"शब्दों के अरण्य" में रश्मि प्रभा द्वारा सम्पादित और हिंद युग्म
द्वारा प्रकाशित काव्य पुष्प है जिसकी भीनी सुगंध में ना जाने कौन- कौन से
सुमन अपनी महक से योगदान दे रहे हैं और इस अरण्य को सुवासित कर रहे हैं.
शब्दों का अरण्य और उस अरण्य में से सुगन्धित , सुकोमल , पुष्पित- पल्लवित
सुमनों को छांटना और फिर एक माला में पिरोना इतना आसान कहाँ होता है ना
सिर्फ पिरोना बल्कि उनके सौंदर्य को भी बरकरार रखते हुए पूजा के थाल में
सजाना और फिर आराधना करना देवता की किसी तपस्या से कम तो नहीं और जहाँ
तपस्या होगी वो भी निस्वार्थ तो उसका फल तो मिलेगा भी जरूर तभी तो इतने
सजीव चित्र चित्रित हुए हैं कि समझ नहीं आता कौन सा पुष्प अपने दामन में
संजोये और कौन सा छोडें , किसी को भी छोड़ना ऐसा लगता है जैसे अपने किसी
प्रियतम से बिछुड़ रहे हों मगर कभी -कभी ना चाहते हुए भी ऐसे क्षण जीवन में
आते हैं जिसमे हमें सिर्फ कुछ को ही चुनना पड़ता है क्योंकि हमारे दामन
में जगह कम होती है चाहे देने वाले का दामन कितना ही भरा हो लेना तो हमें
अपनी क्षमताओं के हिसाब से ही पड़ता है शायद तभी ना चाहते हुए भी कुछ बेहद
खूबसूरत पुष्पों को छोड़ना पड़ा फिर भी कोशिश की कि ज्यादा से ज्यादा
सुमनों को समेट सकूँ ताकि एक सुगन्धित सुवासित माला तैयार हो सके तो
प्रस्तुत है मेरी नज़र से शब्दों के अरण्य के काव्य सुमन
सबसे पहले
अंजू अनन्या जीवन के प्रति "दृष्टिकोण" पर गहरा चिंतन करती हैं और एक नयी सोच को जन्म देती हैं की जीवन क्या है और फिर उसकी परिणति क्या है साथ ही बताती हैं कि इन्सान का नजरिया ही जीवन को प्रतिबिंबित करता है क्योंकि जीवन तो जीवन होता है
सबसे पहले
अंजू अनन्या जीवन के प्रति "दृष्टिकोण" पर गहरा चिंतन करती हैं और एक नयी सोच को जन्म देती हैं की जीवन क्या है और फिर उसकी परिणति क्या है साथ ही बताती हैं कि इन्सान का नजरिया ही जीवन को प्रतिबिंबित करता है क्योंकि जीवन तो जीवन होता है
जीवन तो जीवन होता है
भिन्न होता है तो
दृष्टिकोण
जो देता है मायने
जीवन को
अनुलाता राज नायर की "रस्साकशी--सच और झूठ के बीच " के बीच के द्वन्द को प्रस्तुत करती है जो ये सिद्ध करती है कि व्यक्ति का सच्चा होना जरूरी है झूठ कभी भी उसके अन्दर की सच्चाई को नहीं मार सकता चाहे सच को झूठ ही क्यों ना साबित कर दिया जाये
झूठ की सूली पर
चढ़कर
सत्य अपना शरीर त्याग देता है
मगर सच की आत्मा
अमर होती है
सच कभी मरता नहीं
अपर्णा मनोज की "विष का रंग क्या तेरे वर्ण सा है कान्हा " एक प्रश्नचिन्ह उत्पन्न करती है कान्हा के व्यक्तित्व पर , पूछ रही है उसकी पुजारिन मगर साथ ही अपने भाव , अपने समर्पण को गीता का १९वा अध्याय बताती है तो प्रेम की पराकाष्ठा नहीं है तो क्या है , उससे एक प्रेमभरी शिकायत कहो , आस कहो या विश्वास, उम्मीद है उसे कि आएगा उसका प्रियतम एक दिन और समा लेगा उसके भाव सुमनों को अपने अंतस में
मैं उन्नीसवां पर्व हूँ
तेरी गीता का
जो किसी अदालत में नहीं पूजा गया
पर मेरी वेदना का
यह पर्व डूब गया था
द्वारिका में तेरी
उदित उपमन्यु की "मौत के बाद क्या " एक गहन चिंतन पर आधारित प्रस्तुति है जिसमे जीवन और ईश्वर की उपादेयता सिद्ध करने के साथ एक खोज है जो प्रत्येक मनुष्य जीवन पर्यंत करता रहता है ......कि आखिर मौत के बाद क्या बचता है या उसके बाद क्या करना बाकी रह जाता है जी कि शाश्वत प्रश्न है
मौत का स्टेशन गुजर चुका है
पूरी ट्रेन में इकलौती जीवंत दिखती चीज बची है एक सवाल ....
