सोच की आखिरी सीढी पर जाकर कविता फिर मुडती है
और कहती है
कहां से शुरु करूँ
तुम अब तुम न रहे
मै अब मै न रही
न तुम्हारे जज़्बात मे
वो आंधियां रहीं
ना तुम्हारी कलम मे
वो स्याही रही
जिसमे लफ़्ज़ रूह
बनकर उतरते थे
और दिल पर
सुबह की ओस से
गिरते थे
फिर कैसे तुम करोगे
मुझे व्यक्त
अव्यक्त हूं और
अब अव्यक्त ही
रह जाऊंगी
क्योंकि अब
दीवारों पर
कांच का प्लास्टर
चढा रखा है
सब दिखने लगा है
आर -पार
तुम्हारे भीतर का
भयावह सच
तुम अब मुझे
जीते नही हो
उपभोग की
सामग्री बना दिया
मेरा क्रय विक्रय किया
और मेरे वजूद का
हर कोण पर
बलात्कार किया
क्योंकि अर्थ यूं ही
नही मिला करता
ज़माने की नब्ज़
के आगे तुमने भी
सिर झुका दिया
फिर कैसे करोगे
तुम मुझे व्यक्त
अब तुममे वो
चाशनी बची ही नही
वो अमृत रहा ही नही
आखिर तुमने भी
बाज़ारवाद की भेंट
चढा दिया मुझे
लौटा रही हूं
तुम्हारा अक्स तुम्हे
अब नही मिलूंगी
किसी दिल के बाज़ार मे
करवट बदलते
अब नही मिलूंगी
किसी गरीब की झोंपडी मे
आग सेंकते
अब नही मिलूंगी
किसी छंद मे बंद होते हुये
अब सब मिलेगा तुम्हे
मगर नही मिलेगा तो बस
स्वान्त: सुखाय का अर्थ
जाओ जी लो अपनी ज़िन्दगी
और कविता लौट गयी
कभी ना मुडने के लिये…………
और कहती है
कहां से शुरु करूँ
तुम अब तुम न रहे
मै अब मै न रही
न तुम्हारे जज़्बात मे
वो आंधियां रहीं
ना तुम्हारी कलम मे
वो स्याही रही
जिसमे लफ़्ज़ रूह
बनकर उतरते थे
और दिल पर
सुबह की ओस से
गिरते थे
फिर कैसे तुम करोगे
मुझे व्यक्त
अव्यक्त हूं और
अब अव्यक्त ही
रह जाऊंगी
क्योंकि अब
दीवारों पर
कांच का प्लास्टर
चढा रखा है
सब दिखने लगा है
आर -पार
तुम्हारे भीतर का
भयावह सच
तुम अब मुझे
जीते नही हो
उपभोग की
सामग्री बना दिया
मेरा क्रय विक्रय किया
और मेरे वजूद का
हर कोण पर
बलात्कार किया
क्योंकि अर्थ यूं ही
नही मिला करता
ज़माने की नब्ज़
के आगे तुमने भी
सिर झुका दिया
फिर कैसे करोगे
तुम मुझे व्यक्त
अब तुममे वो
चाशनी बची ही नही
वो अमृत रहा ही नही
आखिर तुमने भी
बाज़ारवाद की भेंट
चढा दिया मुझे
लौटा रही हूं
तुम्हारा अक्स तुम्हे
अब नही मिलूंगी
किसी दिल के बाज़ार मे
करवट बदलते
अब नही मिलूंगी
किसी गरीब की झोंपडी मे
आग सेंकते
अब नही मिलूंगी
किसी छंद मे बंद होते हुये
अब सब मिलेगा तुम्हे
मगर नही मिलेगा तो बस
स्वान्त: सुखाय का अर्थ
जाओ जी लो अपनी ज़िन्दगी
और कविता लौट गयी
कभी ना मुडने के लिये…………
27 टिप्पणियां:
इस कविता के लौट पडने के उपक्रम में बहुत सी बातें कह दी हैं ..बाजारवाद का प्रभाव , पैसा पाने कि होड़ .. स्वांत: सूखे के भाव का खत्म होना ...
बहुत सारगर्भित रचना ...
कविता और जीवन एक सिक्के के दो पहलू ही तो हैं!
आपने इस रचना में बाखूबी दोनों को निभाया है!
सच का आइना दिखाती शानदार रचना।
---------
हॉट मॉडल केली ब्रुक...
यहाँ खुदा है, वहाँ खुदा है...
अब नही मिलूंगी
किसी गरीब की झोंपडी मे
आग सेंकते
अब नही मिलूंगी
किसी छंद मे बंद होते हुये
अब सब मिलेगा तुम्हे
मगर नही मिलेगा तो बस
स्वान्त: सुखाय का अर्थ
जाओ जी लो अपनी ज़िन्दगी
और कविता लौट गयी
कभी ना मुडने के लिये…………
कविता के दर्द को शब्दों में ढाल दिया है आपने लग रहा है जैसे कविता बोल उठी हो... बहुत कुछ कहती रचना...
वाह वंदना जी, अच्छी कविता है....
साधुवाद .......
वाह वंदना जी, अच्छी कविता है....
साधुवाद .......
बहुत सुन्दर.....कुछ अलग सा.....प्रशंसनीय|
बहुत सुन्दर.....कुछ अलग हट के सुन्दर सारगर्भित रचना.....
कितनी सच्ची बात कह दी आपने .वाकई भाव बचे कहाँ हैं बाजार वाद में .
bahut achaaa
bahut achaaa
खूबसूरत कविता वंदना जी.. कविता और जीवन दोनों को समझा दिया आपने.. भाव से भरी कविता... बहुत खूब....
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
बहुत ही प्यारी रचना वंदना जी....
बधाई....
गहन अनुभूतियों से सजी बेहद प्रभावशाली और संवेदनशील कविता , बंधी मुट्ठियों से समाज ही नहीं देश भी बदल जाते है. आपकी भिची मुट्ठियाँ कुछ ऐसा ही सन्देश देती है. दमदार कविता के लिए बधाई स्वीकार करें
कविता पर कविता,वाह वंदना जी.
स्वान्त: सुखाय का अर्थ
जाओ जी लो अपनी ज़िन्दगी
और कविता लौट गयी
कभी ना मुडने के लिये…………
बहुत बढ़िया .....कविता भी लौट गयी क्योंकि स्वांत सुखी की सोच अब रही ही कहाँ है....
बहुत सारगर्भित, शानदार रचना.....
किसी छंद में बंद होते हुए
अब सब मिलेगा तो तुम्हे
मगर नहीं मिलेगा तो बस
स्वान्त: सुखाय का अर्थ
जाओ जी लो अपनी जिन्दगी
और कविता लौट गयी
कभी न मुड़ने के लिए.....
बहुत खूब....
Kaise likh letee ho harbaar itna sundar??
बहुत ही सुन्दर और सारगर्भित कविता...
बहुत सुंदर अभिवयक्ति,पर हम कवियों को बाजारवाद में केवल बुरा क्यों दिखता है, समाजवाद तो और भी खराब साबित हो चुका है, कृपया बुरा मत मानियेगा, जो मन में आया,मैंने लिख डाला,
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
बहुत ही सुन्दर ..प्यारी सी रचना
प्रत्येक शब्द में गहन भाव समेटे ..बेहतरीन अभिव्यक्ति ..।
बाजार भावनाओं को लील रहा है।
बहुत ही सुन्दर और सारगर्भित कविता|
कविता के माध्यम से आज के बदलते जीवन दर्शन पर प्रहार किया है वंदना जी. सराहनीय.
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