किनारे बैठ मोहब्बत को उलीच रही हूँ
जानती हूँ ना .............
मेरी मोहब्बत कफ़न ओढ़ कर सो रही है
बताओ तो ज़रा.............
तुमने तो मोहब्बत के सारे गुलाब
कब से पन्नों में लपेट लिए हैं
और मैं यहाँ काँटों पर तुम्हारी
याद के नश्तर सीं रही हूँ
ऐसे में कैसे मोहब्बत को जगाऊँ
उस मोहब्बत को जिसे तुमने
खुद लहू से खींच खींच कर
जिस्म से जुदा किया था
और बेजान जिस्म में
अब हरकतें कहाँ होती हैं
लहू तो सारा रिस चुका है
और अब कोई राह भी तो नहीं दिखती
तो बताओ कैसे फिर से
मोहब्बत का लहू रगों में बहे
शिरायें तो कब की बंद हो चुकी हैं
किसी कश्ती की जरूरत नहीं
अब तो किनारे ही मुझे
मेरी मोहब्बत को सुकून देते हैं
तभी तो रोज किनारों पर बैठ
मोहब्बत को उलीचा करती हूँ
आखिर कब तक मोहब्बत को संवारूं मैं उधडे जिस्म में ..................
जानती हूँ ना .............
मेरी मोहब्बत कफ़न ओढ़ कर सो रही है
बताओ तो ज़रा.............
तुमने तो मोहब्बत के सारे गुलाब
कब से पन्नों में लपेट लिए हैं
और मैं यहाँ काँटों पर तुम्हारी
याद के नश्तर सीं रही हूँ
ऐसे में कैसे मोहब्बत को जगाऊँ
उस मोहब्बत को जिसे तुमने
खुद लहू से खींच खींच कर
जिस्म से जुदा किया था
और बेजान जिस्म में
अब हरकतें कहाँ होती हैं
लहू तो सारा रिस चुका है
और अब कोई राह भी तो नहीं दिखती
तो बताओ कैसे फिर से
मोहब्बत का लहू रगों में बहे
शिरायें तो कब की बंद हो चुकी हैं
शायद इसीलिए
अब मेरी मोहब्बत को किसी कश्ती की जरूरत नहीं
अब तो किनारे ही मुझे
मेरी मोहब्बत को सुकून देते हैं
तभी तो रोज किनारों पर बैठ
मोहब्बत को उलीचा करती हूँ
आखिर कब तक मोहब्बत को संवारूं मैं उधडे जिस्म में ..................
23 टिप्पणियां:
bahot khoobsurat andaz......
badi sanjida rachna hai !
बहुत ही शिद्दत के साथ मोहब्बत के एक नए आयाम से परिचित कराती रचना !
शुक्रिया .........
बहुत अच्छी अभिव्यक्ति!
गहरी कविता, प्रेमजल तो होना चाहिये बहने के लिये।
bhtrin rchna vndna bahn ise me facebook par shaer kar rhaa hun .akhtar khan akela kota rajsthan
टीस को बताती ,कसक को उकेरती सुन्दर रचना
अब ज़रूरत नहीं ... इस पटाक्षेप में कितनी ख़ामोशी है
pyar ki gahraayi ko btlaati khubsurat rachna....
वेदना में पगी सुंदर अभिव्यक्ति !
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल सोमवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
इस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - कहीं छुट्टियाँ ... छुट्टी न कर दें ... ज़रा गौर करें - ब्लॉग बुलेटिन
शीर्षक लाजवाब है।
उलीचने के बाद यह प्रवाह आस-पास के स्थल की सिंचन तो करेगा ही।
अच्छी कविता..
आखिर कब तक मोहब्बत को संवारूं मैं...!! या शायद यही यकीं दिला दो कि मोहब्बत खुद को संवार देगी, जिस्मो-रूह तर जायेंगे... कभी-न-कभी...
भावप्रवण रचना
मुहब्बत कों किसी किनारे की जरूरत नहीं ... दिल के दर्द कों लिखा है ... बहुत उम्दा ...
और उलीचने पर भी खाली नहीं होती...अद्भुत भाव...
भावमय करते शब्दों का संगम ...
प्रेम में पायी पीडा को शब्द दे दिये हैं आपने । आर्त रचना ।
sirf ahsaas hai ye, rooh se mehsoos karo.....
sirf ahsaas hai ye, rooh se mehsoos karo.....
शानदार भावों से सजी पोस्ट।
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