मौत के बाद क्या ?
अश्वनी कुमार की "प्रेमिका सी कविता" एक बहुत प्यारी सी रचना है जहाँ कवि कविता की तुलना प्रेमिका से कर रहा है और उसके भेद खोल रहा है कैसे प्रेमिका रूठ जाती है और किस अदा पर मान जाती है कुछ ऐसा ही हाल तो उसकी कविता का भी होता है पता ही नहीं चलता कविता में प्रेमिका है या प्रेमिका में कविता दोनों भावों को इतनी खूबसूरती से संजोया है
प्रेमिका - सी कविता
कई दिन के बाद मिलो तो
बात नहीं करती आसानी से
अनमनी -सी रहती है
रूठी
ॠता
शेखर मधु " मत करो संहार वृक्षों का " के माध्यम से पर्यावरण पर गहरी
चिंता व्यक्त करते हुए आने वाली पीढ़ी का एक प्रश्न लेकर उपस्थित हुई हैं
जिसमे वे पूछ रही हैं कि कब तक प्रकृति का दोहन होगा और क्या छोड़ेंगे हम
अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए , क्या वो हमें माफ़ कर पाएंगी ? क्या होगा
ऐसे विकास से जिसमे सांस लेने के लिए स्वच्छ वायु भी उपलब्ध नहीं होगी ?भिन्न होता है तो
दृष्टिकोण
जो देता है मायने
जीवन को
अनुलाता राज नायर की "रस्साकशी--सच और झूठ के बीच " के बीच के द्वन्द को प्रस्तुत करती है जो ये सिद्ध करती है कि व्यक्ति का सच्चा होना जरूरी है झूठ कभी भी उसके अन्दर की सच्चाई को नहीं मार सकता चाहे सच को झूठ ही क्यों ना साबित कर दिया जाये
झूठ की सूली पर
चढ़कर
सत्य अपना शरीर त्याग देता है
मगर सच की आत्मा
अमर होती है
सच कभी मरता नहीं
अपर्णा मनोज की "विष का रंग क्या तेरे वर्ण सा है कान्हा " एक प्रश्नचिन्ह उत्पन्न करती है कान्हा के व्यक्तित्व पर , पूछ रही है उसकी पुजारिन मगर साथ ही अपने भाव , अपने समर्पण को गीता का १९वा अध्याय बताती है तो प्रेम की पराकाष्ठा नहीं है तो क्या है , उससे एक प्रेमभरी शिकायत कहो , आस कहो या विश्वास, उम्मीद है उसे कि आएगा उसका प्रियतम एक दिन और समा लेगा उसके भाव सुमनों को अपने अंतस में
मैं उन्नीसवां पर्व हूँ
तेरी गीता का
जो किसी अदालत में नहीं पूजा गया
पर मेरी वेदना का
यह पर्व डूब गया था
द्वारिका में तेरी
उदित उपमन्यु की "मौत के बाद क्या " एक गहन चिंतन पर आधारित प्रस्तुति है जिसमे जीवन और ईश्वर की उपादेयता सिद्ध करने के साथ एक खोज है जो प्रत्येक मनुष्य जीवन पर्यंत करता रहता है ......कि आखिर मौत के बाद क्या बचता है या उसके बाद क्या करना बाकी रह जाता है जी कि शाश्वत प्रश्न है
मौत का स्टेशन गुजर चुका है
पूरी ट्रेन में इकलौती जीवंत दिखती चीज बची है एक सवाल ....
