क्या कहूँ अब ?
एक प्रश्न बन खड़ा है मेरे सामने
न मैं बची न मेरा अस्तित्व
और फिर किससे कहूँ ?
कौन है सुनने वाला ?
कहने के लिए
दो का होना जरूरी होता है
एक कहने वाला और एक सुनने वाला
मगर आज तो लगता है
सिवाय मेरे
और कोई नहीं है सुनने वाला
ये कौन से देश में आ गयी हूँ
ये कौन से परिवेश में आ गयी हूँ
ऐसा तो न देखा था न सुना था
बस यही सुनते बड़ी हुयी
ये राम का देश है
जहाँ सीता की अस्मिता के लिए
रावण का अंत किया जाता है
और प्रतीकात्मक रूप से
आज भी रावण का अंत होता है
जहाँ आज भी स्त्री को इतना मान मिलता है
कि देवी रूप में पूजी जाती है
मगर मुझे न पता था
यहाँ स्त्री को सिर्फ भोग्या का ही स्थान मिला
फिर चाहे द्रौपदी हो या अहिल्या या आज की दामिनी
हर बार वो ही दांव पर लगी
हर बार उसकी ही अस्मिता से खेला गया
हर बार उसकी ही आत्मा को लहूलुहान किया गया
सन्दर्भ या काल कोई भी रहा हो
मगर हर बार दोहन मेरा ही हुआ
तो फिर कहने को क्या बचा ?
कौन सा कानून ऐसा बना
जिसमे मेरे वजूद को इन्सान के रूप में स्वीकारा गया
आज जब वाकिफ हो गयी हूँ इस सत्य से
तो चाहती हूँ बदलना अपने रूप को
अपने स्वरुप को
करना चाहती हूँ एक ऐसा तप
जिसमे मांग सकूँ खुदा से
सिर्फ अपने लिए एक वर
"अब से जब भी पृथ्वी पर जन्म देना
मुझमे ना वो अंग देना
जो इंसान को हैवान बनाते हैं
जो माँ, बहन, बेटी तक का फर्क भुलाते हैं
या फिर इतना सबल बनाना
कि आँख न कोई उठ सके
हाथ न कोई बढ़ सके
मेरी अस्मिता तक "
हाँ माँगना चाहती हूँ अब खुदा से ही
क्योंकि
इंसानों का देश कहे जाने वाले इस देश में तो
मैं घर में भी सुरक्षित नहीं .............
जहाँ मेरे शव पर राजनीति होती है
जहाँ मेरी अस्मिता जार - जार रोती है
जहाँ रूह मेरी तार - तार होती है
और फिर यही प्रश्न मूंह बाए खड़ा हो जाता है ...........क्या कहूँ अब और किससे ?
17 टिप्पणियां:
इस देश में अबला के त्याग को, जख्मों ने नवाजा है,
फ़रियाद भी करे किससे,अंधों के बीच काना राजा है।
aaj ke samay par chot karti....marmsparshi.....
खुद को खुद सुनना है,और वही परिवर्तन लायेगा
वाकई...क्या कहें और किससे....
चुपचाप सहें बस ????
बेहद गहन रचना वंदना...
सस्नेह
अनु
कटु सत्य.....
Ye sawal zindagi me na jane kitni baar samne aa khada ho jata hai..bahut sundar rachana!
प्रभावशाली !!
जारी रहें !!
आर्यावर्त बधाई !!
प्रश्न बड़े, उत्तर सब ढीले।
बहुत प्रभावशाली अभिव्यक्ति
sundar bhavon se acchadit prastuti,अपने स्वरुप को
करना चाहती हूँ एक ऐसा तप
जिसमे मांग सकूँ खुदा से
सिर्फ अपने लिए एक वर
"अब से जब भी पृथ्वी पर जन्म देना
मुझमे ना वो अंग देना
जो इंसान को हैवान बनाते हैं
जो माँ, बहन, बेटी तक का फर्क भुलाते हैं
या फिर इतना सबल बनाना
कि आँख न कोई उठ सके
हाथ न कोई बढ़ सके
मेरी अस्मिता तक "
अगर हर कब,क्यों और कैसे का उत्तर मिल जाता तो जिंदगी कितनी सरल हो जाती
बहुत सार्थक और मार्मिक अभिव्यक्ति...
आज भी स्त्रियों का स्थान देवी जैसा ही है परन्तु समाज कुछ गंदे कीड़े देवी जैसी माँ बहनों के दामन पर कीचड़ उछाल रहे हैं। बहुत ही सुंदर प्रस्तुती,धन्यबाद।
भूली -बिसरी यादें
आज भी स्त्रियों का स्थान देवी जैसा ही है परन्तु समाज कुछ गंदे कीड़े देवी जैसी माँ बहनों के दामन पर कीचड़ उछाल रहे हैं। बहुत ही सुंदर प्रस्तुती,धन्यबाद।
भूली -बिसरी यादें
सृष्टि के रचियता ने भी शायद
ऐसा सोचा न रहा हो ऐसे कुकृत्यों के बारे में .....
उद्वेलित अंतर्मन से निकले
सुन्दर भाव .....आभार
इंसानियत का जिन्दा रहना जरुरी है. सब को सोचना पड़ेगा.
नैराश्य हल नहीं.
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