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गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

सीरतों पर भी नकाब होते हैं ..........

सीरत पर फ़िदा होने वाले
ये तेज़ाब के खौलते नालों में
अपना पता कहाँ पायेगा
खुद भी फ़ना हो जायेगा

इस शहर को अभी जाना कहाँ तूने
ये दूर से ही अच्छा लगता है 
ज्यूँ हुस्न परदे में ढका लगता है
इस शहर के हर चौराहे पर 
एक होर्डिंग टंगा होता है 
बचकर चलना ---आगे तीक्ष्ण खाइयाँ हैं 
जो भी गिरा फिर न वो बचता है
बाहरी सौंदर्य पर मुग्ध होने वाले
सर्प दंश से कब कौन बचता है 

ये ऐसी भयावह कन्दरा है 
उस पार का न कुछ दिखता है 
अन्दर आने का रास्ता तो है
बाहर का न कहीं दीखता है 
 हर सड़क इस शहर की 
एक दहकते अंगार की कहानी है
जहाँ मौत भी रुसवा हो जाये
ये ऐसी बियाबानी है

सीरत अवलोकन भी 
बाहरी दृश्यबोध कराता है
सीरत में छुपे अक्स को 
न दिखा पाता है
यहाँ रेत की दीवारें नहीं 
जो ढह जायें 
चारदीवारी मजबूत 
तूफानों से बनी है
हर तरफ चक्रवात 
चलता रहता है
जो शहर को न 
बसने देता है
ऐसे में तू अपना 
अस्तित्व कहाँ पायेगा ?
इस शहर की रूह की
उबलती , दहकती 
दरकती साजिशों 
में ही मिट जायेगा
मत आ ,
मत कर अवलोकन
मत देख सीरत
सीरतों पर भी नकाब होते हैं ..........
 

42 टिप्‍पणियां:

Saleem Khan ने कहा…

GR8

सदा ने कहा…

बहुत खूब ...।

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

सीरत अवलोकन भी बाहरी दृश्यबोध कराता है सीरत में छुपे अक्स को न दिखा पाता है

खूब कहा वंदनाजी ... बहुत सुंदर

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत बढ़िया रचना!
पहले तो सूरतों पर नकाब होते थे अब सीरतें भी नकाबपोश बन गईं हैं!
नये-नये विषयों पर आपकी रचनाएँ बहुत सशक्त होती हैं!

OM KASHYAP ने कहा…

बहुत खूबसूरत भाव भरेँ है आपने रचना मेँ ।
बधाई........ !

mridula pradhan ने कहा…

wah. bahut achchi lagi.

Mithilesh dubey ने कहा…

बहुत बढ़िया रचना!


लौहांगना ब्लॉगर का राग-विलाप

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

वंदना जी आज के समय में जीवन में जो छद्मता आ गई है उस पर सुन्दर कविता... आपकी कविता का दायरा दिनों दिन बढ़ रहा है...

sonal ने कहा…

sachhi panktiyaan

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

इच्छाओ का बहिष्कार ... जीवन के तमाम अवसादों का इलाज़ है... गीत में कृष्ण ने भी कहा है इच्छा नहीं रखने के लिए.. स्वामी विवेकानंद ने भी डीटेटच्मेंट पर जोर दिया था.. सुन्दर आह्वान !

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

aajkal kahan koi seerat ko dekhta hai, bas surat.......:)

shikha varshney ने कहा…

आज तो तेवर अलग हैं ..बढ़िया रचना.

Sushil Bakliwal ने कहा…

चक्रव्यूह में घूमता रह जाएगा...

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

बहुत ही बढ़िया.

सादर

मुकेश कुमार तिवारी ने कहा…

वन्दना जी,

एक नई बात है कि सीरतों पर नकाब है......यूँ तो जिंदगी खुद एक ख्वाब है।

अच्छी लगी आपकी कविता....

सादर,

मुकेश कुमार तिवारी

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

बहुत सुंदर।

---------
काले साए, आत्‍माएं, टोने-टोटके, काला जादू।

Anupriya ने कहा…

सीरत पर फ़िदा होने वाले
ये तेज़ाब के खौलते नालों में अपना पता कहाँ पायेगा खुद भी फ़ना हो जायेगा
इस शहर को अभी जाना कहाँ तूने ये दूर से ही अच्छा लगता है ज्यूँ हुस्न परदे में ढका लगता है...wah kya baat hai...

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " ने कहा…

'हर सड़क इस शहर की

एक दहकते अंगार की कहानी है

जहाँ मौत भी रुसवा हो जाये

ये ऐसी बियाबानी है '

गहन भावों का सुन्दर सूक्ष्म चित्रण

हरीश जोशी ने कहा…

इस शहर को अभी कहां जाना तूने ये तो दूर से ही अच्‍छा लगता है, वाह । बहुत ही अच्‍छी पंक्तियां और शहर की सीरत का अनुपम चित्रण । बधाई।

हरीश जोशी ने कहा…

इस शहर को अभी कहां जाना तूने ये दूर से ही अच्‍छा लगता है, बहुत अच्‍छी पंक्तियां हैं । शहरी जिंदगी और उसके छद्म को उधेड़ती हुई । बधाई ।

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

sunder rachna
AIBA ki adhyksha bnne par bdhai ho

Shah Nawaz ने कहा…

वाह! बेहतरीन!!!