मौत के बाद क्या ?
अश्वनी कुमार की "प्रेमिका सी कविता" एक बहुत प्यारी सी रचना है जहाँ कवि कविता की तुलना प्रेमिका से कर रहा है और उसके भेद खोल रहा है कैसे प्रेमिका रूठ जाती है और किस अदा पर मान जाती है कुछ ऐसा ही हाल तो उसकी कविता का भी होता है पता ही नहीं चलता कविता में प्रेमिका है या प्रेमिका में कविता दोनों भावों को इतनी खूबसूरती से संजोया है
प्रेमिका - सी कविता
कई दिन के बाद मिलो तो
बात नहीं करती आसानी से
अनमनी -सी रहती है
रूठी
अगली पीढ़ी मांगेगी जवाब
पितामहो
आपने मकान छोड़ा
संपत्ति छोड़ी
बैंक बैलेंस छोड़ा
क्यों नहीं छोड़ा आपने
शुद्ध हवाएं , निर्मल नदी
क्यों छीन लिया जीवन का मूल आधार
क्यों किया आपने वृक्षों का संहार ?
कविता रावत की "यूँ ही अचानक कुछ नहीं घटता " ज़िन्दगी की सच्चाइयों से रु-ब-रु करती एक ऐसी रचना है जिसकी हकीकतों से हम मुँह नहीं मोड़ सकते तभी तो वो कहती हैं ---------बिना कारण कुछ नहीं होता यहाँ तक कि जब तक सुदामा भी कृष्ण से मांगने नहीं गए तब तक सब कुछ जानते बूझते भी कृष्ण ने उनका दारिद्रय दूर नहीं किया फिर ये ज़माना है यहाँ यूँ ही कुछ नहीं होता
यूँ ही कोई किसी की सुध नहीं लेता
बिन मांगे कोई किसी को कब देता
गार्गी चौरसिया की "अनमोल" आत्मिक रिश्ते के सौदर्य को उकेरती खूबसूरत कृति है जो बताती है कि कोई एक रिश्ता ऐसा होता है जो जिस्म से परे आत्मिक स्पंदनों पर संचालित होता है वहाँ कोई स्वार्थपरता नहीं होती. होता है तो सिर्फ दूसरे के लिए त्याग, उसकी ख़ुशी में अपनी ख़ुशी और ऐसा रिश्ता यदि किसी के जीवन म या जाये तो वो जीवन की अनमोल धरोहर होता है
ये बेनाम रिश्ते हम नहीं चुनते
ये तो आत्मा चुनती है
और आत्मा जिस्म नहीं
आत्मा चाहती है
डॉक्टर जय प्रकाश तिवारी "बादल और इन्सान " के माध्यम से इंसानी प्रवृत्ति की तुलना बादल से करते हैं और बादल यानि पौरुषिक प्रवृत्ति , स्वछंदता , स्वतंत्रता , संवेदनहीनता का परिचायक जिसे फर्क नहीं पड़ता किसी की तड़प से और अंत में एक प्रश्न उछाल दिया कि अनैतिकता का ये पाठ किसने किसे सिखाया इन्सान ने बादल को या बादल को इन्सान ने ? साथ ही बादलों का प्रायश्चित तो फिर भी हो जाता है मगर इन्सान शायद ये सब भूल चुका है , नहीं है उसकी डिक्शनरी में आत्मग्लानि और पश्चाताप
वह भी पहले बेटी बिजली को
फिर बाद में बेटे शब्द को भी
बिजली विरोध करती है तड़प कर
शब्द करता है विरोध गरज कर
लेकिन पुकार उनकी सुनता ही कौन ?
