आओ लहू का बीज बोयें
लहू का खाद पानी दें
और लहू की ही खेती करें
अब रगो मे लहू का उफ़ान कहाँ
वो जमीन आसमान कहाँ
बन्जर मरुस्थलो मे
अब खिलते कँवल कहाँ
चलो यारो थोडा तेरा
थोडा मेरा
कुछ लहू बहाया जाये
एक लहू का दरिया बनाया जाए
सीनो मे अब दिल कहाँ
जज़्बातो मे वो सिहरन कहाँ
अहसासो मे वो अपनापन कहाँ
चलो यारो ज़िन्दा लाशो को
फिर से दफ़नाया जाये
कुछ तेरा और कुछ मेरा
थोडा लहू बहाया जाए
सरहदो मे अब फ़ासले कहाँ
आने जाने मे अब रुकावटें कहाँ
हर तरफ़ दहशतगर्दी का आलम
चलो फिर से इस बेजान शहर को
कब्रिस्तान बनाया जाए
यहाँ ज़िन्दा रूहो को दफ़नाया जाए
कुछ तेरी कुछ मेरी
लहू की भूख मिटायी जाए
ऐसे इक दूजे को काटा जाए
फिर ना कोई प्यास रहे
फिर ना कोई आस रहे
कहीं ना कोई विश्वास रहे
चलो यारो आओ इस देश को अपने
लहू का समन्दर बनाया जाए
जब ज़िन्दा ही चिताये जलती हैं
इंसान हर पल मरता हो
आतंक , भ्रष्टाचार का बोलबाला हो
आम आदमी के नसीब मे तो
सिर्फ़ भुखमरी का पाला हो
पैसे से जहाँ सबकी भूख मिटती हो
गद्दारो से धरती पटी पडी हो
जहाँ लाशें भी बिकती हों
और इंसानियत पर
बेईमानी , गद्दारी की
दीवारें चिनती हों
जहाँ मौत ज़िन्दगी से सस्ती हो
आदमी आदमी का दुश्मन हो
फिर क्यो न ऐसे देश मे यारो
अपनो का लहू बहाया जाए
खुद को स्वंय मिटाया जाए
जब मौत हर पासे ताण्डव करती हो
तो क्यों ना उसे गले लगाया जाए
इस बेबस लाचार कमजोर सभ्यता
को मिटाया जाए
प्रलय का दीदार कराया जाए
कुछ इस तरह यारों
आखिरी कर्ज़ चुकाया जाए
एक नये जहान,
एक नयी सभ्यता
एक नयी जमीन
और इंसानियत की खातिर
वर्तमान को ज़मींदोज़ किया जाये
भविष्य को नया सूरज दिया जाए
लहू का खाद पानी दें
और लहू की ही खेती करें
अब रगो मे लहू का उफ़ान कहाँ
वो जमीन आसमान कहाँ
बन्जर मरुस्थलो मे
अब खिलते कँवल कहाँ
चलो यारो थोडा तेरा
थोडा मेरा
कुछ लहू बहाया जाये
एक लहू का दरिया बनाया जाए
सीनो मे अब दिल कहाँ
जज़्बातो मे वो सिहरन कहाँ
अहसासो मे वो अपनापन कहाँ
चलो यारो ज़िन्दा लाशो को
फिर से दफ़नाया जाये
कुछ तेरा और कुछ मेरा
थोडा लहू बहाया जाए
सरहदो मे अब फ़ासले कहाँ
आने जाने मे अब रुकावटें कहाँ
हर तरफ़ दहशतगर्दी का आलम
चलो फिर से इस बेजान शहर को
कब्रिस्तान बनाया जाए
यहाँ ज़िन्दा रूहो को दफ़नाया जाए
कुछ तेरी कुछ मेरी
लहू की भूख मिटायी जाए
ऐसे इक दूजे को काटा जाए
फिर ना कोई प्यास रहे
फिर ना कोई आस रहे
कहीं ना कोई विश्वास रहे
चलो यारो आओ इस देश को अपने
लहू का समन्दर बनाया जाए
जब ज़िन्दा ही चिताये जलती हैं
इंसान हर पल मरता हो
आतंक , भ्रष्टाचार का बोलबाला हो
आम आदमी के नसीब मे तो
सिर्फ़ भुखमरी का पाला हो
पैसे से जहाँ सबकी भूख मिटती हो
गद्दारो से धरती पटी पडी हो
जहाँ लाशें भी बिकती हों
और इंसानियत पर
बेईमानी , गद्दारी की
दीवारें चिनती हों
जहाँ मौत ज़िन्दगी से सस्ती हो
आदमी आदमी का दुश्मन हो
फिर क्यो न ऐसे देश मे यारो
अपनो का लहू बहाया जाए
खुद को स्वंय मिटाया जाए
जब मौत हर पासे ताण्डव करती हो
तो क्यों ना उसे गले लगाया जाए
इस बेबस लाचार कमजोर सभ्यता
को मिटाया जाए
प्रलय का दीदार कराया जाए
कुछ इस तरह यारों
आखिरी कर्ज़ चुकाया जाए
एक नये जहान,
एक नयी सभ्यता
एक नयी जमीन
और इंसानियत की खातिर
वर्तमान को ज़मींदोज़ किया जाये
भविष्य को नया सूरज दिया जाए
33 टिप्पणियां:
भविष्य को नया सूरज दिया जाये ...