Deepak Saini ने कहा…

बहुत खूबसूरत भाव भरेँ है आपने रचना मेँ ।
बधाई........ !

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

कविता की अंतिम सात पंक्तिया बहुत ही ख़ूबसूरत है !

Neeraj Kumar ने कहा…

बहुत ही अच्छी... खूबसूरत

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत ख़ूबसूरत..

deepti sharma ने कहा…

bahut khub
..

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

.........

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

.........

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बेहतरीन रचना।

ktheLeo (कुश शर्मा) ने कहा…

वाह! वंदना जी सुन्दर अभिव्यक्ति!
"सच में" पर आना छोड ही दिया आपने तो!

Amit Chandra ने कहा…

बस इतना ही कहुगॉ। ग्रेट।

सु-मन (Suman Kapoor) ने कहा…

बहुत खूब .....

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

आज सीरत भी कहाँ नज़र आती है ...बहुत अच्छे से चेतावनी सी देती अच्छी रचना

वाणी गीत ने कहा…

क्या बात है ...
सूरत ही नहीं सीरतों पर भी नकाब होते हैं ...
शहर की सूरत और सीरत के प्रति आगाह किया है ...
बहुत शानदार , तीक्ष्ण कटाक्ष- सी मगर यथार्थपरक कविता !

Rakesh Kumar ने कहा…

वंदना जी ,कविता और उस पर हुईं टिप्पणिओं को पढकर अच्छा लग रहा है .परन्तु यदि कविता के भावों पर जरा अपनी ओर से कुछ और प्रकाश डालें तो ज्यादा अच्छा लगेगा.

Kunwar Kusumesh ने कहा…

धोखा तो क़दम क़दम पर है ही आजकल के युग में .सूरत पे भी नहीं सीरत पे भी नहीं तो किस पर भरोसा करे आदमी.

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत बढ़िया रचना!
गहन भावों का सुन्दर सूक्ष्म चित्रण

Sadhana Vaid ने कहा…

बहुत ही सशक्त एवं सार्थक रचना ! प्रभावशाली अभिव्यक्ति ! बधाई एवं शुभकामनायें !

शाहजाहां खान “लुत्फ़ी कैमूरी” ने कहा…

हकीकत और कुछ नहीं.

त्रिवेणी ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति !

Priti Krishna ने कहा…

महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय,वर्धा के ब्लॉग हिन्दी-विश्व पर २६ फ़रवरी को राजकिशोर की तीन कविताएँ आई हैं --निगाह , नाता और करनी ! कथ्य , भाषा और प्रस्तुति तीनों स्तरों पर यह तीनों ही बेहद घटिया , अधकचरी ,सड़क छाप और बाजारू स्तर की कविताएँ हैं ! राजकिशोर के लेख भी बिखराव से भरे रहे हैं ...कभी वो हिन्दी-विश्व पर कहते हैं कि उन्होने आज तक कोई कुलपति नहीं देखा है तो कभी वेलिनटाइन डे पर प्रेम की व्याख्या करते हैं ...कभी किसी औपचारिक कार्यक्रम की रिपोर्टिंग करते हुए कहते हैं कि सब सज कर ऐसे आए थे कि जैसे किसी स्वयंवर में भाग लेने आए हैं .. ऐसा लगता है कि ‘ कितने बिस्तरों में कितनी बार’ की अपने परिवार की छीनाल संस्कृति का उनके लेखन पर बेहद गहरा प्रभाव है . विश्वविद्यालय के बारे में लिखते हुए वो किसी स्तरहीन भांड से ज़्यादा नहीं लगते हैं ..ना तो उनके लेखन में कोई विषय की गहराई है और ना ही भाषा में कोई प्रभावोत्पादकता ..प्रस्तुति में भी बेहद बिखराव है...राजकिशोर को पहले हरप्रीत कौर जैसी छात्राओं से लिखना सीखना चाहिए...प्रीति सागर का स्तर तो राजकिशोर से भी गया गुजरा है...उसने तो इस ब्लॉग की ऐसी की तैसी कर रखी है..उसे ‘कितने बिस्तरों में कितनी बार’ की छीनाल संस्कृति से फ़ुर्सत मिले तब तो वो ब्लॉग की सामग्री को देखेगी . २५ फ़रवरी को ‘ संवेदना कि मुद्रास्फीति’ शीर्षक से रेणु कुमारी की कविता ब्लॉग पर आई है..उसमें कविता जैसा कुछ नहीं है और सबसे बड़ा तमाशा यह कि कविता का शीर्षक तक सही नहीं है..वर्धा के छीनाल संस्कृति के किसी अंधे को यह नहीं दिखा कि कविता का सही शीर्षक –‘संवेदना की मुद्रास्फीति’ होना चाहिए न कि ‘संवेदना कि मुद्रास्फीति’ ....नीचे से ऊपर तक पूरी कुएँ में ही भांग है .... छिनालों और भांडों को वेलिनटाइन डे से फ़ुर्सत मिले तब तो वो गुणवत्ता के बारे में सोचेंगे ...वैसे आप सुअर की खाल से रेशम का पर्स कैसे बनाएँगे ....हिन्दी के नाम पर इन बेशर्मों को झेलना है ..यह सब हमारी व्यवस्था की नाजायज़ औलाद हैं..झेलना ही होगा इन्हें …..