डॉक्टर जेन्नी शबनम की "जा तुझे इश्क हो " प्रेम की मासूम अभिव्यक्ति है जहाँ प्रेम और वेदना दोनों एक साथ हिलोर लेती है . प्रेमी सब जानता बूझता है और प्रेमिका के दर्द को भी महसूसता है मगर चाहता है वो हमेशा हँसती रहे मगर प्रेम से या कहो इश्क से दूर रहना चाहता है ऐसे में प्रेमिका जो प्रेमी की अन्तर्दशा जानती है फिर भी चाहती है कि उसे अहसास हो आखिर इश्क है क्या इसलिए चाहती है उसे श्राप देना ........जा तुझे इश्क हो
गैरों के दर्द महसूस करना और बात है
खुद के दर्द जीना और बात
एक बार तुम भी जी लो
मेरी ज़िन्दगी
जी चाहता है
तुम्हें श्राप दे ही दूँ
"जा तुझे इश्क हो "
डॉक्टर निधि टंडन की " मेरी व्यस्तताएं " प्रेमी मन के उद्गारों को प्रस्तुत करती प्रेम में भीगी रचना है जहाँ प्रेमिका के लिए व्यस्तता सिर्फ और सिर्फ प्रेम में ही डूबे रहना है ...........देखा है कभी किसी को ऐसा व्यस्त होते .........ये भी तो प्रेम की एक अदा है
सच है ना
प्यार में कभी कोई खाली नहीं होता
प्यार हमेशा व्यस्त रहने का नाम है
डॉक्टर मोनिका शर्मा की " आखिर क्यों विक्षिप्त हुए हम ? बेटियों के प्रति समाज की उपेक्षा पर किया गया प्रश्न है जो आज के समाज से किया गया एक ऐसा अनुत्तरित प्रश्न है जिसका जवाब सदियों से खोजा जा रहा है
तभी तो कूड़ेदान में सिसकती
बेटियां यही प्रश्न उठाती हैं
आखिर क्यों विक्षिप्त हुए हम
क्यों , कैसे मनुष्य ना रहे हम
तो दूसरी तरफ प्रीत अरोड़ा की "संस्कारों की जीत" आज के पितृसत्तात्मक समाज में नारी के संस्कारों का दर्पण है जहाँ उसमे संस्कार इस तरह कूट कूट कर भरे होते हैं कि वो विद्रोह नहीं कर पाती और स्वीकार लेती है अपनी संस्कारित नियति को
दिगंबर नाशवा की "कभी ख़त्म नहीं होती " ऐसी कविता जो बताती है कोई भी रिश्ता हो या लम्हा चाहे जितना भी कोशिश कर लो ख़त्म करने का मगर पूरी तरह कभी कुछ भी ख़त्म नहीं होता कुछ तो कहीं ना कहीं बचा ही रहता है
अक्सर सांसें जब उखड़ने लगें
रुक जाना बेहतर होता है
ये सच है कि एक सा तो हमेशा कुछ भी नहीं रहता
पर कुछ ना कुछ होने का ये अहसास
शायद कभी ख़त्म नहीं होता
दीपिका रानी "पति से बिछुड़ी औरत " के माध्यम से एक ऐसी त्रासदी पर प्रहार करती है जिसमे जब औरत जूझती है तो उस पर सारे जहाँ की बंदिशें लग जाती हैं मगर दूसरी तरफ यदि पुरुष होता है इस जगह यानि पत्नी से बिछुड़ा आदमी एक बेस्ट सेलर का सेकंड एडिशन बन जाता है .......नहीं होती उस पर ज़माने की कोई बंदिश .....इसी फर्क को दर्शाती रचना एक शाश्वत प्रश्न मानो में छोड़ जाती है कि आखिर ऐसा भेदभाव क्यों और कब तक ?
