. 

" आत्मचिंतन " के माध्यम से यही कहना चाहा है कि जब मानव चारों तरफ से परेशां हताश हो जाता है तब आत्मचिंतन की ओर उन्मुख होता है तभी उसका खुद से साक्षात्कार होता है , तभी ईश्वर और जीव का फर्क दूर होता है। 

" पानी जीवन स्त्रोत " में बूँद बूँद पानी की क्या कीमत है वो बतायी है। 

" मन की उदासी " जीवन जीने की जीजिविषा का शानदार चित्रण है जिसे चींटी के माध्यम से चंद लफ़्ज़ों में कवयित्री ने उकेरा है कि कैसी भी विषम परिस्थितियां क्यों न हों कभी हौसला नहीं छोड़ना चाहिए क्योंकि हौसला रखने वाले ही अगले दिन का सूरज देखा करते हैं , सर उठा कर जिया करते हैं।  

"चाँद और मानुष " में भावों का उत्कृष्ट संगम किया है साथ ही चाँद से मानव के सम्बन्ध को तो उकेरा ही है साथ ही उसकी और पाने की लालसा को भी बड़ी खूबी से बयां किया है कि आखिर कब तक हम ईश्वर प्रदत्त प्रकृति का शोषण करते रहेंगे महज अपनी तुच्छ लालसाओं , इच्छाओं की आपूर्ति हेतु कुछ इस प्रकार :

" प्रकृति और पृथ्वी से कर खिलवाड़ वो हारा 
अब लालसाओं ने उसकी चाँद को है निहारा " 

 अंतिम कविता " आग " सबसे सुन्दर और सार्थक रचना है जिसमें कवयित्री ने आग को माध्यम बना ज़िन्दगी में उमड्ती घुमडती चाहतों और हवस पर प्रहार किया है कि आग सार्थक भी है यदि उसका सदुपयोग किया जाये , यदि उसमें संभावनायें तलाशी जायें और दूसरी आग वो जिस पर हम अपनी स्वार्थ की रोटियाँ सेंकने को आतुर होते हैं , जहाँ सिर्फ़ अपना मैं ही अहम होता है , जहाँ सिर्फ़ खुद की पहचान बनाना ही सर्वोपरि होता है फिर उसके लिये अपनी खुद्दारी को भी ताक पर क्यों न रख दिया जाये , उसके लिये चाहे देश , समाज की भी अनदेखी क्यों न कर दी जाये क्योंकि पेट की आग तो बुझ भी जाती है मगर तुच्छ कामनाओं की आग से बचना संभव नहीं । 

कवयित्री में सम्भावनाओं की फसल लहलहा रही है बस जरूरत है उस दिशा में कदम बढ़ाने की।  कवयित्री के उज्जवल भविष्य की कामना करते हुए फिर मिलेंगे जल्दी ही। 

इस बार की देरी की वजह सभी जानते हैं मेरी खुद की बुक आयी थी तो उसी में लगी रही और कुछ तबियत ठीक नहीं रही इसलिए श्रृंखला बीच में टूट गयी उम्मीद है आगे सिलसिला जारी रहेगा।  

जल्द मिलती हूँ अगले कवि के साथ ……… 

1 टिप्पणी:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

किरण जी और उनकी रचनाओं से मिलना बहुत अच्छा लगा ...