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मंगलवार, 14 जून 2011

और कविता लौट गयी कभी ना मुडने के लिये…………

सोच की आखिरी सीढी पर जाकर कविता फिर मुडती है
और कहती है
कहां से शुरु करूँ
तुम अब तुम न रहे
मै अब मै न रही
न तुम्हारे जज़्बात मे
वो आंधियां रहीं
ना तुम्हारी कलम मे
वो स्याही रही
जिसमे लफ़्ज़ रूह
बनकर उतरते थे
और दिल पर
सुबह की ओस से
गिरते थे
फिर कैसे तुम करोगे
मुझे व्यक्त
अव्यक्त हूं और
अब अव्यक्त ही
रह जाऊंगी
क्योंकि अब
दीवारों पर
कांच का प्लास्टर
चढा रखा है
सब दिखने लगा है
आर -पार
तुम्हारे भीतर का
भयावह सच
तुम अब मुझे
जीते नही हो
उपभोग की
सामग्री बना दिया
मेरा क्रय विक्रय किया
और मेरे वजूद का
हर कोण पर
बलात्कार किया
क्योंकि अर्थ यूं ही
नही मिला करता
ज़माने की नब्ज़
के आगे तुमने भी
सिर झुका दिया
फिर कैसे करोगे
तुम मुझे व्यक्त
अब तुममे वो
चाशनी बची ही नही
वो अमृत रहा ही नही
आखिर तुमने भी
बाज़ारवाद की भेंट
चढा दिया मुझे
लौटा रही हूं
तुम्हारा अक्स तुम्हे
अब नही मिलूंगी
किसी दिल के बाज़ार मे
करवट बदलते
अब नही मिलूंगी
किसी गरीब की झोंपडी मे
आग सेंकते
अब नही मिलूंगी
किसी छंद मे बंद होते हुये
अब सब मिलेगा तुम्हे
मगर नही मिलेगा तो बस
स्वान्त: सुखाय का अर्थ
जाओ जी लो अपनी ज़िन्दगी
और कविता लौट गयी
कभी ना मुडने के लिये…………

27 टिप्‍पणियां:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

इस कविता के लौट पडने के उपक्रम में बहुत सी बातें कह दी हैं ..बाजारवाद का प्रभाव , पैसा पाने कि होड़ .. स्वांत: सूखे के भाव का खत्म होना ...

बहुत सारगर्भित रचना ...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

कविता और जीवन एक सिक्के के दो पहलू ही तो हैं!
आपने इस रचना में बाखूबी दोनों को निभाया है!

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

सच का आइना दिखाती शानदार रचना।

---------
हॉट मॉडल केली ब्रुक...
यहाँ खुदा है, वहाँ खुदा है...

संध्या शर्मा ने कहा…

अब नही मिलूंगी
किसी गरीब की झोंपडी मे
आग सेंकते
अब नही मिलूंगी
किसी छंद मे बंद होते हुये
अब सब मिलेगा तुम्हे
मगर नही मिलेगा तो बस
स्वान्त: सुखाय का अर्थ
जाओ जी लो अपनी ज़िन्दगी
और कविता लौट गयी
कभी ना मुडने के लिये…………

कविता के दर्द को शब्दों में ढाल दिया है आपने लग रहा है जैसे कविता बोल उठी हो... बहुत कुछ कहती रचना...

योगेन्द्र मौदगिल ने कहा…

वाह वंदना जी, अच्छी कविता है....
साधुवाद .......

योगेन्द्र मौदगिल ने कहा…

वाह वंदना जी, अच्छी कविता है....
साधुवाद .......

बेनामी ने कहा…

बहुत सुन्दर.....कुछ अलग सा.....प्रशंसनीय|

Maheshwari kaneri ने कहा…

बहुत सुन्दर.....कुछ अलग हट के सुन्दर सारगर्भित रचना.....

shikha varshney ने कहा…

कितनी सच्ची बात कह दी आपने .वाकई भाव बचे कहाँ हैं बाजार वाद में .

बेनामी ने कहा…

bahut achaaa

बेनामी ने कहा…

bahut achaaa

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

खूबसूरत कविता वंदना जी.. कविता और जीवन दोनों को समझा दिया आपने.. भाव से भरी कविता... बहुत खूब....

Arun sathi ने कहा…

बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।

वीना श्रीवास्तव ने कहा…

बहुत ही प्यारी रचना वंदना जी....
बधाई....

Unknown ने कहा…

गहन अनुभूतियों से सजी बेहद प्रभावशाली और संवेदनशील कविता , बंधी मुट्ठियों से समाज ही नहीं देश भी बदल जाते है. आपकी भिची मुट्ठियाँ कुछ ऐसा ही सन्देश देती है. दमदार कविता के लिए बधाई स्वीकार करें

Kunwar Kusumesh ने कहा…

कविता पर कविता,वाह वंदना जी.

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

स्वान्त: सुखाय का अर्थ
जाओ जी लो अपनी ज़िन्दगी
और कविता लौट गयी
कभी ना मुडने के लिये…………

बहुत बढ़िया .....कविता भी लौट गयी क्योंकि स्वांत सुखी की सोच अब रही ही कहाँ है....

Sunil Kumar ने कहा…

बहुत सारगर्भित, शानदार रचना.....

***Punam*** ने कहा…

किसी छंद में बंद होते हुए

अब सब मिलेगा तो तुम्हे

मगर नहीं मिलेगा तो बस

स्वान्त: सुखाय का अर्थ

जाओ जी लो अपनी जिन्दगी

और कविता लौट गयी

कभी न मुड़ने के लिए.....



बहुत खूब....

kshama ने कहा…

Kaise likh letee ho harbaar itna sundar??

Dr Varsha Singh ने कहा…

बहुत ही सुन्दर और सारगर्भित कविता...

Vivek Jain ने कहा…

बहुत सुंदर अभिवयक्ति,पर हम कवियों को बाजारवाद में केवल बुरा क्यों दिखता है, समाजवाद तो और भी खराब साबित हो चुका है, कृपया बुरा मत मानियेगा, जो मन में आया,मैंने लिख डाला,
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

rashmi ravija ने कहा…

बहुत ही सुन्दर ..प्यारी सी रचना

सदा ने कहा…

प्रत्‍येक शब्‍द में गहन भाव समेटे ..बेहतरीन अभिव्‍यक्ति ..।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बाजार भावनाओं को लील रहा है।

Patali-The-Village ने कहा…

बहुत ही सुन्दर और सारगर्भित कविता|

रचना दीक्षित ने कहा…

कविता के माध्यम से आज के बदलते जीवन दर्शन पर प्रहार किया है वंदना जी. सराहनीय.