पति से बिछुड़ी औरत
एक ज़िन्दा सती है
जिसके सपनो का दह संस्कार नहीं हुआ
अपने अरमानों की राख़
किसी गंगा में प्रवाहित नहीं की उसने
पत्नी से बिछुड़ा आदमी
कर्मयोगी है
वह संसार से भाग नहीं सकता
उसे जीवन पथ पर आगे बढ़ना है
नयी उम्मीदों नए हौसलों के साथ
पल्लवी त्रिवेदी "हम सब ऐसे ही तो हैं " के माध्यम से इन्सान के अन्दर रहने वाले बच्चे को व्यक्त कर रही हैं जो बूढा होने पर भी कहीं ना कहीं अन्दर छुपा रहता है .
एक कम्पनी के मेनेजर को
सेमिनार में
लेक्चरार का कार्टून बनाते
अपनी माँ को सर्दी जुकाम में
आइसक्रीम ना देने पर
मुँह फुलाते
प्रत्यक्षा की "मेरे अन्दर का जंगल " इन्सान के अन्दर पनपते अकेलेपन की त्रासदी को दर्शाती उत्कृष्ट रचना है जिसमे वो कहना चाहती हैं कि अगर हम अन्दर की राहें बंद कर लेते हैं तो बाहर के रास्ते भी स्वयं बंद हो जायेंगे
पर में ये भूल गयी थी
की बाहर की धूप भी तो
बहिष्कृत हो गयी है
अन्दर आने से
मिनाक्षी धन्वन्तरी "व्यक्तित्व " के माध्यम से बता रही हैं कि हम कैसे किसी को आते देखकर उसके व्यक्तित्व के बारे में अटकलें लगने लगते हैं और ज्यादातर ऐसा सोचते हैं जो इंसान को शोभा नहीं देता और खासकर यदि वो कोई लड़की या औरत हो उसकी चाल ढाल व्यवहार पर कसीदे पढने लगते हैं मगर नहीं देख पाते और ना ही पढ़ पाते हैं उसके आँखों की भाषा को क्योंकि यदि वो पढ़ ली तो समझनी मुश्किल और समझ को तो कहनी मुश्किल होगी
लेकिन
किसी ने नहीं कहा था की .....
वो भावुक संवेदनशील ह्रदय वाली है
किसी ने नहीं कहा था
उसका मन शीशे जैसा बेहद नाज़ुक है
मुकेश कुमार सिन्हा की "हाथ की लकीरें " कर्त्तव्य को प्रेरित करती उत्तम कृति है जो ये बताती है कि हाथ की लकीरें बदल भी सकती हैं यदि कर्म को मुट्ठी में भींच लिया जाए क्योंकि मेहनत से बढ़कर लकीरें नहीं होतीं
मकड़ी की तरह
फँसे इन लकीरों में
इन जालों की तरह
उकेरी हुए लकीरों
को अपने वश में
करने हेतु
हम करते हैं धारण
लाल हर पीले
चमकदार
महंगे सस्ते पत्थर
अपनी औकात को देखते हुए
बांध के रह जाते हैं
पर ,किन्तु , परन्तु में
हो जाते हैं
लकीर के फकीर
रश्मि प्रभा की "तथास्तु और सब ख़त्म " ईश्वर प्रदत्त चीजों के प्रति मानव की संवेदनहीनता को दर्शाती उत्तम कृति है क्योंकि वो जो देता है बिना किसी स्वार्थ के , मानव के कल्याण और तरक्की के लिए फिर भी हम दोहन से बाज नहीं आते और इतना नहीं सोचते कि अगर वो हमसे सब छीन ले तो क्या हो ? मानव को सचेत और जागरूक करती प्रेरणादायी रचना है
सोचो ज़रा
तुम्हें रब बना
वह खुद मानव बन
तुमसे वही मांगे करने लगे जो तुम मांगते आये हो
तो क्या होगा ! सोचो , असंभव को संभव बनाने वाला
चीरहरण पर उतार आये तो क्या होगा?
