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बुधवार, 9 जनवरी 2013

ये फ़ितूरों के जंगल हमेशा बियाबान ही क्यों होते हैं?

काश !
मौन के ताले की भी कोई चाबी होती
तो जुबाँ ना यूँ बेबस होती
कलम ना यूँ खामोश होती
कोई आँधी जरूर उमडी होती

इन बेबसी के कांटों का चुभना …

मानो रूह का ज़िन्दगी के लिये मोहताज़ होना
बस यूँ गुज़रा हर लम्हा मुझ पर
ज्यूँ बदली कोई बरसी भी हो
और चूनर भीगी भी ना हो

ये फ़ितूरों के जंगल हमेशा बियाबान ही क्यों होते हैं?

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