बहुत ही गहन भाव समेटे ...।
दुनिया में आज के हालत को लेकर लिखी गई बढ़िया कविता... बहुत सुन्दर
वाह,
मन को उद्वेलित कर गई कविता....वन्दना जी
वाह दी... सच कहा आपने...
देश की व्यवस्था पर कठोर और साथ ही मार्मिक प्रहार किया है ... जब उम्मीदें नाउम्मीदी में बदलने लगती हैं तब यूँ ही आहत मन से कामना की जाती है ... सशक्त रचना
सच कहा है आपने अब लहू से सींचा जा सकता है इस धरती को.......सुन्दर पोस्ट|
वन्दना जी
बहुत ही सुन्दर और लाजवाब कविता लिखी है आपने
धन्यवाद्
समग्र चिंतन...
सार्थक संकेत...
सादर...
सुन्दर रचना!
आहत मन सुनहरे भविष्य की कल्पना साकार करना चाहता है ..कलुषित वर्तमान की बेजारी शब्दों में खूब उतारी !
भावनाओं से ओतप्रोत रचना ....!
सुन्दर चिंतन से ओतप्रोत कविता... उद्वेलित कर रही है आपकी रचना...
मन की व्यथा को बहुत ही खूबसूरती से प्रस्तुत किया आपने....
वाकई ! सीनों में अब दिल कहाँ ??
शुभकामनायें !!
विचारोत्तेजक रचना.
वाह ,क्या बात है.
गहन अभिव्यक्ति.....सकारात्मक भावों का आव्हान लिए
बढ़िया कविता....सुन्दर पोस्ट|
Bade hee gahare vichar!
hum sabhi bloger dosto me sabse acchi kavita aapki hoti hai aabhar
आहत मन की पुकार कभी तो सुनी जाएगी...आमीन..
रक्षाबंधन की आपको बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं !
रक्षाबन्धन के पावन पर्व पर हार्दिक शुभकामनाएँ!
ठंडे ख़ून में उबाल लाने के लिए आपकी हूंकार सामयिक है।
bahot acchi kavita hai
बहुत सुंदर रचना,
दुष्यंत कुमार की दो लाइनें याद आ रही हैं..
कहां तो तय था चिरांगां हर एक घर के लिए
यहां मयस्सर नहीं चिराग, शहर के लिए।
आज ये दीवार पर्दे की तरह हिलने लगी,
लेकिन शर्त थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
एक पंक्ति और
तेरे सीने में ना सही तो मेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग , लेकिन आग जलनी चाहिए।
मन को उद्वेलित करती बहुत सटीक और उत्कृष्ट प्रस्तुति...आभार
A true global picture . Nothing is gonna change.
एक नये जहान,
एक नयी सभ्यता
एक नयी जमीन
और इंसानियत की खातिर
वर्तमान को ज़मींदोज़ किया जाये
भविष्य को नया सूरज दिया जाए
bahut hi sundar sandesh aur soch ,rakhi parv ki badhai le
भविष्य को लहू से सीचना होगा।
आह! ह्रदय में एक टीस उठी पढकर इन शब्दों को अभी हम क्या हैं और कहाँ पहुचना है ये होंसला तो बढ़ेगा और बढ़ेगा.....
हां,कुछ कर गुजरने का यह सही वक्त है। अन्यथा,इतिहास हमें शायद ही माफ़ करे।
सच को प्रतिबिम्बित करती बेहतरीन रचना...
chalo yaro jinda lashon ko
fir se dafnaya jae........sundar
bhavvibhor kar dene wali rachana ke
lie bahut2 badhi.
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