लीना मल्होत्रा राव की " वो जो सीता ने नहीं कहा" राम से प्रश्न करती एक ऐसी रचना है जो ये प्रश्न शायद हर मन में उठाती होगी . यूँ तो सीता ने हर तरह से पूर्ण समर्पित नारी को प्रस्तुत किया मगर फिर भी उसके मन का एक हिस्सा राम से प्रश्न कर रहा है कि कभी तुम अपराधबोध से ग्रस्त हुए और मेरे पास आये तो वो भी तुम्हारा अपराधबोध ही है मुझसे आँख ना मिला पाने में तुम्हारा स्वार्थ है और ये आना ही तुम्हारी मेरे प्रति निष्ठुरता ही तो है क्योंकि तुम नहीं आये निस्वार्थ सिर्फ मेरे लिए
हर बार तुम
मेरे प्रति तुम इतने निष्ठुर क्यों हो जाते हो राम
तुम्हारा कुल
तुम्हारी मर्यादा
और अब
तुम्हारी ही अपराधबोध
तुम्हारा ये स्वार्थ
तुम्हारे पुरुष होने का परिणाम है
या
मेरे स्त्री होने का दंड ?
विजय सपत्ति की "माँ" उन लोगों के दर्द को व्यक्त करती है जो नौकरी आदि का कारण अपने परिवार से दूर हुए तो माँ का साथ छूट गया और अब सिर्फ उसकी यादें ही बाकी बची हैं चाहकर भी ना वापस जा सके और अब तो उसका वजूद भी नहीं रहा तब कवि मन सोचता है कि वो किसकी तलाश में आया था शहर में ?
माँ को मुझे कभी तलाशना नहीं पड़ा
वो हमेशा ही मेरे पास थी और है अब भी
शिखा वार्ष्णेय की "कुछ पल" यादों को सहेजती एक खूबसूरत कृति है
विभा रानी श्रीवास्तव की "बात एक ही है " रिश्तों के दर्द को बयां करती वेदना का स्वर है
संगीता स्वरुप की " किसे अर्पण करूँ " ज़िन्दगी का निचोड़ है कि कैसे एक उम्र बीत जाने पर ना तो रिश्ते छोड़े जा सकते हैं क्योंकि मोहे के बंधनों में जकड़े होते हैं और ना ही सहेजने आसान होते हैं इसी कशमकश में बांधा उनका मन भवसागर में डूब उतर रहा है
आसक्ति से प्रारंभ हो
विरक्ति प्रारब्ध हो गयी
किस छल बल से भला
मैं मोह का दामन करूँ ?
समीर लाल की "वापसी" में हर प्रवासी की पीड़ा का दिग्दर्शन है जो अपनी मिटटी से बिछुड़ा कोई पंछी महसूस करता है और वापसी की चाह रखता है मगर चाहकर भी इस मकडजाल से बाहर नहीं निकल पाता
सलिल वर्मा की "भिक्षुक " दिल को गहराई तक छूने वाली रचना है . पीड़ा की असीम वेदना का चित्रण कराये ये कविता कितना कुछ कह जाती है जिसे जब खुद पढ़ा जाए तभी महसूस किया जा सकता है उस पीड़ा को शब्दों में बांधना कहाँ संभव हो सकता है
साधना वैद की "सुमित्रा का संताप" सुमित्रा की उस वेदना का दर्शन करता है जिसकी तरफ आज तक किसी भी कहानीकार या कवि की दृष्टि नहीं पड़ी. सुमित्रा की वेदना को कम आँका गया और कौशल्या की वेदना को ज्यादा सिर्फ इसलिए क्योंकि वो राम की माँ थी जबकि विरह और वैधव्य की पीड़ा तो दोनों ने बराबर सही थी इसी वेदना को साधना जी ने जीवंत कर एक प्रश्न खड़ा कर दिया जिसका उत्तर तो शायद उस युग में भी अनुत्तरित ही रहा होगा तो आज कैसे मिल सकता है
भौतिक और भावनात्मक
आवश्यकताओं के लिए तो
उनकी संगिनी सीता उनके साथ थीं
लेकिन मेरे लक्ष्मण और उर्मिला ने तो
चौदह वर्ष का यह बनवास
नितांत अकेले शरशैया
की चुभन के साथ भोगा है
सीमा सिंघल की "ज़िन्दगी का कोई सवाल नहीं था" ह्रदय की ग्रंथियों में उमड़ी पीड़ा का जीता जागता दर्शन है. एक सीमा जिसके बाद ज़िन्दगी का कोई सवाल नहीं रहता .
सुनीता शानू की " एक विचार" सारी ज़िन्दगी का निचोड़ जो आत्मा महसूस करती है उसे प्रस्फुटित करती है
सुशीला शिवरण की "दाह का उत्सव" सटी प्रथा की पीड़ा का दिग्दर्शन करती उत्कृष्ट प्रस्तुति है जो एक सवाल के साथ ख़त्म होती है कि क्यों पुरुष भी पत्नी की चिता पर स्वयं का दाह नहीं करते . क्यों सारे कर्त्तव्य नारी के ही होते हैं ?
ढोल नगाड़ों के शोर में
दभी चीखें रूपकंवर की
गैरों की क्या कहिये
होली जली रक्त संबंधों की
मेरी जन्म भूमि में
पाप हुआ था घोर
हरकीरत हीर की "मैं तुम्हें मुक्त करती हूँ" पीड़ा का जीवंत उद्बोधन है जहाँ रिश्तों के मकडजाल से वो दोनों को मुक्त कर रही हैं बिना किसी चाह के
न अपनी की कमी से सूख गयी नदी का
हवाला देने आई हूँ
उखाड गयी सांसों को
रब रफ़्तार की जरूरत नहीं
ये तो बस मुक्ति मांगती हैं
मिटटी में फिर से बीज बनने के लिए
इसी संग्रह में एक कविता मेरी भी है---------
" और श्राप है तुम्हें ------मगर तब तक नहीं मिलेगा तुम्हें पूर्ण विराम "
आवरण पृष्ट और साज सज्जा साथ ही संपादन सभी बेजोड़ हैं जो पाठक को आकर्षित करते हैं साथ ही कवियों और कवयित्रियों का परिचय इतनी खूबसूरती से दिया है जो बरबस मन मोह लेता है .
अब इसे शब्दों का अरण्य कहूँ या भावुक मन की भावाव्यक्ति जिसमे सिर्फ और सिर्फ भावों की उद्दात तरगें ही समाहित दिखती हैं . अभी एक भाव से उबरे नहीं होते कि दूसरा भाव जकड लेता है और पाठक मन उसमे उलझा होता है कि तीसरा भाव बरबस अपनी तरफ आकृष्ट कर लेता है ऐसी बेजोड़ कृति अपने निजी पुस्तकालय में सहेजने योग्य है .
ये कुछ सुमन जो मैं संजो सकी संजो लिए और आपके सम्मुख प्रस्तुत कर दिए । जिन्हें नही ले पायी कृपया नाराज़ ना हों सिर्फ़ अपनी क्षमता के मुताबिक ही ले पायी हूँ नही तो कोई भी रचना ऐसी नही कि छोडी जा सके । अब आप भी महकिये इनकी खुशबू से और यदि भीगना चाहते हैं तो हिन्दयुग्म के शैलेश जी से या फ्लिप्कार्ट से मंगवा संकते हैं .
hind yugm
M : 9873734046, 9968755908
25 टिप्पणियां:
बढ़िया समीक्षा... पुस्तक पढने की इच्छा हो आई है... सभी प्रतिभागी रचनाकारों को बधाई
एक ही पुस्तक सबके नजर में अलग अलग... सबकी अलग अलग सोच...
पर निष्कर्ष यही निकल रहा की इसको खुद के बुक शेल्फ में होना चाहिए....!!
वास्तव में "गागर में सागर है..."
बेहतरीन समीक्षा ....... अब जब बेहतरीन लोगो के शब्दों में पुस्तक आएगी तो बेहतरीन ही कहलायेगी:)
है न!!
समीक्षा सुन्दर लगी..आपका आभार.
वाकई जितनी समीक्षा पढ़ती हूँ उतना गर्वान्वित महसूस करती हूँ ...बढ़िया समीक्षा और इस सुन्दर संकलन का हिस्सा होने की आपको भी बधाई वंदना जी...
और मुझे भी :-)
आभार रश्मि दी और शैलेश जी का.
सस्नेह
अनु
बहुत सुन्दर समीक्षा...
ऐसी पुस्तक के लिए बधाई!
----
OUTLOOK.COM पर ईमेल, वाह! क्या बात है
@वंदना जी आप तो एक बहुत ही अच्छी समीक्षक हैं यह एक बार फिर साबित कर दिए पहले आपने हमारी @उड़ते सितारों कि उड़ान कि बेहद सुन्दर समीक्षा कि थी और अब इसकी भी सार्थकता को आपने बखूबी बयान कर दिया...
हार्दिक बधाई आप सभी रचनाकारों को.
बेहतरीन पुस्तक परिचय .....
उत्कृष्ट समीक्षा .... आभार
यूहीं कोई किसी की सुध नहीं लेता
बिन मागें कोई किसी को कब देता
आपकी पसंद लाजबाब है .... !!
अति उत्तम समीक्षा .... !
बेहद खुबसूरत संकलन .निश्चित ही मंगवाकर पढ़ना चाहूँगा बेहतरीन समीक्षा .
Vandana ji...
Aappki sameeksha ne man moh liya hai...es pustak ko hum bhi apne lena chahenge...aur eska ek karan aur bhi hai.....es pustak ke kaviyon aur sampadika ji...sabko hi hum padhte rahe hain pahle se..sab apne-2 kshetr ke maharathi hain...sabka ek saath sankalan kisi pustak ke roop main hona saubhagya ki baat hai...!!!
Shubh divas!!!...
Deepak Shukla..
हिंदी ब्लॉगिंग का एक मील का पत्थर !
पूरे नाम एक साथ सम्बह्व नहीं थे फिर भी अच्छी समीक्षा !
Behtreen samisha, aapko aur sabhi rachnakaron ko bahut bahut badhai
शब्दों का अरण्य .... और महारथियों की कलम से समीक्षात्मक शब्दों की आहुति .... अरण्य का सौंदर्य , उसकी महत्ता बढ़ गई
आपकी कलम से ''शब्दों के अरण्य में'' की समीक्षा हर रचनाकार का सम्मान .. बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ..आभार आपका
दिल से शुक्रिया वंदना.
बहुत बढ़िया समीक्षा की है...सभी प्रतिभागी रचनाकारों को बधाई..
लाजवाब समीक्षा ... बहुत ही अच्छी बन पड़ी है ये पुस्तक सभी रचनाएं छूती हैं दिल को ..
बहुत सुन्दर संकलन
Sameeksha padhne ke baad ab pustak padhneka man bana liya hai!
Sundar sameeksha padhke ab kitab haath me leneka irada rakhti hun!
बहुत बढ़िया पुस्तक समीक्षा पुस्तक के बारे में एक ललक जगाती है. बहुत बधाई वंदना जी.
Very nice post.....
Aabhar!
Mere blog pr padhare.
वंदना जी नमस्कार...
आपके ब्लॉग 'जिंदगी एक खामोश सफर' से लेख भास्कर भूमि में प्रकाशित किए जा रहे है। आज 6 अगस्त को 'मेरी आहूति शब्दों के अरण्य में' शीर्षक के लेख को प्रकाशित किया गया है। इसे पढऩे के लिए bhaskarbhumi.com में जाकर ई पेपर में पेज नं. 8 ब्लॉगरी में देख सकते है।
धन्यवाद
फीचर प्रभारी
नीति श्रीवास्तव
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